सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

भास्वती सरस्वती प्रकरण – ५ सरस्वती सभ्यताकी मुद्राएँ

प्रकरणठीकठाक किया ०९--२०१८

सरस्वती सभ्यताकी मुद्राएँ

मोहेन-जो-दारो, हरप्पा, लोथाल, कालीबंगा राखीगढीमें चार हजारसे भी अधिक मिट्टीके उत्कीर्ण अर्थात् मुद्राएँ पाई गईं। यह प्राय: चौकोर खपरैल होते हैं जिनपर कुछ आकृतियाँ हैं और कुछ लिखावटें। आकृतियोंमें अधिकतर गाय, बैल, मनुष्य आदि उकेरें गये हैं। उनके साथ साथ ही कुछ लिखावटें भी पाई गईं जिनसे पता चलता है कि इस सभ्यतामें अक्षरलेखनका ज्ञान था। किन्तु यह लिपि कई दशकों तक रहस्य बनी रही।

१९२० से लेकर कई दशकोंतक पहली मान्यता यही रही कि चूँकि आक्रमणकारी आर्योंने हरप्पन सभ्यताको नष्ट किया इसलिये हरप्पन लिखावटकी भाषा लिपी उसी पुरातन, शायद द्रविड सभ्यताकी थी। इस प्रकार मुद्राओंकी लिखावटको कई प्रकारसे द्रविड शब्दोंके साथ बैठाकर देखनेके प्रयास हुए लेकिन वे विफल रहे। फिर १९९५ में एक वैदिक पण्डित श्री नटवर झाने इसे वैदिक ऋचाओं तथा वैदिक संस्कृतसे मिलाकर देखनेकी सोची। पहला प्रयास विफल रहा क्योंकि संस्कृत सहित सभी भारतीय भाषाओंमें व्यंजनके साथ स्वर, अर्थात् आकार, इकार, उकार इत्यादि जुडे रहते हैं। उत्कीर्णोंमें इनकी पहचान नही हो पा रही थी। साथ ही कई संस्कृत शब्द स्वरोंसे आरंभ होते हैं, जैसे अग्नि, ईश्‍वर, ऊर्जा, इत्यादि । इन सभी स्वर-उच्चारोंके लिपि-अक्षरके आकार भी अलग होते हैं। इनका कोई अस्तित्व उन मुद्राओेंंपर नही दिख रहा था।

फिर झाने एक प्रयोग करके देखा। मान लो संस्कृत शब्द लिखते समय केवल व्यंजन लिखे जायें तो क्या हो? फिर पशुपतिको --- लिखा जायगा, विष्णुको -- और ब्रह्माको ---म। साथ ही यह किया जाय कि स्वराद्य शब्दका पहला अक्षर चाहे किसी भी स्वरसे बनता हो, उन सभी आद्याक्षर स्वरोंके हेतु एकही अक्षर चिह्नका उपयोग करके देखा जाय।

इस प्रयोगको करके देखनेपर झा कई मुद्राओंकी लिखावटको पढनेमें सफल हुए, और यह भी स्पष्ट हुआ कि वे लिखावटें वेदोंकी ऋचाओं तथा संस्कृत शब्दोंको सूचित करती थीं।

अब एक एक कर सभी मुद्राओंपर लिखी शब्दावलीको पढकर, उनकी सूचि बनाकर उससे अपने प्राचीन इतिहासको अधिक अच्छी तरह समझनेके प्रयास हो रहे हैं।

हालाँकि अब भी कुछ इतिहासकार उन्नीसवीं सदीके सिद्धान्तको प्रमाण मानते हुए, झाकी विधी या निष्कर्षोंका विरोध करते हैं, लेकिन जब तक वे किसी अन्य भाषाके या लिपिके अस्तित्वको पहचान कर सामने नही लाते तब तक उनके पास कोई दूसरी व्याख्या नही है। इस प्रकार झा और उनके कामको आगे ले जानेवाले राजारामके अध्ययनने इस लिखावटके रहस्यको उद्घाटित कर दिया। फिर भी अभी हजारों मुद्राएँ अध्ययन हेतु उपलब्ध हैं जो कुछ नई नई बातें उद्घोषित करती रहेंगी।
इन मुद्राओंमें दो हजारके आसपास ऐसी मुद्राएँ हैं जो अलग अलग राजाओं द्वारा अश्वमेध यज्ञका किया जाना सूचित करती हैं। इस विषयमें श्री मृगेंद्र विनोदका चल रहा शोध महत्वपूर्ण है। मुद्राओंपर उकेरे गये पशु भी अपनी अलग कहानी कहते हैं। कई मुद्राओंपर एकही प्रकारके पशुचिह्न मिलते हैं जो दर्शाते हैं कि वे किसी एक घटनाके प्रतीक हैं। कई मुद्राओंके पशुचिह्नोंसे प्रतीत होता है कि वे विभिन्न राजाओंद्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञमें बनवाई गई मुद्राएँ हैं। अर्थात् राजा व उनके कालखण्ड भले ही अलग रहे हों, परन्तु अश्वमेध यज्ञकी एक अपनी पहचान – एक खास मुद्रा थी। इस दिशामें भी अभी अधिक अध्ययनकी आवश्यकता है।

सबसे नये उत्खननोंमें प्राचीन ५००० वर्ष पुराने हथियार, तलवार, बाण, टूटे रथ, और एक बृहताकार नरकंकाल भी मिले हैं इनकी सटीक व्याख्या करनेमें अब कई पण्डित जुड गये हैं। 



कोई टिप्पणी नहीं: