प्रकरण-२
तीन
सदियों
की
मानसिकता -ठीकठाक
किया ०७-०८-१८
हमने
देखा
कि
अठारहवीं,
उन्नीसवीं
और
बीसवीं
सदीके
पश्चिमी
विद्वान्
भारत
नामक
रहस्यको
सुलझानेमें
जुट
गये।
सरस्वतीसे
संबंधित
दूसरे
कालखण्ड
१७८०
से
१९२०
तकके
सिद्धांतोंमें
हम
उनके
मतको,
उनके
तर्कोंको
तथा
उनकी
मानसिकताको
सारांशरूपसे
समझते
हैं।
इन
विद्वानोंमें
तीन
नाम
प्रमुख
हैं
- विलियम
जोन्स
(१७६०)
जो
कोलकातामें
जज
था,
मेकॉले
(१८३०-७०)
जो
लगभग
३०
वर्षोतक भारतमें
अंगरेजी
शिक्षा
लानेहेतु
निर्मित
कमिशनका
चेअरमन
बना
रहा
और
तीसरा
मॅक्समुलर
जो
जर्मन
था
परन्तु
उसने
संस्कृतका
अध्ययन
किया
था
और
अपने
युवाकालमें
आर्यन
रेसका
बडप्पन
तथा
आर्योंद्वारा
भारतपर
आक्रमणका
सिद्धान्त
जोरशोरसे
उठा
चुका
था।
मेकॉलेने
उसपर
अपना
वरदहस्त
रखा,
उसे
ईस्ट
इंडिया
कंपनीकी
नोकरी
दिलवाई
और
वेदोंका
अंगरेजी
अनुवाद
करनेकी
परियोजना
पर
उसे
भारी
ग्रॅण्ट
भी
दिलवाई।
आर्य
आक्रमणका
सिद्धान्त
था
कि
--
-
भारतकी आर्य जमात यूरेशिया व मध्य एशियासे आई हुई आक्रमणकारी कबाइलियोंकी जमात थी जिसने यहाँके मूल अप्रगत निवासियोंको विनष्ट कर भारत पर कब्जा जमाया। फिर भारतमें आर्य सभ्यताका दौर शुरु हुआ। इसका प्रमाण है कि संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओंमें कई समानताएँ हैं जिससे जान पडता है कि दोनोंका मूल एक ही है। यही आर्य यूरोपमें भी हैं और इसका प्रमाण है यूरोपियोंका गोरा रंग।
-
भारत-आक्रमणकी प्रक्रियामें आर्योंने यहाँके मूलनिवासी द्रविडियन वंशको खदेड दिया। आर्योंके पास घोडे थे और शायद उनके शस्त्र भी अधिक प्रगत थे।
-
चूँकि बायबलके अनुसार सृष्टिकी उत्पत्ति ईपू ४००० के आसपास हुई और विश्वकी सर्वप्रथम सुमेरियन सभ्यता ईपू २५०० के आसपास पनपी और क्योंकि आर्योंका अस्तित्व बाइबल वर्णित सुमेरियन सभ्यतासे पहलेका नही हो सकता इसलिये माना जा सकता है कि आर्य आक्रमणकारी भारतमें ईपू १५०० के आसपास आये। ईपू १२०० के आते आते उन्होंने हरप्पन सभ्यताको नष्ट कर दिया।
-
हरप्पन सभ्यताको सिंधु घाटी सभ्यता कहा जा सकता है, और वह प्रायः सिंधु नदीके किनारे थी।
-
आर्योंने भारतमें आकर वेदोंकी रचना की। लेकिन उनमें जिस सरस्वतीका उल्लेख है, वह काल्पनिक नदी है।
-
जिस प्रकार मध्यपूर्वी यूरोपसे आये उन आक्रमणकारियोंने यहाँ आकर नई सभ्यता फैलाई उसी प्रकार अब अंगरेजोंको भी भगवानने यहाँ नई सभ्यता फैलानेका जिम्मा दिया है।
-
अत: “White man’s burden” को निभाते हुए अंगरेजोंको यहाँकी संस्कृती नष्ट कर यहाँ नई अंगरेजी सभ्यता बसानेका पूरा प्रयास करना चाहिये। मॅक्समुलरद्वारा वेदोंका अनुवाद भी उसी प्रयासका आरंभ है जिसके बाद वेदोंपरसे भारतियोंका विश्वास उठ जायेगा।
-
सरस्वती नदी या राम या कृष्ण या महाभारतमें वर्णित कथाएँ केवल काल्पनिक है और वे कोई इतिहास नहीं बताती हैं।
-
वेदोंके मॅक्समुलरकृत अनुवादसे यह स्पष्ट है कि इसमें अंधश्रद्धा आदि हैं। अतः भारतके उच्च वर्गके लोगोंको वेद-अध्ययन छोडकर ख्रिश्चियानिटी अपनानी चाहिये।
जब
इस
प्रकार
इण्डोलॉजीके
सिद्धान्त
