प्रकरण
७
गुणसूत्रानुगत
शोध,
और
सरस्वतीकी
प्राचीनता
ठीकठाक
किया ०९-०८-२०१८
सरस्वतीका
सर्वाधिक
महत्व
इस
कारणसे
है
कि
यह
अति
प्राचीन
नदी
है
जिसने
भारतीय
सभ्यता
व
संस्कृतीको
जन्म
दिया।
इस
बातका
सबसे
अच्छा
प्रमाण
जेनेटिक
रिसर्चसे
प्राप्त
होता
है।
जेनेटिक रिसर्च या गुणसूत्रानुगत
शोधमें
विभिन्न
भौगोलिक
क्षेत्रोंमें
रहनेवाले
लोगोंके
नमूने
लेकर
उनकी
प्राचीनताके
विषयमें तथा
स्थलांतरके विषयमें जानकारी
प्राप्त
होती है।
इन
शोधोंसे
जाना
जा
सकता
है
कि
विभिन्न
जाति-जमातियोंका
स्थलांतरण
कहाँसे
कहाँ,
कब
और
कैसे
हुआ।
इन
शोधोंके लिये
आवश्यक
DNA testing पद्धतिसे
जब
भारतके
विभिन्न
प्रदेशोंकी
लोकसंख्यापर
शोध
हुए
तो
आश्चर्यजनक
निष्कर्ष
सामने
आये।
सर्वप्रमुख
यह
निष्कर्ष
था
कि
भारतके
उत्तर,
दक्षिण,
पूर्व,
पश्चिम,
आदिवासी,
वनवासी,
गरीब,
अमीर,
पिछडी
जातियाँ
व
सवर्ण
लोक,
सभीके
सभी
एक
जैसे
हैं
- इनमेंसे
कोई
भी
एक
दूसरेसे
ऐसी
गुणसूत्रानुगत
भिन्नता
नही
रखता
जिससे
लगे
कि
वे
कहीं
बाहरसे
आये
हैं
या इस
कारणसे आपसमें
भिन्न
हैं।
यह
भी स्पष्ट
हुआ
है
कि
जब
अन्तिम
हिमयुग
ईपू
२००००
वर्षके
आसपास
पिघलना
आरंभ
हुआ,
तब
उसी
दौरान
हिमालयसे
निकलने
वाली
नदियोंने
भारत
भूमिको
सुजलाम्
सुफलाम्
करना
आरंभ
किया।
उन
नदियोंमें
सबसे
अधिक
जलप्रवाह
सरस्वतीका
था ।
इसीके
किनारे
संस्कृति
व
सभ्यताका
विकास
आरंभ
हुआ
जो
दूरदूर
तक
पहुँचा।
अति
प्राचीन
कालमें
सरस्वतीके
आरंभिक
(उत्तरी)
प्रवाहके
आसपास
वसिष्ठ
मुनिने
तथा
पश्चिमी
समुद्रतटीय
प्रांतमें
भृगु
ऋषिने
अपना
अपना
अध्ययन-अध्यापन
आरंभ
किया
जो
उत्तरसे
आरंभ
होकर
सुदूर
अतिपूर्व
तक
और
पश्चिमसे
आरंभ
होकर
दक्षिणमें
कन्याकुमारी
व
श्रीलंकातक
और
सिंधुके
पश्चिमोत्तर
प्रान्तोंमें
भी
फैला।
इसी
अतिप्राचीन
कालमें
ययाति
राजाका
वर्णन
आता
है
जिसके
पांच
पुत्र
थे
- यदु,
तुर्वसु,
अनु,
द्रुह्यु,
और
पुरू।
इनमेंसे
बडे
चारोंको
पिताने
शाप
दिया
था
कि
तुम्हें
कभी
सम्मानित
राज्यपद
नही
मिलेगा,
वरन्
देशान्तर
करना
पडेगा।
कहा
जाता
है
कि
सरस्वतीके
दोआबका
राज्य
तो
पुरुको
मिला,
जिसके
वंशमें
आगे
चलकर
हस्तिनने
हस्तिनापुर
और
कुरुने
कुरुक्षेत्र
बसाया।
उसकी
कई
पीढीयों
बाद
कौरव
और
पाण्डव
हुए
जिनके
बीच
महाभारत
का
युद्ध
हुआ।
इस
युद्धके
पश्चात्
युधिष्ठिरने
छत्तीस
वर्ष
राज्य
किया
और
स्वर्गारोहणके
लिये
निकले।
तबतक
द्वापर एवं कलियुगके संधिकालके
सौ वर्ष पूरे होकर प्रत्यक्ष
कलियुग आया।।
इसीके
बाद
सरस्वती
नदी
भी
क्रमश:
सूखती
गई।
लेकिन
कलियुगके
कई
सौ
वर्ष
पूर्व
ययातिके
कालमें
वापस
चलें
तो
स्वयं
ययातिकी
आयु
एक
हजार
वर्षसे
अधिक
कही
गई
है।
महाभारतकी
एक कथानुसार उसने कई यज्ञ किये
जिनमें सरस्वती नदीके उसके
लिये दूध,
घी
व भोजनका प्रबंध किया ।
उसके
पुत्र
तुर्वसु,
अनु,
और
द्रुह्युके
सिंधुसे
अति
पश्चिम
तथा
अति
उत्तर
जानेके
संदर्भ
मिलते
हैं।
इसलिये
संभवत:
यही
लोग
मध्य
यूरोप
गये
जिस
कारण
उनकी
भाषाएँ
संस्कृतसे
मेल
खाती
हैं।
DNA पद्धतिसे
किये
गये
शोधोंमें
इस
बातकी
पुष्टि
होती
है
कि
भारत
भूमिके
वंश
हजारों
वर्षोंसे
इसी
धरती
पर
रहे,
पले,
बढे
और
बाहर
कहींसे
वे
आये
हों
ये
संभावना
नगण्य
है।
उलटा
यहाँसे
पश्चिममें
इरान,
तुर्कस्तान
व
यूरोपतक,
उत्तरमें
साईबेरिया
व
रूसतक
तथा
पूर्वमें
जपान,
चीनतक
भारतीयोंके
जानेके
प्रमाण
DNA के
आधारसे
मिलते
हैं।
अनुका
राज्य
काश्मीर
और
उत्तरमें
माना
जाता
है।
श्रीकांत
तलगेरीने
सबके
सम्मुख
यह
भी
स्पष्टतासे
रखा
कि
इनमेंसे
किसी
जगह
भारतीयों
द्वारा
आक्रमण
आदिके
चिह्न
नहीं
मिलते।
अर्थात्
वे
अपना
ज्ञान,
व्यापार
व
कौशल्य
लेकर
इधर-उधर
गये
और
उन-उन
समाजोंको
समृद्ध
किया
न
कि
आक्रान्त
या
पराजित। यह
बात हमारे समाजकी वसुधैव
कुटुम्बकम् परम्पराकी परिचायक
है।
एक
अन्य
कथामें
मान्धाताका
उल्लेख
आता
है
जिसने
द्रह्युओंके
साथ
युद्ध
कर
उन्हें
पश्चिमकी
ओर
खदेड
दिया ।
इस
युद्धका
काल
अनुमानत:
ईपू
६०००
वर्ष
कहा
जा
सकता
है।
इसके
कई सौ
वर्षोंके
बाद
वसिष्ठ
गुरुके
यजमान
राजा
सुदास
तथा
विश्वामित्रके
यजमान
राजाओंके
बीच
लम्बा
युद्ध
हुआ
जिसमें
सुदासकी
विजय
हुई।
इसे
दाशराज्ञ
युद्ध
कहा
जाता
है
क्योंकि
दस
बडे
साम्राज्योंने
इसमें
भाग
लिया।
इस
युद्धमें
जो
महान
क्षति
हुई
वह
संभवत:
वैदिक
कालके
ह्रासका
कारण
बनी।
दाशराज्ञ
युद्धका
काल
अनुमानत:
ईपू
४५००
वर्ष
का
है।
इसके
बाद
जो
नया
काल
उदित
हुआ
उसे
सूत्रकाल
कहा
जाता
है
और
संभवत:
वही
त्रेता
युग
है। ये
कथाएँ भारतियोंके अन्यत्र
जानेका कारण बताती हैं जिनकी
पुष्टि गुणसूत्रानुगत शोधोंसे
हो रही है।
रामायणमें
सरस्वतीके
वर्णन अत्यल्प
पाये
जाते
हैं।
कहा
जा
सकता
है
कि
त्रेता
युगमें
भी
सरस्वती
सभ्यता
समृद्ध
थी
-- हालाँकि
गंगाका
महत्व
भी
बढ
रहा
था,
जिस
कारण
अवध,
मिथिला
जैसे
शक्तिशाली
साम्राज्य
बने।
दूसरी
ओर
कुबेरका
साम्राज्य
सुदूर
दक्षिणमें
श्रीलंकामें
स्थापित
हुआ
जो
बादमें
उसके
सौतेले
भाई
रावणने
हथिया
लिया।
रावणकी
आयु
भी
कई
सौ
वर्षोंकी
मानी
जाती
है।
इसकी
तुलनामें महाभारतमें सरस्वतीका
उल्लेख अधिक है। इस
प्रकार
रामायण व
महाभारत कालमें
सरस्वतीका
देदीप्यमान
स्वरूप
व
महत्ता
कम
नही
हुई
थी।
महाभारत
युद्ध
का
समय
इ.पू.
