रविवार, 1 दिसंबर 2019

***** भगवद्गीता द्वितीयोध्यायमें धर्मका स्वरूप


भगवद्गीता द्वितीयोध्यायमें धर्मका स्वरूप
भगवद्गीताका विवेचन विविध व्यक्तियोंने विभिन्न अंगोंसे किया है आदि शंकराचार्यसे वर्तमान काल तक शायद ही कोई भारतीय तत्ववेत्ता होगा जिसने अपने तरहसे गीताकी व्याख्या ना की हो अब तो मैनेजमेंट गुरु भी इस ग्रंथको मैनेजमेंटकी पढ़ाईका अनूठा साधन बताते हैं मैं यहाँ केवल तनी ही चर्चा प्रस्तुत कर सकती हूँ कि गीताके जो वचन मेरे मनको भा गए, उन्हें आत्मसात करनेकी और उसी अनुसार आचरण करनेकी प्रज्ञा मेरे मनमें उपजी और आचरणके अनुभवसे समझ आया कि यही धर्म है, उनका वर्णन आपके सम्मुख रखूँ।




गीताका प्रसंग क्या है यह इतिहास सर्वविदित हैचिंतामें डूबा हु धृतराष्ट्र व्यासजी के पूछने पर कहता है कि आप मुझे युद्ध देखनेकी दिव्य दृष्टि ना दें, वह मुझसे नहीं देखा जाएगा यह संजय जो मेरा सारथी और सलाहकार है, जो स्वयं विद्वान है, नीति-नीति को जानता है इसे दिव्यदृष्टि दें, यही मुझे बताए इसी कारण गीताका आरंभ "धृतराष्ट्र" उवाच से होता है और पहला ही शब्द है धर्मक्षेत्रे अर्थात जो क्षेत्र ही अपने निवासियोंको धर्म भावनासे भर देता है, धार्मिक बना देता है। तो हे संजय, ऐसे कुरुक्षेत्रमें मेरे और पांडुके बेटोंने क्या क्या किया ?
यह कुरुक्षेत्र धर्मका गर कैसे बना ? महाभारतमें वर्णन है कि पांडवों से भी पचास-साठ पीढ़ियों पूर्व यहाँके राजा कुरुने इसे धर्मक्षेत्र बनाया कैसे? तो अगणित बार जोत कर इतना ज्योता कि आज भी यहाकी जमीनमें पचास फीटकी गहराई तक भी मुलायम मिट्टी ही निकलती है, कठिन पाषाण नहीं निकलते यह कृषि भी एक धर्म ही है अंततः हारकर इंद्रको यह आश्वासन देना पड़ा कि कुरुक्षेत्रमें जो व्यक्ति ईश्वरचिंतन करते हुए अन्न त्यागसे मृत्युका वरण करेगा अथवा क्षत्रिय धर्म निभाते हुए युद्धमें मृत्युको प्राप्त होगा वह स्वर्गका अधिकारी होगा
संजयके वर्णनसे हमें ज्ञात होता है कि कौरवोंके सेनापति सबके पितामह भीष्मके शंखनादसे उत्साहमें भरकर अर्जुन भी शंखध्वनि करता है और अत्यंत अधीरतासे दोनों सेनाओंको देखने हेतु श्रीकृष्णसे निवेदन करता है कि रथको दोनों सेनाओंके मध्य ले चलो मैं देखूं तो सही कि मुझे जीतकर दुर्योधनका प्रिय करनेकी इच्छासे यहां कौन-कौन आया हैलेकिन वही अर्जुन क्षण मात्रमें ही यह देखकर लितगात्र हो जाता है कि दोनों र तो मुझे अपने गुरु, पूजनीय एवं संबंधी ही दिख रहे हैंयदि युद्धमें ये ही मारे जाने वाले हैं तो हम युद्ध जीत कर भी क्या पा लेंगे ? स्वजनोंके मोहमें अर्जुन ऐसा डूबता है कि पृथ्वीका अथवा स्वर्गका राज्य भी उसे नहीं चाहिए, वरन शत्रुके हाथों मारा जाना भी चलेगा परंतु युद्ध नहीं करूँगा, ऐसी उसकी मनःस्थिति हो जाती है
कई बार कुछ संशयात्मा प्रश्न उठाते हैं कि क्या धर्मका विवेचन युद्ध भूमि पर किया जा सकता है और वह भी इतने विस्तारसे ? क्या वह उचित समय है? मेरे विचारमें यह शंका अनुचित है युद्ध ऐसी घटना है जिसके विषयमें विवेकीको अधिक विचार नहीं करना पड़ता है केवल विवेकशील व्यक्ति ही उसे टालनेके विषयमें सोचता है वह पांडवोंने भी किया था और जब हर प्रयासके बावजूद पश्चात् यह पाया कि युद्धको नहीं टाला जा सकता, तब वे युद्धमें उतरनेको विवश हुए अर्थात विवेक व विचारको आजमानेका समय बीत चुका था और अब अटल हो चले युद्धको लड़नेका समय आ चुका था उस क्षण युद्धमें पूरी एकाग्रतासे उतरना ही धर्म थावही करनेके लिए अर्जुनको समझाना आवश्यक था कि किसी दूरस्थ भविष्यकी संभावना पर विचार अवश्य करो परंतु जब कर्मका क्षण सम्मुख उपस्थित हो जाए तो उस क्षणके द्वारा व्याख्यायित कर्मको करना ही धर्म हैनिर्णायक कालमें मीनमेख करना धर्म नहीं है
लेकिन श्रीकृष्णको तत्काल यह भान भी हो जाता है कि अर्जुनका अवसाद अत्यंत गहरा है, उसपर कार्पण्यदोष छा गया है और वह तीव्रतासे धर्मसंमूढ हो गया हैउसे धर्मका पूरा रूप समग्रता से समझाए बिना धर्मचैतन्यका उदय नहीं होगा इसी कारण पहले झटकेमें इसे डांट फटकार लगाते हुए भले ही कृष्णने उसकी शंकाको अनार्यजुष्ट, अकीर्तिकर या क्लैब्य कहा हो, भले ही उसे हृदयकी दुर्बलता त्यागकर "उत्तिष्ठ" का आदेश दिया हो, पर कृष्णने जान लिया कि यह जो अपना दोष छुपानेके लिए बड़ी-बड़ी प्रज्ञाकी बातें कर रहा है, उसे तर्कशुद्धतासे धर्मका सही स्वरूप समझाना होगाउसे बताना होगा कि वह जिस धर्मका बखान कर रहा है, सच्चा धर्म उससे कुछ अलग ही है
