सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

भास्वती सरस्वती प्रकरण ३ बीसवीं सदीके भारतकी मानसिकता

प्रकरण -
बीसवीं सदीके भारतकी मानसिकता --ठीकठाक किया ०९--२०१८


अठारहवीं, उन्नीसवीं बीसवीं सदीमें जब यूरोपमें विज्ञानके कारण आर्थिक प्रगति, समृद्धि, साम्यवाद जैसे नये सिद्धान्तोंका उदय इत्यादि हो रहे थे वहीं भारतीय मानस एक अजीबसी कुंठामें घिरा हुआ था। पराजित मानसिकता पनप रही थी। उन्नीसवीं सदीमें जगह-जगह छोटे-बडे राज्योंने अंगरेजोंसे लडाइयाँ लडीं थीं और एकके बाद एक हार चुके थे।

सदियोंसे भारतकी विशेषता यह रही थी कि भारतीय समाजका ढाँचा एक सरीखा था। गाँवोंके व्यवस्थापनमें ही शिक्षा प्रणाली अंतर्निहित थी। उसमें सैद्धान्तिक शिक्षा, व्यवहार शिक्षा और कौशल्य शिक्षा तीनों समाविष्ट थीं राजाओंने कभी इसे नहीं छेडा था। लेकिन अंगरेज कालमें यह पद्धती बिखरने लगी और उनकी लाई हुई नई प्रणाली जनमानसमें अपना स्थान बनाने लगी। अंगरेज अपनी राज्यव्यवस्थाके साथ जो शिक्षाव्यवस्था लाये उसपर औद्योगिक क्रांतिकी छाप पडना अवश्यंभावी था। वही मशीनीकरण जब भारतमें भी लाया गया तो निश्‍चित रूपसे नये-नये कौशल्योंकी गरज बढती गई जो पुरानी शिक्षा पद्धतिमें नहीं थे -- मसलन रेलकी पटरियाँ बिछाना जो एक नितान्त नया कौशल्य था। इन नये कौशल्योंको सीखनेकी गरजमें हमारे पुराने कौशल्य हमसे छूटते चले गये।

एक ओर पराजयका सन्निकट इतिहास था। दूसरी ओर अंगरेजी भाषाका ज्ञान आवश्यक हो गया था और नये हुनर हासिल किये बगैर गरीबी जा नहीं सकती थी। मिल उत्पादोंके कारण ग्रामीण रोजगार कम होते जा रहे थे। ऐसेमें भारतियोंकी मानसिकता बन गई कि जो अंगरेज करते हैं वही सही है और जो भारतीय करते हैं वह गलत है। विवेकानन्दने इसका विरोध डटकर किया। विवेकानन्द, आर्य समाज, तथा तिलक द्वारा चलाये गये आयुर्वेद महाविद्यालय आदि कुछ गिने-चुने प्रयासही बचे रहे।

लेकिन अधिकांश भारतीयोंकी यही मान्यता बनती चली कि अंगरेजी शिक्षा, पश्‍चिमी सभ्यता,
पश्‍चिमकी विज्ञान-निष्ठा और वहाँके व्यक्तिप्रधान सैद्धान्तिक विचार अपनाये बिना उन्नति संभव नही है। जिसने उसे अपनाया, उसीका उत्कर्ष हुआ - सामाजिक प्रतिष्ठा मान्यता मिलती रही - वही "सक्सेस स्टोरीज" बनी।

तो १८५० में जबसे अंगरेजोंने अपनी नई शिक्षा प्रणाली लागू की तबसे यह तय हो गया कि अंगरेजी भाषा, पश्‍चिमी विचार, पश्‍चिमी विज्ञानको अपनाना और जिसे जिसे अंगरेजोंने अंधविश्‍वास बताया हो उसे त्यागना, यही उत्कर्षका रास्ता है। फिर लोक उसी राहपर बढने लगे। भारतियताको छोडनाही गौरवान्वित होनेकी पहली सीढी थी।