३०००
के
आसपास
था ।
इसी
समय
अल्पतामें
और
बादमें
ईपू
२०००
के
आते
आते
पूरी
तरहसे सरस्वतीकी
धारा
सूखने
लगी।
इससे
सरस्वतीके
इलाके
उजडना
आरंभ
हो
गया।
लोग
स्थलांतर
करने
लगे।
कुछ
लोग
गंगाके
साथ
साथ
चलकर
मगधतक
पहुँचे
और
वहाँ
उनका
विशाल
मगध
साम्राज्य
बना।
यहीं
पर
जैन
व
बौद्ध
तत्वज्ञानका
उदय
हुआ।
मंत्र-तंत्र,
आदि
गूढ
शाखाओंका
भी
उदय
हुआ।
कुछ
लोगोंने
पश्चिम-दक्षिणकी
ओर
स्थलांतर
किया।
उन्होंने
तैत्तिरीय
शाखाको
पुष्ट
किया।
इसी
कारण
तैत्तिरीय
उपनिषद
या
ब्राह्मण
जैसे
ग्रंथोंसे
जुडे
अनेकानेक
ग्रंथ
तथा
हस्तलिपियाँ
दक्षिणमें
पाई
जाती
हैं।
वैदिक
कालके
पश्चात्
सूत्र
कालका
आरंभ
हुआ
जिसमें
शूल्ब
सूत्र,
आश्वलायन
सूत्र
इत्यादि
लिखे
गये।
इनके
लेखक
प्राय:
पश्चिम-दक्षिणकी
ओर
चले
गये
थे।
संस्कृत
ग्रंथोंमें
द्रविड
शब्दकी
व्युत्त्पत्ति
है,
पानीके
अथवा
समुद्रके
समीप
रहनेवाले
लोग।
इस
अर्थमें
पंचद्रविड
अर्थात्
तमिल,
आंध्र,
कन्नड,
महाराष्ट्र
तथा
सौराष्ट्रको
(गुजरात)
मिलाकर
पंचद्रविड
कहा
जाता
है। संभवतः
यही लोग वैदिककालीन समुद्री
व्यापारको संभालते थे।
इस
प्रकार
द्रविड
व
आर्य
दो
नहीं
वरन्
एकही
सभ्यता
है
और
प्राय:
अनादिकालसे
ये
सभी
भारतभूमिकी
संतति
हैं।
हर
कलशपूजन
पर
गाया
जानेवाला
मंत्र
है
--
गंगेच
यमुने
चैव
गोदावरि
सरस्वति
।
नर्मदा
सिंधु
कावेरि
जलेस्मिन्
सन्निधिं
कुरु
।।
यह
श्लोक
हमारे
मानसमें
सरस्वतीका
स्थान
अक्षुण्ण
रखता
है।
यही
हमें
आशान्वित
रखता
है
कि
भास्वती
सरस्वतीको
पुनः
प्रवाहित
देख
सकेंगे।
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