आगे चौथे अध्यायमें श्री कृष्णने अपनी प्रतिज्ञा बताई है " धर्मसंस्थापनार्था संभवामि युगे युगे " इसलिए भी आवश्यक है कि अर्जुनके सम्मुख धर्मका पूरा ही विवेचन रखा जाए, आधा अधूरा रखनेपर अर्जुन भी स्वीकार नहीं करेगा किसीसे आज्ञापालन करवाना और किसीके मनकी गहराईमें अपनी बात उतारना ताकि वह उसे आत्मसात करे, दोनोंमें अंतर हैआज्ञा हो तो संशयकी स्थिति बनी रहती है लेकिन युद्ध विजयके लिए अर्जुनके अंतर्मनतक यह स्पष्टतासे पहुंचाना होगा कि धर्म क्या है और उस क्षण युद्ध करना ही धर्म है इसीलिए इतना विस्तार और वह भी उसी क्षण, वहींपर दोनों सेनाओंकेके मध्यमें अर्जुनको समझाने हेतु आवश्यक था
गीता का दूसरा अध्याय सांख्ययोग धर्म संबंधी कई सूत्रोंको बताता है। श्रीकृष्णने प्रथमतः धर्मका तत्व कहा कि विगत और अनागत दोनों क्षणोंका विचार और उनका शोक छोड़कर वर्तमान क्षणको निभाओ।जो भूतकालमें घट गया और जो अभीतक भविष्यके कोहरेमें है दोनोंके विषयमें सोचना पंडिताई नहीं है, धर्म नहीं है हे अर्जुन, जिस धर्मसंकल्पना के आधारसे तुम इस युद्धको अधर्म कह रहे हो वह संकल्पना ही गलत हैयुद्ध करना या न करना, स्वजनोंकी हत्या करना या न करना, इससे धर्मका निर्णय नहीं होता वरन सम्मुख उपस्थित क्षणके द्वारा व्याख्यायित कर्मको करना ही धर्म है
यहाँ एकत्रित हुए योद्धाओंको मारने वाला तू कौन है? जो आघात- प्रत्याघात होने वाले हैं, वे शरीरके साथ होने वाले है, आत्मा तो अविनाशी हैआत्मा अपने देह रूपी वस्त्रको उसी प्रकार बदलता रहता है जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रको त्यागकर नए अपनाता है भूतकालमें ऐसा कोई भी समय नहीं हुआ जब मैं या तुम नहीं थे और भविष्यमें भी कभी ऐसा समय नही आएगा।आत्माकी इस अविनाशिताको तू धर्म जान
आगे श्रीकृष्णने धर्मके सारभूत तीन बातें कहीं -पहली यह कि मनुष्य सुखदुःख, लाभालाभ या जयपराजयको स्थिर बुद्धिसे देखे क्योंकि ये सारे केवल शरीरके व्यापार हैं आत्माके नहीं श्रीकृष्णने मात्रास्पर्श शब्दका प्रयोग किया है सुख-दुःख आदि मानसिक भावोंसे इंद्रियोंमें जो विभ्रम होते हैं वह मात्रास्पर्श हैं, अनित्य हैं, क्षणिक हैं, इसलिए हे अर्जुन, उनकी तितिक्षा करना सीखो और उनके प्रति समत्व बुद्धि रखोतभी तुम्हारी बुद्धि स्थिर रहेगी। स्थितप्रज्ञकी व्याख्यामें श्रीकृष्ण कते हैं नाभिनंदति न द्वेष्टि।अर्थात शरीरमें उनेवाले मात्रास्पर्शसे जो आनंदित भी नहीं होता और उद्वेलित भी नहीं होता वह स्थितप्रज्ञ है और स्थितप्रज्ञता ही धर्म है
सुखदुःख या लाभालाभकी भावना मनुष्यमें क्यों आती है ? क्योंकि वह जब कर्म करता है तब उसके फलकी इच्छा भी रखता है परंतु इच्छित फलकी प्राप्ति अथवा प्राप्ति होते ही वह सुख या दुखका अनुभव करता है इसलिए हे अर्जुन, तू केवल कर्मपर अपना अधिकार मान परंतु कर्मफलको अपना अधिकार मत समझ तभी तू सुख और दुखके प्रति स्थिर बुद्धि रख पाएगा
परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि तू कर्मके प्रति उदासीन और अकुशल हो जाए कर्मको पूरी श्रद्धासे और पूरी कुशलतासे करना यही धर्म है, यही योग हैअपने कर्मोंको कुशलतासे करो, उत्कृष्ट कर्म करो अच्छा फल मिले, उत्तम से उत्तम फल मिले, इसके लिए प्रयत्नपूर्वक व स्वाध्यायपूर्वक कर्म करो, यही धर्म है बस इतना ध्यान रहे कि फलके प्रति तुम्हें निष्काम भाव रखना है फल जैसा भी है उसे मुदित मन और स्थिर बुद्धिसे स्वीकारना है
उत्तम कर्म, निष्काम कर्म, और फलको निष्काम भावसे स्वीकारनेके लिए ज्ञानकी आवश्यकता है, अभ्यास और वैराग्यकी आवश्यकता है।इनके साधन-वर्णन के बिना धर्मचिंतन पूरा नही होगा।उसीको अगले अध्यायोंमें समझाया है। 
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शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

Raghava Yadaviyam राघवयादवीयम्

तं भूसुतामुक्तिमुदारहासं
वन्दे यतो भव्यभवं दयाश्रीः ।
श्रीयादवं भव्यभतोयदेवं
संहारदामुक्तिमुतासुभूतम् ॥ १॥

चिरं विरञ्चिर्न चिरं विरञ्चिः
साकारता सत्यसतारका सा ।
साकारता सत्यसतारका सा
चिरं विरञ्चिर्न चिरं विरञ्चिः ॥ २॥

तामसीत्यसति सत्यसीमता
माययाक्षमसमक्षयायमा ।
माययाक्षसमक्षयायमा
तामसीत्यसति सत्यसीमता ॥ ३॥

का तापघ्नी तारकाद्या विपापा
त्रेधा विद्या नोष्णकृत्यं निवासे ।
सेवा नित्यं कृष्णनोद्या विधात्रे
पापाविद्याकारताघ्नी पताका ॥ ४॥

श्रीरामतो मध्यमतोदि येन
धीरोऽनिशं वश्यवतीवराद्वा
द्वारावतीवश्यवशं निरोधी
नयेदितो मध्यमतोऽमरा श्रीः ॥ ५॥

कौशिके त्रितपसि क्षरव्रती
योऽददाद्ऽद्वितनयस्वमातुरम् ।
रन्तुमास्वयन तद्विदादयोऽ
तीव्ररक्षसि पतत्रिकेशिकौ ॥ ६॥

लम्बाधरोरु त्रयलम्बनासे
त्वं याहि याहि क्षरमागताज्ञा ।
ज्ञातागमा रक्ष हि याहि या त्वं
सेना बलं यत्र रुरोध बालम् ॥ ७॥

लङ्कायना नित्यगमा धवाशा
साकं तयानुन्नयमानुकारा ।
राकानुमा यन्ननु यातकंसा
शावाधमागत्य निनाय कालम् ॥ ८॥

गाधिजाध्वरवैरा ये
तेऽतीता रक्षसा मताः ।
तामसाक्षरतातीते
ये रावैरध्वजाधिगाः ॥ ९॥

तावदेव दया देवे
यागे यावदवासना ।
नासवादवया गेया
वेदे यादवदेवता ॥ १०॥

सभास्वये भग्नमनेन चापं
कीनाशतानद्धरुषा शिलाशैः ।
शैलाशिषारुद्धनताशनाकी
पञ्चानने मग्नभये स्वभासः ॥ ११॥

न वेद यामक्षरभामसीतां
का तारका विष्णुजितेऽविवादे ।
देवाविते जिष्णुविकारता का
तां सीमभारक्षमयादवेन ॥ १२॥

तीव्रगोरन्वयत्रार्यो
वैदेहीमनसो मतः ।
तमसो न महीदेवै-
र्यात्रायन्वरगोव्रती ॥ १३॥

वेद या पद्मसदनं
साधारावततार मा ।
मारता तव राधा सा
नन्द सद्मप यादवे ॥ १४॥

शैवतो हननेऽरोधी
यो देवेषु नृपोत्सवः ।
वत्सपो नृषु वेदे यो
धीरोऽनेन हतोऽवशैः ॥ १५॥

नागोपगोऽसि क्षर मे पिनाकेऽ
नायोऽजने धर्मधनेन दानम् ।
नन्दानने धर्मधने जयो ना
केनापि मे रक्षसि गोपगो नः ॥ १६॥

ततान दाम प्रमदा पदाय
नेमे रुचामस्वनसुन्दराक्षी ।
क्षीरादसुं न स्वमचारु मेने
यदाप दाम प्रमदा नतातः ॥ १७॥

तामितो मत्तसूत्रामा
शापादेष विगानताम् ।
तां नगाविषदेऽपाशा
मात्रासूत्तमतो मिता ॥ १८॥

नासावद्यापत्रपाज्ञाविनोदी
धीरोऽनुत्या सस्मितोऽद्याविगीत्या ।
त्यागी विद्यातोऽस्मि सत्त्यानुरोधी
दीनोऽविज्ञा पात्रपद्यावसाना ॥ १९॥

सम्भावितं भिक्षुरगादगारं
याताधिराप स्वनघाजवंशः ।
शवं जघान स्वपराधिताया
रङ्गादगारक्षुभितं विभासम् ॥ २०॥

तयातितारस्वनयागतं मा
लोकापवादद्वितयं पिनाके ।
केनापि यं तद्विदवाप कालो
मातङ्गयानस्वरतातियातः ॥ २१॥

शवेऽविदा चित्रकुरङ्गमाला
पञ्चावटीनर्म न रोचते वा ।
वातेऽचरो नर्मनटीव चापं
लामागरं कुत्रचिदाविवेश ॥ २२॥

नेह वा क्षिपसि पक्षिकन्धरा
मालिनी स्वमतमत्त दूयते ।
ते यदूत्तमतम स्वनीलमा-
राधकं क्षिपसि पक्षिवाहने ॥ २३॥

वनान्तयानस्वणुवेदनासु
योषामृतेऽरण्यगताविरोधी ।
धीरोऽवितागण्यरते मृषा यो
सुनादवेणुस्वनयातनां वः ॥ २४॥

किं नु तोयरसा पम्पा
न सेवा नियतेन वै ।
वैनतेयनिवासेन
पापं सारयतो नु किम् ॥ २५॥

स नतातपहा तेन
स्वं शेनाविहितागसम् ।
सङ्गताहिविनाशे स्वं
नेतेहाप ततान सः ॥ २६॥

कपितालविभागेन
योषादोऽनुनयेन  सः ।
स नये ननु दोषायो
नगे भाविलतापिकः ॥ २७॥

ते सभा प्रकपिवर्णमालिका
नाल्पकप्रसरमभ्रकल्पिता ।
ताल्पिकभ्रमरसप्रकल्पना
कालिमर्णव पिक प्रभासते ॥ २८॥

रावणेऽक्षिपतनत्रपानते
नाल्पकभ्रमणमक्रमातुरम् ।
रन्तुमाक्रमणमभ्रकल्पना
तेन पात्रनतपक्षिणे वरा ॥ २९॥

दैवे योगे सेवादानं
शङ्का नाये लङ्कायाने ।
नेयाकालं येनाकाशं
नन्दावासे गेयो वेदैः ॥ ३०॥

शङ्कावज्ञानुत्वनुज्ञावकाशं
याने नद्यामुग्रमुद्याननेया ।
याने नद्यामुग्रमुद्याननेया
शङ्कावज्ञानुत्वनुज्ञावकाशम् ॥ ३१॥

वा दिदेश द्विसीतायां
यं पाथोयनसेतवे ।
वैतसेन यथोपायं
यन्तासीद्ऽविशदे दिवा ॥ ३२॥

वायुजोऽनुमतो नेमे
सङ्ग्रामेऽरवितोऽह्नि वः ।
वह्नितो विरमे ग्रासं
मेनेऽतोऽमनुजो युवा ॥ ३३॥

क्षताय मा यत्र रघोरितायु-
रङ्कानुगानन्यवयोऽयनानि ।
निनाय यो वन्यनगानुकारं
युतारिघोरत्रयमायताक्षः ॥ ३४॥

तारके रिपुराप श्री-
रुचा दाससुतान्वितः ।
तन्वितासु सदाचारु
श्रीपुरा पुरि के रता ॥ ३५॥

लङ्का रङ्काङ्गराध्यासं
याने मेया काराव्यासे ।
सेव्या राका यामे नेया
सन्ध्यारागाकारं कालम् ॥ ३६॥

॥ इति श्रीदैवज्ञपण्डित सूर्यकवि विरचितं
विलोमाक्षररामकृष्णकाव्यं समाप्तम् ॥
Another One.

Raghava Yadaviyam
Raghava-yadaviyam by Venkatadhvari (17th cent.) is an “anuloma-viloma kavya” that narrates the story of Rama. But the Shlokas read in the reverse relate an adventure of Shri Krishna.

वन्देऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः । रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥
“I pay my obeisance to Lord Shri Rama, who with his heart pining for Sita, travelled across the Sahyadri Hills and returned to Ayodhya after killing Ravana and sported with his consort, Sita, in Ayodhya for a long time.”
In reverse
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोरा । यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देहं देवं ॥
“I bow to Lord Shri Krishna, whose chest is the sporting resort of Shri Lakshmi;who is fit to be contemplated through penance and sacrifice, who fondles Rukmani and his other consorts and who is worshipped by the gopis, and who is decked with jewels radiating splendour.
Download at
Ramakrishna Viloma kavyam can be found here:
Citation.


पठामि संस्कृतम् भाग २६४ साधनपाद १५-१७ Pathami sanskritam 264 Sadhanpad

पठामि संस्कृतम् भाग २६४ साधनपाद १५-१७ Pathami sanskritam 264 Sadhanpad

सोमवार, 22 जुलाई 2019

कठोपनिषद --अभंगवृत्तात अभ्यंकर


 <श्रीदैवज्ञपण्डित सूर्यकवि विरचितं विलोमाक्षररामकृष्णकाव्यं> मधे खालीलप्रमाणे मिळालं.