इसी क्रममें आर्योके आक्रमणका सिद्धान्त भी भारतीय विद्वानोंने इतनी पूर्णतासे अपनाया कि स्वतंत्रताके बाद भी हमारे देशके बडे बडे इतिहासाचार्य जैसे रोमिला थापर आदि उसी सिद्धान्तको बढाते रहे।

हमारी विषयप्रस्तुतिके तीसरे कालखण्ड अर्थात् १९२० से १९८० के दौरके उत्खननोंका आरंभिक विश्‍लेषण भी इसी भूमिकामें निबद्ध था। १९२१ में पहलेपहल मोहेन-जो-दारो हरप्पाके उत्खनन हुए और पाया गया कि वहाँ कोई अप्रगत नही वरन् विकसित सभ्यता बसती थी जो कालान्तरमें विनष्ट हो गई। इसी सभ्यताको द्रविड सभ्यता बताते हुए आर्योंके विरुद्ध द्रविड नामक एक नये वादकी नींव पडी जिसकी चर्चा हमने पिछले प्रकरणमें की है।

यहाँ सारे उत्खननोंका वर्षवार ब्यौरा लेना आवश्यक हो जाता है। उत्खननोंके आरम्भिक निष्कर्षोंको आर्य-आक्रमणके सिद्धान्तमें किस प्रकार फिट किया गया वह हमने अठारहवींसे बीसवीं सदीके यूरोपीय इतिहासके माध्यमसे उनके चश्मा समझते हुए देखा। कई भारतीय भी अगले ५०-७५ वर्षोंतक इन्हीं निष्कर्षोंको प्रमाण मानते रहे। लेकिन १९५० के बादके उत्खननोंने नई नई परतोंको खोला और नई नई जगहोंको भी खोला। ये उत्खनन कुछ और ही तथ्य प्रकट करने लगे। उनके कारण एक विरोधी मतप्रणाली भी बन चली जो इस प्रकार है --
  • हरप्पन सभ्यताके नष्ट होनेका समय ईपू १२०० नहीं हो सकता बल्कि उसके कई शताब्दियाँ पीछे जाता है। करीब ईपू २५०० से २००० तक ।
  • यह तय है कि वेदोंकी रचना हरप्पन सभ्यताके नष्ट होनेसे पहले हुई, अर्थात् वेदोंकी रचनाका काल और भी पीछे जाता है और वे किसी आक्रमणकारीकी रचना नही हो सकते।
  • मोहोन-जो-दारो और हरप्पासे अन्य जो उत्खनन हुए जैसे लोथाल, कालीबंग, राखीगढी इत्यादि - उनसे सिद्ध होता है कि ये सारे पूर्वकालीन शहर एकही सभ्यताके चिह्न हैं। इसे सरस्वती सभ्यता कहना अधिक उचित है।
  • यदि सुमेरियन या ग्रीक सभ्यताका काल इपू २५०० तय है तो इसका अर्थ हुआ कि हरप्पन सभ्यता उससे पहले आरंभ हुई और वैदिक सभ्यता भी। अर्थात् यही विश्‍वकी सबसे पुरानी सभ्यता है।

कहनेकी आवश्यकता नही कि इस दूसरी मतप्रणालीके समर्थकोंने ऋग्वेदमें उल्लेखित सरस्वती नदी सरस्वती देवीके सूक्तोंका संदर्भ देते हुए तथा वेदकालीन समृद्धिकी चर्चा करते हुए विपुल ग्रंथोंकी रचना की है जो सरस्वतीके देदीप्यमान रूपको प्रकट करते हैं। इनमें सबसे विस्तृत और गहन रचनाकार भारत इतिहास संकलन समितीमें सरस्वती शोधके निदेशक श्री कल्याणरामन हैं जिनके सरस्वती संबंधित सात खण्ड प्रसिद्ध हैं।

उत्खननोंमें मिलनेवाली कई तरहकी वस्तुएँ जैसे धान, बरतन, मिट्टी, तांबे या धातुओंकी बनी मुद्राएँ (सील), जीवाश्म (फॉसिल्स), इत्यादिपर कार्बन डेटिंग अथवा कुछ अन्य पद्धतियोंके प्रयोग करनेसे उनकी आयुका अनुमान लगाया जाता है। हरप्पासे लेकर राखीगढ तकके उत्खननोंकी कार्बन परीक्षाके माध्यमसे ही यह जाना जा सका कि सरस्वतीके तटोंपर बसी यह पूरी सभ्यता एक ही कालकी है - एक ही है और वह काल भी .पू. १२०० जितना नया नही बल्कि .पू. २५०० से ४००० के बीचका है । इसी कार्बन डेटिंगने सबसे पहले आर्य-आक्रमणके सिद्धान्तको ध्वस्त करना आरंभ किया ।
आर्योंको आक्रान्ता सिद्ध करनेके जो भी प्रयास हुए उनके पीछे एक बडा राजनैतिक कारण भी था। उसका उद्देश इतना सीमित नही था कि भारत पर अपने आक्रमण को सही ठहराया जाये या यहाँ पर राज्य करते हुए यहाँसे अधिकाधिक धन-संपत्ति ब्रिटेन ले जायें। मेकॉले मॅक्समुलरके कई लेख या पत्र पढनेसे यह ज्ञात होता है कि उनका उद्देश इससे और भी अधिक जटिल था। भारतकी सांस्कृतिक अस्मिताको झझकोरकर, घायल कर, यहाँ ऐसी बुद्धिजीवी जमात खडी करनी थी जो भारतियोंको पश्‍चिमी सभ्यता एवं ख्रिश्चन धर्मकी ओर ले जा सके। इसके लिये आवश्यक था कि भारतीय अपनी संस्कृतिको क्षुद्र पाश्‍चात्त्योंको उच्च मानें। अपनी भाषा, अपनी ज्ञान-परंपरा आदिको हेय दृष्टिसे देखें। इसके लिये आवश्यक था कि भारतीय बुध्दिजीवी भी आर्य-आक्रमण सिद्धान्तको मानें तथा स्वीकार करें। और वास्तवमें हम पाते हैं कि उन्नीसवीं दी तथा बीसवीं के पूर्वार्द्धमें ऐसे सैकडों-हजारों बुद्धिजीवी हुए जो पश्‍चिमी सभ्यतासे अति प्रभावित थे तथा अनुगृहित महसूस करते थे । दुर्भाग्यसे वह मानसिकता आज भी नही गई। स्वतंत्रता प्राप्तिके ७५ वर्षो बाद वह मानसिकता और भी अधिक मजबूतीसे जडें पकड रही हैं।

ऐसे वातावरणमें सरस्वती नदीका प्रवाह फिरसे पुनरुज्जीवित किया जा सका तो वह भारतके लिये अति गौरवपूर्ण घटना होगी। विद्यादायिनी सरस्वती जलदायिनी सरस्वतीका पुनर्मिलन होगा। सरस्वती फिर एक बार भास्वती होगी और भारतको भी प्रभावान कर देगी। व्यावहारिक पक्षसे देखा जाये तो हिमालयसे प्रभास या कच्छतक बहनेवाली सरस्वती पुनः एकबार इस इलाकेमें जल-परिवहनको सुगम कर सकती है। जैसा कई विद्वान् मानते हैं, सरस्वतीके चौडे पाटके कारण वैदिककालमें समुद्री व्यापार बहुलतासे था। वह रास्ता एकबार फिर खुल सकता है। इस क्षेत्रमें बाढकी संभावना रोकनेके लिये भी यह कारभार उपाय है। सरस्वतीकी खोजमें जुडे हजारों विद्वानों, शोधकर्मियों, पाठकों और सारे भारतियोंको उस दिनकी प्रतीक्षा है जब सरस्वती फिरसे प्रवाहित होगी।

हमारी विषय-प्रस्तुतिके चौथे कालखण्ड अर्थात् सन १९८० के बादकी चर्चा हम अगले प्रकरणोंमें करेंगे।




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