प्रकरण ८
सनातन
सरस्वती-
रवीन्द्र
नाथ
पराशर ठीकठाक
किया ०९-०८-२०१८
अम्बितमे
नदीतमे
देवितमे
सरस्वति
- ऋग्वेद
2:41:16
सर्वोत्तम
नदी,
सर्वोतम
मातृ
एवं
सर्वोत्तम
देवी
जैसे
अलंकारोंसे
सुसज्जित
सरस्वतीको
मात्र
नदी
मानकर
उसका
पथ
ढूंढना
एक
बौद्धिक
प्रयास
माना
जा
सकता
है
किन्तु
यन्मनसा
न
मनुते
येनाहुर्मनो
मतम्
"वह
जिसे
मनसे
नहीं
विचार
सकते
अपितु
जिससे
मन
विचार-समर्थ
है"
- केनोपनिषद्
5
के
दृष्टान्तसे
ईश्वरसे
भी
कहीं
अधिक
वह
सरस्वती
तर्क-वितर्कसे
कुछ
परे
ही
है।
जिसे
महाभारतमें
वेदानाम्
मातरम्,
वेदोंकी
जननी
संज्ञा
दी
गई,
जिसकी
चार
भुजाएं
मन,
बुद्धि,
चित्त
और
अहंकार
हैं,
जो
ब्रह्मा,
विष्णु
और
महेशको
समर्थ
बनानेवाली
कहलाई
है
---
ब्रह्मा
जगत
सृजति
पालयतीन्दिरेश:
।
शम्भुर्विनाशयति
देवि
तव
प्रभावै:
।।
(सरस्वती
स्तोत्र)
ऐसी
सरस्वतीके
मार्गकी
चर्चा
किन
शब्दोंमें
करें,
जब
उस
वाग्देवीका
शब्दोंपर
एकाधिपत्य
है।
किन्तु
यह
भी
सत्य
है
कि
बुद्धसे
पूर्व
भारतका
इतिहास
सरस्वतीसे
जुड़ा
है।
जो
सरस्वतीको
जाने
वह
ही
इस
इतिहासको
जाने।
अन्यथा
सिन्धु
सभ्यता
रह
जाएगी
एक
अपरिचित,
वहीं
समाप्त
अध्याय
और
बुद्धसे
कुछ
ही
पहले
उत्तर-पश्चिमसे
उतरे
असभ्य
कबीले
ही
वैदिक
सभ्यताके
जनक।
मानो
इस
क्षेत्रमें
प्रवेश
करते
ही
उन्हें
वह
दार्शनिक
ज्ञान
प्राप्त
हो
गया
जिससे
उनके
पूर्व-निवास
क्षेत्रमें
रहे
बन्धु-बान्धव
अभी
तक
वंचित
हैं।
जर्मन
इतिहासकारों
द्वारा
रचित
इस
रोचक
कहानीके
अनुसार
इन
कबीलोंका
ज्ञान
शीघ्र
ही
उस
शिखर
पर
जा
पहुंचा
जहाँसे
उन्होंने
ब्रह्माण्ड-रचयिताको
ललकार
कर
व्यंग्य
कसा
----
इयं
विसृष्टिर्यत
आबभूव
यदि
वा
दधे
यदि
वा
न
|
यो
अस्याध्यक्षः
परमे
व्योमन्
त्सो
अङ्ग
वेद
यदि
वा
नवेद
|| (ऋग्वेद
10:129:7)
"वह,
जो
सर्वप्रथम
था
जिसके
नेत्र
इसे
नियमित
करें
उसने
यह
सब
बनाया
या
उसने
नहीं
बनाया
वह
जानता
है
या
वह
भी
नहीं
जानता"
इससे
प्रतीत
होता
है
कि
या
तो
यह
मात्र
कहानी
है
या
सरस्वतीकी
महिमाका
प्रमाण!