तं भूसुतामुक्तिमुदारहासं वन्दे यतो भव्यभवं दयाश्रीः । श्रीयादवं भव्यभतोयदेवं संहारदामुक्तिमुतासुभूतम् ॥ १॥

अर्थ पुढीलप्रमाणे मिळाला 
<पहली पंक्ति का अन्वयसहित अर्थ —
तं — उन ( प्रभु राम को )
वन्दे — मैं वन्दना करता हूँ
जो
भू-सुता-मुक्तिं — धरतीपुत्री सीता को छुड़ाने वाले हैं
उदार-हासं — जिनकी हँसी उदार है
( रावण अट्टहास करता था, उसकी हँसी कठोर थी )
यतो भव्यभवं — जिनसे सुन्दर लीलाएँ हुईं
या यह भी अर्थ कर सकते हैं
जिनका अवतार भव्य है
दया-श्री: — लोगों पर दया करना ही जिनका धन है
और अब दूसरी पंक्ति का भी अन्वयसहित अर्थ देखिए । यहाँ
[ वन्दे ] शब्द पहली लाइन से समझना पड़ेगा — मैं वन्दना करता हूँ ।
————————
श्रीयादवं — यदुकुल में उत्पन्न ( प्रभु श्रीकृष्ण ) को
भव्यभ-तोयदेवं — जो भ ( सूर्य ) और तोयदेव ( तोय अर्थात् पानी यानी समुद्र से उत्पन्न देवता यानी चन्द्रमा ) की तरह भव्य हैं 
संहार-दा-मुक्तिम् — संहार करने वाली ( पूतना राक्षसी ) को मुक्त करने वाले हैं
उत — और
असु-भूतम् — [ संसार के ] असु ( प्राण/आत्मा ) हैं ।>

