सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

भास्वती सरस्वती प्रकरण - ४ सरस्वती नदी शोध अभियान (१८५०-२०००)


प्रकरण -

सरस्वती नदी शोध अभियान (१८५०-२०००) ठीकठाक किया ०९--२०१८

अंगरेज शासनकालके दौरान उनके अलग अलग अधिकारियोंने भारत-संबंधित अलग अलग विषयोंमें रुचि दर्शाई। जनरल कनिंगहॅमकी रुचि प्राचीन स्थलोंमें थी। हिमालयके एक गांवमें एक छोटे जलप्रवाहको सरसुती कहा जाता था। इस पर उत्सुक होकर कनिंगहॅमने काफी अध्ययनके बाद एक विस्तृत लेख तैयार किया। उसमें महमूद गझनीके आक्रमणकालमें उसके साथ आये इतिहासकार अल बेरुनीके संदर्भका उल्लेख है कि गझनीके समय सरस्वती बडे बडे गोल पत्थरोंसे पटी हुई और टूटे किनारोंवाली नदी थी। इसी प्रकार आर्थर मेकडोनल नामक अधिकारीने १८८७ में लिखी अपनी पुस्तक A history of Sanskrit Literature में भी सरस्वतीका उल्लेख किया है। अनन्तर १९४२ में ऑरियल स्टाईनने भी सरस्वतीके प्राचीनकालके अनुमानित रास्तेका एक सर्वेक्षण किया है। फिर मॅकडोनलके सहकारी कीथने भी ऋग्वेदके दसवें मण्डलकी ऋचा " इमम् मे गंगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि " का उल्लेख करते हुए संभावना जताई कि यह प्राचीन सरस्वती ही थानेश्‍वरके पश्‍चिमसे बहती हुई अपनेसे पश्‍चिमकी अन्य धारा घग्घरसे मिलती है और आगे सिरसातक पहुँचकर मरुभूमिमें लुप्त हो जाती है।

इन अध्ययनोंका महत्व इस कारणसे बढ जाता है कि आर्य-आक्रमण सिद्धान्तके अनुसार सरस्वती एक कपोल-कल्पित नदी थी जबकि भारतमें नियुक्त हुए कुछ खोजी अंगरेज अधिकारी उसके होनेेकी संभावना बता रहे थे।

स्वतंत्रता प्राप्तितक आर्य आक्रमणका सिद्धान्त चरम पर था। कई भारतीय इसके समर्थक थे। ऐसेमें काशी विश्‍वविद्यालयसे पद्मभूषण डॉ. गोडबोलेने १९६३ में सरस्वतीके शुष्क मार्गका और ऋग्वेदमें वर्णित सरस्वतीके स्थलोंका भूगर्भीय (geological) अध्ययन किया और उसके होनेकी सुदृढ संभावना बताई। उनकी पुस्तक ऋग्वेदमें सरस्वतीको राजस्थान सरकारने प्रकाशित किया। लगभग बीस वर्ष बाद अमेरीकी उपग्रह लॅण्डसॅटके दिखाये गये चित्रोंसे उनके अध्ययनकी पुष्टी होती है।

सरस्वतीकी खोजमें ग्रंथसाहित्यके साथ भू-सर्वेक्षणोंका भी सहारा लिया गया। सर्वे ऑफ इंडियाने कई भूसर्वेक्षण किये। इसके अलावा ओल्डहॅम (१८९३), वाडिया (१९३८) अमलघोष (१९६०) हेगडे (१९७८) का काम भी उल्लेखनीय है। इसे आगे बढाते हुए भारतीय इतिहास संकलन योजना तथा बाबासाहेब आपटे स्मारक समिति, बंगळुरुने वर्ष सन् १९७३ मेंं सामूहिक स्तरपर सरस्वती शोधकी मुहिम चलाई ताकि पता चल सके कि सरस्वती निश्‍चित तौर पर कहाँ बहती थी, कैसे लुप्त हुई और क्यो लुप्त हुई। समितीके अध्यक्ष श्री मोरोपंत पिंगळेके नेतृत्वमें कुरुक्षेत्रके कृष्णधाममें सरस्वती नदीका विषय लेकर चर्चासत्र हुआ जिसके फलस्वरूप कुरुक्षेत्रमें वैदिक सरस्वती नदी शोध केंद्रकी स्थापना हुई। लुप्त सरस्वतीकी शोधके लिये नदी चिह्नोंका पुनः सर्वेक्षण आवश्यक था। १९८३ में कुरुक्षेत्रमें आयोजित इतिहास दिवस समारोहके राज्यव्यापी चर्चासत्रमें यह सूचना रखी गई और प्रत्यक्षत: ऐसा एक महीनेका सर्वेक्षण २० दिसंबर १९८५ को संपन्न हुआ। श्री वाकणकरके नेतृत्वमें वैदिक सरस्वती नदी शोध अभियानकी स्थापना हुई। अभियानके ११ सदस्य १९ नवम्बर १९८५ को एक महीनेकी यात्रापर निकले । हिमाचल प्रदेशसे आरंभ कर काटघर, आदिबद्री, यमुनानगर, कुरुक्षेत्र, नरकातारी, ज्योतिसर, मार्कण्डेय आश्रम, भद्रकाली, थानेश्‍वर, विश्‍वामित्रटीला, वसिष्ठाश्रम, पृथूदक (पिहोवा), कैथल, कपिलायतन, सजूमा, सूर्यवन, लोध्रा, जिंद, राखीगढी, हिसार, अग्रोहा, फतेहाबाद, बनावली, सिरसा, ओढू, नौहर, करोली, रावतसर, हनुमानगढ, कालीबंग, सुरतगढ, छतरगढ, लूणकरणसर, बिकानेर, नालगजमेज, रामदेवरा, पोखरण, जैसलमेर, रामकुंड, आकल, देवीकोट, बाडमेर, जूनाखेड, नाकोडा, जालोर, सिरोही, आबू, नाजूकच्छ, अंबाजी, सिद्धपूर, पाटण, लोथल, नलसरोवर, सिहोर, प्राचीतीर्थ और सोमनाथ तककी यात्रा १८ दिसंबरको पूर्ण की। इसकी प्रस्तुति २० दिसंबरको करणावतीमें (अहमदाबाद) दी गई।

ये भूसर्वेक्षण बताते हैं कि इपू २००० से पहले एक विशाल पात्रवाली नदी अपने मार्गोंको बदलते हुए राजस्थान, बहावलपुर, सिंध, और कच्छतक पहुँचती थी। शतुद्रुकी कथा आती है कि कैसे वसिष्ठको आत्मघातसे बचाने हेतु वह सौ धाराओंमें बँटकर समुद्रमें कूद गई थी । दूसरी संभावना है कि सरस्वती हिसारके पूर्वमें बहती थी जहाँ अब चौटांगका पात्र है। आगे वहाँ जाती थी जो अब लूणा नदीका पात्र है। लेकिन फिर उसने मार्ग बदला और जाखलसे ही पश्चिमको मुड गई।

लॅण्डसॅट द्वारा प्राप्त जानकारीका विश्‍लेषण बताता है कि सरस्वतीके मार्गोंमे कहाँ कहाँ भूपृष्ठकी हलचलके कारण नदियोंका मार्ग बदला। पूर्वकालमें शुतुद्रि (बादमें शतुद्रु या सतलुज) दक्षिणपूर्व बहती हुई आजकी घग्घरसे मिल जाती थी। परन्तु भूपृष्ठकी हलचलके कारण उसका मार्ग बदल गया और वह पश्‍चिमकी ओर मुडकर अंतत: सिंधु नदीमें समाने लगी। सतलुजके भूपृष्ठके तत्काल नीचे दिखनेवाले तथा उससे अनुमानित प्राचीन मार्गपर भूपृष्ठके नीचे मिलनेवाले मिट्टी, कंकर आदिके आधारपर पता चलता है कि रास्ता बदलनेसे पहले वह कहाँ कहाँसे बहती थी। उपग्रह छायाचित्रोंसे अति गहराईतककी मिट्टी-कंकरोंके भी चित्र मिलते हैं जो अधिक ठोस प्रमाण देते हैं।
फिर प्रश्न आता है कि नदियोंने मार्ग क्यों बदला। भूपृष्ठीय हलचलोंके अध्ययनने बताया कि अरावली पर्वतमाला पूर्वकी ओर सरककर हिमालयको उँचा उठा रही है जिस कारण नदियोंने मार्ग बदले। पुरातन मार्ग और उनके बदलावके कारणोंकी जानकारीका महत्व यह है कि यदि नदीका पुनर्भरण करना हो तो सबसे सुयोग्य मार्गकी पहचानमें यह सहायक है।

इसी प्रकार उपग्रहसे यमुनाके प्राचीन मार्गके मानचित्र भी मिले जो बताते हैं कि पहले यमुना नदी दक्षिण-पश्‍चिम बहती हुई सरस्वतीसे मिलती थी परन्तु अब यह मार्ग बदलकर उत्तरपूर्व दिशा लेकर प्रयागमें गंगासे मिल जाती है। कदाचित इसीलिये माना जाता है कि वह सरस्वतीको छिपाकर अपने साथ प्रयाग ले आती है।

अब धीरे धीरे देशी पश्‍चिमी विद्वानों मानने लगे कि सरस्वती कल्पित नही है बल्कि जैसा ऋग्वेदमें वर्णन है - पर्वतसे समुद्र तक - वैसी ही सरस्वती विशाल जलको बहाकर समुद्रतक ले आती थी। यह बात उपग्रह चित्रमें स्पष्ट दिखती है ! अब तो जो और भी अधिक शक्तिवाले उपग्रह आये, उन्होंने पाया कि भूपृष्ठके नीचेवाली सरस्वतीमें आज भी केवल मिट्टी नहीं बल्कि कहीं कहीं तो पानीकी धारा भी प्रवाहित हो रही है।

पहले जब तक केवल मोहेन-जो-दारो और हरप्पा तक ही पुरातत्वके उत्खनन सीमि रहे तब वहाँ पाई गई सभ्यताको सिंधु सभ्यता नाम दिया गया। लेकिन फिर लोथल कालीबंग, राखीगढीके उत्खननके बाद लगने लगा कि इस सभ्यताका विस्तार काफी अधिक है। उसके बाद हरियाणाके कई स्थानोंपर जो अवशेष मिले उनसे पाया गया कि यह सारी एकही विस्तृत क्षेत्रकी सभ्यता थी। उत्खननोंमें सबसे बडा क्षेत्र राखीगढीमें मिलता है। कुल मिलाकर इसे सिंधु सभ्यता नही वरन् सरस्वती सभ्यता कहना विश्वभरमें स्वीकृत हो गया।

एक जमानेमें सिंध, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा आदि अति समृद्ध क्षेत्र थे और सरस्वतीके कारण थे। कोई आश्चर्य नही कि आज हरियाणा, राजस्थान या गुजरात राज्योंमें स्थापित सरस्वती विकास बोर्डोंके प्रयासोंपर पूरे भारतकी दृष्टि टिकी हो।



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