सरस्वतीके
अनेकों
पर्याय
हैं,
भारती,
सतरूपा,
वेदमाता,
शारदा,
ब्राह्मी,
वागेश्वरी
इत्यादि।
किन्तु
जिसने
हमें
शब्द
उच्चारणके
लिए
वाणी
दी,
वह
शब्दोंमें
सिमट
कर
कैसे
रह
जाए।
इळा,
सरस्वती
और
मही
या
भारतीको
क्रमशः
वेद,
आरण्यक,
और
उपनिषदसे
या
तीन
लोक
भूलोक,
भुवर्लोक
व
स्वर्लोकसे
संबंधित
दर्शाया
गया।
यज्ञमें
इन
तीनोंका
पृथक्
आह्वान
किया
गया
--
इळा
सरस्वती
मही
तिस्रो
देवीर्मयोभुवः
|
बर्हिः
सीदन्त्वस्रिधः
|| ऋग्वेद
1:13:9 ||
और
इळाका
भूलोक
अनुसार
मनुष्यरूपमें
आह्वान
किया
गया
--
आ
नो
यज्ञं
भारती
तूयमेत्विळा
मनुष्वदिहचेतयन्ती
|
तिस्रो
देवीर्बर्हिरेदं
सयोनं
सरस्वतीस्वपसः
सदन्तु
|| ऋग्वेद
10:110:8 ||
अल
बरुनी
बुतशिकन
महमूद
ग़ज़नीके
साथ
भारत
आया।
उसने
देखा
कि
कोई
सरस्वती
नामकी
नदी
सोमनाथके
समीप
सागरमें
विलय
होती
है।
पर
सरस्वती
तो
वडवानलको
सागर
पहुंचाती
विलुप्त
हो
गई
थी।
हरियाणाके
पृथुदकमें
(पिहोवा)
स्थित
सरस्वती
तीर्थका
उल्लेख
महाभारत,
वामनपुराण,
स्कंदपुराण
आदिमें
उपलब्ध
है
।
कुरुक्षेत्रकी
४८
कोसकी परिक्रमाके
पुराणोंमें
वर्णित
सैंकड़ो
तीर्थ,
जिनमेसे
१३४
की पहचान
कुरुक्षेत्र
विकास
मण्डल
कर
चुका
है,
सरस्वती
और
इसकी
सहायक
नदियों
से
जुड़े
हैं।
वामनपुराणके
अनुसार
मार्कण्डेय
ऋषिकी
याचना
पर
सरस्वतीने
इस
क्षेत्रको
अनुगृहित
किया
--
तस्मिन्
प्लक्षे
स्थितां
दृष्ट्वा
मार्कण्डेयो
महामुनिः।
प्रणिपत्य
तदा
मूर्ध्ना
तुष्टावाथ
सरस्वतीम्।।
त्वं
देवी
सर्वलोकानां
माता
देवारणिः
शुभा।
सदसद्
देवी
यत्किंचिन्मोक्षदाय्यर्थवत्
पदम्।।
(वामनपुराण,
11:5,6)
तो
एक
ओर
वैदिक
सरस्वती,
विशाल
और
सर्वोत्तम
नदी,
जिसका
उद्गम
हिमालयसे,
कदाचित्
तिब्बतमें
मानसरोवरसे,
और
दूसरी
ओर
हज़ारों
वर्ष