कठोपनिषद

वेदांमध्ये एक / कृष्ण यजुर्वेद / कठोपनिषद / वेदांती ह्या -१-
चला अभ्यासूया / कठोपनिषद / त्याचा शांतिमंत्र / प्रसिद्धचि -२-
आपणा दोघांचे / होऊं दे रक्षण / होऊं दे पोषण / दोघांचेही -३- 
दोघेही मिळून / करूं कार्य थोर / तेजस्वी करूं या / विद्यार्जन -४- 
आपणां दोघांत / वितुष्ट न येवो / सर्वदा असूं दे / मनःशांति -५- 
त्रितापांची शांति / असावी म्हणून / शान्तिः शान्तिः शान्तिः / प्रार्थू सदा -६- 
कठोपनिषदी / दोन्ही अध्यायात / तीन तीन वल्ली / आहेत ना -७- 
वाजश्रवसांनी / सर्वस्वाचा त्याग / करण्यास यज्ञ / मांडलेला -८-  
बालिश वयाचा / नचिकेता नांव / त्यांचा पुत्र पाही / कुतूहलें -९- 
नेल्या जात होत्या / त्यांच्या गायी साऱ्या / त्राण नव्हताच / एकीतही -१०- 
नचिकेता करी / मनांत विचार / ऐशा गायी देणें / योग्य काय -११- 
आणिक विचार / त्याचे मनीं आला / वाजश्रवसांच्या / सर्वस्वाचा -१२- 
मीही एक अंश / असल्याने पिता / माझेही दान कां / करतील -१३- 
बालिश मुलाने / मनांत आलेला / प्रश्न विचारला / वडिलांना -१४- 
माझेही दान कां / आपण कराल / कोणास कराल / माझे दान -१५- 
वडिलांचे नाही / उत्तर म्हणून / पुनःपुन्हा प्रश्न / विचारला -१६- 
यज्ञविधीमध्ये / वांकडा हा प्रश्न / म्हणून प्रथम / दुर्लक्षिला -१७- 
मुलाने लकडा / लावल्याने मात्र / कांही चिडूनच / उत्तरले -१८- 
तुजला देईन / मृत्यूलाच पहा / त्याने नचिकेता / गोंधळला -१९- 
माझे असते ना / बहुतेक काम / प्रथम प्रतीचे / मध्यम वा -२०- 
ऐशा हुशारशा / मुलास घेऊन / यम तो करील / काय बरें -२१- 
संचितानुसार / जन्मतो कीं जीव / प्रारब्धानुसार / पुनःपुन्हा -२२- 
वडील देतील / मजला यमास / माझेच प्रारब्ध / तेंही खरें -२३-
गवताची पात / कितीही छाटली / तृण उगवते / पुनःपुन्हा -२४- 
मनोमनी ऐसा / विचार कांहीसा / करीत निश्चय / करूनिया -२५- 
वडिलांनी दान / करण्याचे आधी / स्वतःच पोचला / यमद्वारी -२६- 
ब्राह्मण अतिथी / द्वारापाशी येतां / त्याचेशी वर्तन / नियमित -२७-
यजमानाने कीं / स्वागत करावे / वैश्वानररूप / मानूनियां -२७- 
वैवस्वता घेई / उदक आणिक / शांतीचा देई गा / आशीर्वाद -२८- 
ऐसा उपचार / करण्यास कोणी / नव्हते किं काय / यमगृही -२९- 
अतिथीचा योग्य / सत्कार न होतां / सर्वनाशभय / यजमानां -३०- 
नचिकेता तरी / होता यमद्वारी / उपाशी तापाशी / तीन रात्री -३१- 
यमराज आले / कोठूनसे जेव्हां / त्यांनाही वाटली / उपरती -३२- 
अपराधाच्या कां / पारिपत्यासाठी / नचिकेतालागी / म्हणालेही -३३- 
मागूनियां घेई / तीन वर बाळा / मनास येईल / तुझ्या जें जें -३४- 
नचिकेता तेव्हां / पहिल्या वराने / मागता जाहला / काय पहा -३५-
गौतम कुळीच्या / माझ्या वडिलांचा / यज्ञाचा संकल्प / सिद्ध होवो -३६- 
माझ्याविषयीचा / राग घालवूनी / त्यांना स्वस्थचित्त / करी देवा -३७- 
उद्दालकपुत्र / वडील आरुणी / यमद्वाराहूनी / परतल्या -३८- 
तुझे करतील / पूर्वीप्रमाणेच / प्रेमाने स्वागत / दिला वर -३९- 
दुसरा वर मी / मागण्याचे पूर्वी / जाणू मी इच्छितो / खरेंच कां -४०- 
ऐकले आहे ना / स्वर्गात नसतें / भय वृद्धत्वाचे / मृत्यूचेही -४१- 
नसतात तिथे / भूक वा तहान / दुःख किंवा शोक / नसतात -४२- 
ज्या कोण्या अग्नीने / भस्मसात होती / ऋणको प्रवृत्ती / साऱ्या साऱ्या -४३- 
अमरत्वयुक्त / निर्मळ आनंद / देणारी चेतना / देई मज -४४- 
यमाने म्हटले / अजाण बालक / दिसतोस जरी / सुजाण तूं -४५- 
अग्नीच चेतना / चेतना अग्नीच / कार्यरत झाली / विश्वारंभी -४६- 
तैशा त्या अग्नीला / तुझ्याच नांवाने / ओळखतील ना / इतःपर -४७- 
तैसी ती चेतना / देतो मी तुजला / आणीकही घेई / सांखळी ही -४८- 
वर्णच्छटा हिच्या / लोभस कितीक / मागितल्यावीण / देतो तुज -४९- 
सांगावे वाटतें / योग्यांना मिळते / निर्मल अवस्था / कैसी पहा -५०- 
त्रिवार करावें / अग्नीचे पूजन / तीन प्रकारची / कर्में हवी -५१- 
त्रिपुटी असती / जगतीं सर्वत्र / अतीत राहणें / तेंच खरें -५२- 
अतीत राहणें / ज्यास साध्य झाले / जन्ममृत्यूतूनी / मुक्ती त्यास -५३- 
प्रथमाध्यायाच्या / प्रथमा वल्लीत  / विशेष दिसतो / तीन अंक -५४-
नचिकेता तरी / यमद्वारी होता / तिष्ठत राहीला / तीन रात्री -५५- 