बाद
एक
पौराणिक
सरस्वती,
जो
निकलती
है
शिवालिककी
मिट्टीकी
पहाड़ियोंसे।
मैंने
पंचकूलाके
समीप
गहरे
नलकूपोंकी
खुदाईमें
निकले
मिट्टी,
रेत
और
पत्थरोंका
अध्ययन
कर
एक
शोध-लेख
लिखा
जिसका
निष्कर्ष
था
कि
300 फ़ीट
नीचे
एक
नदी
दबी
है
जिसमें
प्रचुर
मात्रामें
निर्मल
जल
अभी
भी
प्रवाहित
है।
ऐसा
ही
निष्कर्ष
जोधपुरके
ऐरिड
ज़ोन
रिसर्च
इंस्टीट्यूटने
उस
क्षेत्रके
नलकूपोंके
अध्ययनसे
निकाला
और
वहाँ
दबी
हुई
नदीकी
गहराई
2000 फ़ीटसे
अधिक
पाई
गई
।
ऐसा
माना
गया
कि
सरस्वती,
जो
पौराणिक
कथाओंके
अनुसार
वडवानल
ले
जाती
पातालमें
चली
गई
थी,
उसका
मार्ग
भारी
भूकंप,
ज्वालामुखी
गतिविधि
और
उसके
बाद
वर्षोंतक
जलमग्न
रहनेके
कारण
((जिसे
प्रलयकी
संज्ञा
दी
गई)
विलुप्त
हो
गया
।
शिवालिक
पहाड़ियोंकी
उत्पत्ति
हुई
और
वैदिक
सरस्वती
भूमिगत
हो
गई,
जैसा
स्कंदपुराण
में
वर्णित
है
--
भूमिं
विदार्य
तस्याधः
प्रविष्टा
गजगामिनी।
तदन्तर्धानमार्गेण
प्रवृत्ता
पश्चिमामुखी
|| स्कंदपुराण,
1:35:26 ||
हिमालयसे
आता
निर्मल
जल
कुछ
पश्चिमकी
ओर
सतलुजमें
मिल
गया
तो
कुछ
पूर्वकी
ओर
टौंस
नदीके
माध्यमसे
छोटीसी
यमुनाको
महिमावती
बना
गया।
शिवालिककी
पहाड़ियां
अनेकों
बरसाती
नदियोंका
उद्गम
बनी।
प्रशंसक
पुराण-रचयिता
अम्बितमे,
नदीतमे,
देवितमे,
सरस्वतीको
भुला
न
पाए
और
जो
नदी
लगभग
उसी
मार्ग
पर
चल
निकली
थी
उन्होंने
उसे
ही
सरस्वतीकी
संज्ञा
दे
दी।
पुराण
विशुद्ध
इतिहास
नहीं
हैं।
तथ्य,
धार्मिक
श्रद्धा
और
लेखककी
कल्पनाके
समावेशसे
बनी
इन
वृहद्
रचनाओंसे
निकाले
तथ्योंका
व्यक्तिगत
मतसे
परे
होना
कठिन
है।
जहां
मत
है
वहां
मतभेद
होना
स्वाभाविक
है
।
पौराणिक
सरस्वतीका
मार्ग
एक
मत
है
और
मतभेदसे
घिरा
है।
सौ
वर्षसे
अधिक
समयसे
यूरोप
(जैसे
सी.
एफ़.ओल्डहैम,
1893) और
भारतके
विद्वान्
इसे
वर्त्तमान
घग्गर
नदीका
मार्ग
मानते
रहे।
अब
कुछ
इसे
दृशद्वतिका
मार्ग
मानते
हैं।
मन,
बुद्धि,
चित्त
और
अहंकार
जिसकी
भुजाएं
है,
विद्वान
उसके
वशमें
रहते
हुए
उसे
ढूंढनेकी
क्रीड़ामें
रत
अपना
मत
प्रकट
करते
रहेंगे।
किन्तु
श्रद्धा
तो
तर्करहित
विश्वास
पर
आधारित
है।
सरस्वती
लुप्त
हो
गई
तो
श्रद्धालुको
थोड़ा
पूर्वमें
जाकर
गंगा
मिल
गई
और
उसकी
श्रद्धासे
सरस्वती
भी
प्रयागमें
त्रिवेणी
संगम
पर
प्रगट
हो
गई।
अब
तर्कमें
लिप्त
विद्वान्
भले
ही
कहें
कि
हरियाणाकी
सरस्वती
प्रयाग
कैसे
पहुंची
परन्तु
वैदिक
सरस्वतीका
पावन
जल
टौंसके
माध्यमसे
यमुनाके
साथ
प्रयाग
तो
पहुंच
ही
रहा
है।
एक
अन्य
त्रिवेणी-संगम
सोमनाथके
समीप
प्रभास
पाटनमें
है
जहां
हिरण्या
और
कपिला
अदृश्य
सरस्वतीसे
मिलती
हैं।
कहानी
है
कि
सोम
(चन्द्रमा)
अपनी
कान्ति
खो
बैठा
तो
सरस्वतीमें
स्नानसे
उसकी
कान्ति
लौट
आई
और
वहाँ
सोमनाथका
मंदिर
बना ।
अल
बरुनी
और
एरिड
ज़ोन
रिसर्च
इंस्टीट्यूट
ठीक
ही
कहते
प्रतीत
होते
हैं।
महान
विचारक
श्री
अरविंदने
कहा
है
कि
तर्क
सत्यका
सबसे
बड़ा
शत्रु
है
।
ज्ञान
और
तर्कके
साथ
शुद्ध
बुद्धि
और
विवेक
चाहिए
।
सरस्वतीका
वाहन,
श्वेत
हंस,
उस
शुद्धता
और
विवेकका
प्रतीक
है
जिसमे
दृष्टांत-रूपमें
दूध
और
पानीको
अलग
करनेकी
क्षमता
है।
अब
पूर्वी
भारतके
निवासी,
विशेष
रूपसे
बंगाल
और
ओडिशाके,
जिन्हें
गर्व
है
कि
वे
सरस्वतीके
विशेष
कृपापात्र
हैं,
भला
कैसे
स्वीकार
करते
कि
देवी
सरस्वती
उनके
क्षेत्रमें
आई
ही
नहीं।
1902 में
प्रकाशित
"हुगली
ज़िलेका
संक्षिप्त
इतिहास"
शीर्षक
पुस्तकमें
लै.
कर्नल
डी.
जी.
क्राॅफ़र्ड
लिखते
हैं
कि
प्रोगेतिहासिक
कालमें
सरस्वती
उड़ीसा
और
बंगाल
राज्योंके
बीच
सीमा
थी।
वर्तमान
कालमें
भी
वह
एक
छोटी,
सरस्वती
नामक
नदीका
उल्लेख
करते
हैं
।
ठीक
ही
ऋग्वेदमें
सरस्वतीको
आपप्रुषी
(सर्वव्यापी)
संज्ञा
दी
है
--
आपप्रुषी
पार्थिवान्युरु
रजो
अन्तरिक्षम्
|
सरस्वती
निदस्पातु
|| ऋग्वेद
6:61:11||
पौराणिक
सरस्वतीके
संबंधमें
जो
भी
मतभेद
हों,
वैदिक
सरस्वती
यह
तो
इंगित
करती
है
कि
वेदोंका
उद्गम
भारतकी
भूमि
पर
ही
हुआ
और
वेद
किन्हीं
विदेशी
कबीलोंकी
देन
नहीं
हैं।
वैदिक
सरस्वती
और
इसलिए
वैदिक
काल
प्रलयसे
पूर्व
होनेके
स्पष्ट
संकेत
होनेके
दृष्टिगत
यह
मान
सकते
हैं
कि
वेद
हमारी
सबसे
प्राचीन
धरोहर
हैं।
भारतमें
5000 वर्षसे
भी
अधिक
पुरानी
जिस
सभ्यताके
व्यापक
अवशेष
उत्खननमें
मिल
रहे
हैं,
अनुचित
न
होगा
यदि
उसे
सरस्वती
सभ्यताकी
संज्ञा
दी
जाए।
टीप
– सरस्वतीको संबोधित करना हो
तो उसे सरस्वति कहते हैं। इसी
नियमसे कावेरि,
गोदावरि
आदि भी संबोधनरूप हैं।
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