म्हणून यमाने / वर दिले तीन / येथेही त्रिपुटी / सांगीतल्या -५६- 
दोन्ही अध्यायात / तीन तीन वल्ली / वल्ली म्हंजे काय / प्रश्न आला -५७- 
वल्ली म्हंजे वळी / पदर वा घडी / जीवनाचा डाव / तीन घडी -५८- 
प्रतिदिनी पहा / संधिकाल तीन / सत्त्व राज तम / त्रिगुण ते -५९-
गीतेच्या सतराव्या / अध्यायात पहा / त्रिगुणात्मकसे / विवेचन -६०- 
आहाराचे आणि / यज्ञ तप दान / ह्यांचेही ॐ तत् सत् / ह्यांचे सुद्धा -६१- 
पुढे अठराव्यात / त्यागाचे आणीक / कर्ता कर्म ज्ञान / बुद्धी धृति -६२- 
सुखाचेही केले / तैसे विवेचन / त्रिगुणात्मकचि / साऱ्या गोष्टी -६३- 
विश्वाचा रगाडा / असाच चालतो / जाणीव देऊनी / नचिकेता -६४- 
यमांनी म्हटलें / तिसराही वर / काय मागायचा / माग आता -६५- 
नचिकेता म्हणे / चिकित्सक वृत्ती / मरणोत्तरही / असते कां -६६- 
कांहींचे म्हणणें / असते ती वृत्ती / कांहींचे म्हणणे / नसतेच -६७- 
शंका-निरसन / इतुकें करावें / तिसऱ्या वराने / मागतो मी -६८- 
यमांनी म्हटलें / देवांनीही ऐसे / ज्ञान मिळवाया / यत्न केला -६९- 
त्यांना सुद्धा नाही / उकलले गूढ / भरीस मजला / नको पाडूं -७०- 
दुसरा कोणता / माग ना तूं वर / तुझ्या ह्या वयास / शोभेलसा -७१- 
नचिकेता म्हणे / देवांनाही जर / ह्यात रस होता / नक्कीच हें -७२- 
मिळवण्याजोगे / असले पाहिजे / गुरु तुजवीण / अन्य कोण -७३- 
तिसऱ्या वराने / हेंच ज्ञान मज / मिळावें निश्चय / ठरतो ना -७४- 
असा आग्रह कां / धरतोसी बाळा / शतायुषी होणे / माग ना तें -७५- 
पुत्र पौत्र आणि / गायी हत्ती घोडे / सत्ता असीमित / धन धान्य -७६- 
वैभव अपार / माग इच्छापूर्ती / अलभ्याचा लाभ / तोही माग -७७- 
दुर्गम्य ज्ञानाचा / कशास आग्रह / माझीही परीक्षा / घेतोस ना -७८- 
नचिकेता म्हणे / होणार इंद्रिये / जीर्ण स्वभावतः / ठरलेले -७९- 
जीर्ण इंद्रियांनी / दीर्घायु जगणे / तेंही निरर्थक / नव्हे काय -८०- 
गायी हत्ती घोडे / साऱ्याचे आयुष्य / सदा असणार / मर्यादित -८१- 
अमाप लाभले / धन धान्य जरी / मिरवतात कां / अंगावर -८२- 
इच्छापूर्ती वर / जरी तूं देशील / संपतात काय / इच्छा कधी -८३- 
गुंततच जातो / गुंतून राहतो / व्यवधान सारे / हरपते -८४- 
मी जो मागीतला / तोच वर देई / कृपा असो द्यावी / मजवरी -८५-
इथवर करूं / प्रथमाध्यायाच्या / पहिल्या वल्लीचे / समापन -८६- 
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प्रथमाध्यायाच्या / दुसऱ्या वल्लीचा / करूंया अभ्यास / आतां चला -८७-
लोकांना ज्या गोष्टी / भावतात त्यांत / कांही श्रेयस्कर / प्रियकर -८८-
श्रेयस्कर घ्याव्या / त्यांनी भलें होतें / हानिकारकचि / प्रियकर -८९-
 वेळोवेळी पहा / श्रेयस्कर आणि / प्रियकर ऐसे / पर्याय कीं -९०- 
दिसती समोर / पैकी श्रेयस्कर / निवडती धीर / व्यक्ती पहा -९१- 
मंद लोक तरी / निवडती प्रिय / योगक्षेमासाठी / योग्य नव्हे -९२- 
दिदुलेजा* ऐशा / हिंदी फिल्ममधे / शाहरूखखानही / सांगतो ना -९३- 
(* दिदुलेजा = दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे)
म्हणे त्याची आई / त्याला सांगतसे / दोनसे पर्याय / असतात -९४- 
पर्याय कठीण / जरी वाटणारा / त्यानेच होईल / भलें पहा -९५-
यमांनी म्हटलें / नचिकेता तुवां / प्रियकर गोष्टी / नाकारल्या -९६- 
चमचमणाऱ्या / मण्यांची सांखळी / तीही तुवां ठाम / नाकारली -९७- 
सामान्यतः लोक / भुलतात खास / पाहूनी मोहक / गोष्टी पहा -९८- 
लाकूडतोड्याच्या / गोष्टीत नाही का / मोहक कुऱ्हाडी / देवी देते -९९- 
मात्र सत्यवादी / लाकूडतोड्या तो / नाही ना भुलत / अजिबात -१००- 
मानवी मनाची / खात्री नसते ना / विवेकीं विद्येच्या / अविद्येच्या -१०१- 
विद्याभिलाषीच / वृत्ती असल्याने / मोहांनी नाही तूं / भुललास -१०२- 
स्वतःस पंडित / म्हणवणारेही / असती गर्तेत / अविद्येच्या -१०३- 
दिशाभूल त्यांची / होतच असते / अंधाच्या साथीस / अंध जणूं -१०४-
इहलोकापेक्षा / कोणताही लोक / बालबुद्धीच्यास / भावेचिना -१०५- 
ते तर म्हणती / इहलोकापेक्षा / नसतोच लोक / कोणताही -१०६- 
ऐसे मूढ लोक / अज्ञानाकारणे / पुनःपुन्हा येती / इहलोकी -१०७- 
इहलोकी जे जे / जीव येती पहा / माझीया पाशात / अडकती -१०८- 
परलोकाविषी / क्वचितच कोणी / ऐकले असते / खरे तर -१०९- 
ऐकले तरीही / याचे ठीक ज्ञान / क्वचितच कोणा / असते ना -११०- 
माहितीनंतर / इतरां सांगेल / कौशल्याने काय / आश्चर्य तें -१११- 
ज्ञानलाभ होतां / कौशल्ये करील / आचरण तेंही / आश्चर्यचि -११२- 
गीतेतही आहे  / श्लोक एक ऐसा / आश्चर्यवत् पश्यति / कश्चिदेनम् -११३-
परलोकज्ञान / अध्यात्मज्ञान तें / अयोग्य व्यक्तीस / गमेल ना -११४- 
बहुत अभ्यास / केल्यानंतरचि / समजूं येईल / आत्मा काय -११५- 
अनन्यभावाने / चिंतन करीता / आत्म्याची सत्यता / ठसेल ना -११६- 
तरी अणूपेक्षा / सूक्ष्म असल्याने / अणूनेही कैसे / मोजणार -११७- 
पहा तुका म्हणे  / तिळाइतुकेच / बिंदुले दाटते / त्रिभुवन -११८- 
तिळाइतुक्या त्या / बिन्दूल्याच्या घरी / हरिहर दोघे / खेळतात -११९- 
आत्मज्ञान तरी / दुसऱ्या कोणाच्या / सांगण्याने किंवा / तर्कानेही -१२०- 
समजत नाही / मात्र नचिकेता / आहेस आगळा / प्रश्नकर्ता -१२१- 
धीरवृत्तीचा नि / सत्याचा शोधक / प्रेमच वाटतें / तुजविषी -१२२- 
जाणीव असावी / नित्य गोष्ट किंवा / कायमचा ठेवा / मिळवण्या -१२३- 
अनित्यशा गोष्टी / नाहीच कामाच्या / म्हणून हा अग्नि / नाचिकेत -१२४- 
चेतवूनी त्याने /अनित्य गोष्टींचे / भस्म करूनीया / नित्य झालो -१२५- 
कामनांची पूर्ति / लोकांत प्रतिष्ठा / अनंत वैकल्ये / निर्भयता -१२६- 
सर्वत्र स्तुतीच / पाहूनियां सारे / नाही विचलित / होशील तूं -१२७- 
ध्यास तरी हवा / आत्मज्ञानाचाच / जरी तें गहन / कठीणही -१२८- 
हर्ष आणि शोक / दोन्ही त्यजूनिया / योग नि अध्यात्म / अभ्यासावे -१२९-  
मी जें सांगितलें / श्रुतीवचन तें / सारभूत मनीं / सांठवावें -१३०- 
विस्तृत विचार / स्वतःचा करावा / धर्म तो जाणावा / आचरावा -१३१- 
अधिक सांगावें / नाही ना लागत / समझदारको / इशाराच -१३२- 
यमदेवा जैशा / गुरुचे कडून / मिळवावे ज्ञान / सटीक ना -१३३- 
ऐसाच कांहीसा / विचार करून / नचिकेता पहा / प्रश्न करी -१३४- 
अधर्माचरण / तुज नावडते / धर्माने वागणे / आवडते -१३५- 
कोणी काय केले / जाणतोसी सर्व / टाळाटाळ सुद्धा / जाणतोसी -१३६- 
भूतकाळ सर्व / तूचि जाणतोस / तूचि जाणतोस / भविष्यही -१३७- 
पूर्ण ज्ञानासाठी / माहीत असावे / धर्म नि अधर्म / दोन्ही तरी -१३८- 
पूर्ण ज्ञानासाठी / माहीत असावे / करावे टाळावे / काय काय -१३९- 
वर्तमान ऐशा / गोष्टी क्षणोक्षणी / भूतकाळी लीन / होतात ना -१४०- 
भविष्यकालीन / गोष्टी वर्तमानीं / दाखल होतात / क्षणोक्षणी -१४१- 
काळ आणि कर्म / यांची जी सांगड / तुजला माहीत / सांग मज -१४२- 
सर्व वेद ज्यास / ध्येय मानतात / तापसी करती / तपें सुद्धा -१४३- 
ब्रह्मचारी ज्याचा / अभ्यास करती / तें पद सांगतो / ऐक तरी -१४४- 
पद तें ओंकार / अक्षर तें पद / तेंचि ब्रह्मपद / परम तें -१४५- 
ह्याचे ज्ञान होतां / ज्यास जें जें हवे / त्यास तें तें प्राप्त / होतें पहा -१४६- 
ह्याचाच आश्रय / श्रेष्ठ नि परम / ब्रह्मलोकी सुद्धा / मान ह्याचा -१४७- 
नाही ह्याने होते / हानी कसलीही / ह्याची सुद्धा हानी / होत नाही -१४८- 
देह नष्ट होतां / हेंही नष्ट होतें / ऐसे जे मानती / अज्ञानी ते -१४९- 
हें तो मात्र तत्त्व / पुराण शाश्वत / जन्मते ना कधी / मरतें ना -१५०- 
 मोठ्याहूनी मोठे / सूक्ष्मांहूनि सूक्ष्म / स्थिरबुद्धीनेच / ध्यानीं येतें -१५१- 
जवळीं असतां / दूरसें वाटतें / जागीच तरीही / सर्वत्र हें -१५२- 
सगुण निर्गुण / गुणाचे अगुण / गहन हें ज्ञान / सुलभ ना -१५३- 
देहात विदेही / अवस्थाविहिनी / राहे अवस्थित / आत्मतत्त्व -१५४- 
नाही हें कळत / प्रवचनाद्वारे / पुस्तके वाचून / स्वतर्काने -१५५- 
तत्त्व तें स्वतःच / निवड करीते / कोणास तें व्हावें / अवगत -१५६- 
दुराचार ज्याचा / नाही सुधारत / नाहीच कसलें / समाधान -१५७- 
अशा कोणासही / नाही उमगेल / प्रज्ञा स्थिर होतां / उमगेल -१५८-
ज्याच्या चित्राहुती / ब्राह्मण्य नि क्षात्र / मृत्यु तें उदक / सिंचनास -१५९- 
ऐसी ज्याची वृत्ती / जरी सिद्ध झाली / ऐशा कोणास कां / उमगेल -१६०- 
ऐशा सूचनेने / प्रथमाध्यायाच्या / दुसऱ्या वल्लीचे / समापन -१६१- 

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