बन
रहे
थे,
उसी
कालमें
यूरोपमें
और
विशेषकर
जर्मनीमें
यह
वंश
सिद्धान्त
खूब
प्रचारित
हुआ
कि
जर्मनही
सही
आर्य
थे।
आगे
चलकर
हिटलरके
दुष्कृत्योंके
कारण
आर्य
शब्द
विश्वभरमें
बदनाम
हुआ
- वह
एक
अलग
कहानी
है।
इन
सारे
सिद्धान्तोंके
समर्थन
और
अधिकाधिक
शोध
निबंधोंके
लिये
भारतमें,
यूरोपमें
(और
आगे
चलकर
अमरीकामें)
संस्कृत
तथा
इण्डोलॉजीकी
पढाई
तेजीसे
होने
लगी।
इंडोलॉजी
पढनेवालोंने
मोहेन-जो-दारो
तथा
हरप्पाकी
पुरातत्व-खोजके
बाद
भी
आर्य-आक्रमणके
सिद्धान्तको
नही
छोडा,
उलटा
हरप्पा
सभ्यताके
नष्ट
होनेको
ही
पुरातन
द्रविडी
सभ्यताके
अस्तित्वका
व
आर्य
आक्रमणका
प्रमाण
बताया।
भारतमें
पारम्परिक
संंस्कृत
पढनेवालोंकी
अपेक्षा
अंगरेजी
अध्यापकों
द्वारा
अंगरेजीमें
पढाई
गई
संस्कृतको
अधिक
प्रोत्साहन
मिलने
लगा ।
इस
नई
शिक्षामें
नित्यपाठ
जैसी
परम्पराएँ
मजाक
व
अंधश्रद्धा
बन
कर
रह
गईं
और
उनके
आन्तरिक
सामर्थ्यका
लोप
होने
लगा।
भारतीय
पंचांग-पद्धतीको
पूरी
तरहसे
अंधश्रद्धात्मक
बताते
हुए
अंगरेजी
पद्धतीकी
कालगणना
देशमें
सभी
जगहोंपर
लागू
हुई।
अंगरेज
सरकारकी
मान्यता
प्राप्त
पढाईको
ही
हर
तरहसे
प्रश्रय
मिला।
विशेषकर
मंदिरों
द्वारा
चलाई
जानेवाली
पाठशालाओंपर
निर्बंध
घोषित
हुए।
इन
बातोंका
मनचाहा
असर
भी
अंगरेज
सरकारको
देखनेको
मिला।
कारण
तो
कई
हैं,
लेकिन
कुल
परिणाम
यह
रहा
कि
कई
भारतीय
विद्वान
इन
बातोंको
प्रगतिशील
तथा
वेद
अध्ययनको
अंधश्रद्धा
बतानेमें
गौरवका
भान
करने
लगे।
इसी
कारण
यहाँ
संज्ञान
लेना
जरूरी
है
कि
अठारहवीं,
उन्नीसवीं
व
बीसवीं
सदिके
यूरोपका
इतिहास
क्या
था।
गॅलीलिओने
सत्रहवीं
सदिमें
वैज्ञानिक
तथ्यका
प्रमाण
दिया
कि
पृथ्वी
गोल
है।
यह
बाइबिल
विरोधी
वक्तव्य
था।
उसे
तो
मृत्युदंड
मिला।
लेकिन
आगे
यूरोपमें
वैज्ञानिकताका
बोलबाला
हुआ।
औद्योगिक
क्रांन्ति
(१७६०)
के
कारण
उत्पादनमें
तेजीसे
बढोतरी
हुई
जिससे
धनसंचय
बढा।
यहाँसे व्यक्तिप्रधान संस्कृति
पनपी जिसमें व्यक्तिगत धनसंचय
व उपभोगोंकोही उन्नतिका प्रेरक
या ड्राइविंग फोर्स माना गया।
लेकिन
जो फॅक्टरी
पद्धति
चली
उसमें
मजदूरोंका
शोषण
हुआ
और
इसीके
विरोधमें
उन्नीसवीं
सदीमें
मार्क्सवादका
उदय
हुआ।
अमरीकन
क्रांति
सन्
१७६५
और फ्रांसीसी
क्रांति
सन्
१७८९
के बाद
यूरोपमें
वंशसिद्धान्तका
दौर
चला
जिसमें
भाषा
और
वंशके
नामपर
अलग-अलग
देशोंमें
अपनी
अपनी
पहचान
बनानेकी
होड
लगी।
बीसवीं
सदीतक
इंग्लैंड,
फ्रांन्स,
हॉलण्ड,
स्पेन
और
पोर्तुगाल
ये
पाँच
देश
एशियन
और
अफरीकन
देशाेंंमें
अपनी
अपनी
कॉलनीज
बना
चुुके
थे।
इण्डस्ट्रियल
रिवोल्यूशन
(१७६०)
अपने
डेढ
सौ
वर्ष
पूरे
कर
रहा
था।
सायन्सकी
प्रगति
उद्योगोंकी
उत्पादन
क्षमताको
बढा
रही
थी।
शिक्षाके
नये
नये
केंद्र
खुल
रहे
थे।
पूँजीवादसे
समृद्धिका
नारा
उन्नीसवीं
सदीमें
बुलंद
हो
गया
था
लेकिन
बीसवीं
सदीमें
मजदूरोंका
शोषण
रोकनेका
नारा
लेकर
साम्यवाद
आक्रामक
हुआ।
यूरोपके
सभी
देशोंमें
जीतकी
होड
ऐसी
चली
की
१९१४
में पूरी
दुनियाँ
पहले
विश्वयुद्धकी
चपेटमें
आ
गई।
तबसे
१९८९
तक सभी
यूरोपीय
देशोंमें
पूँजीवाद
बनाम
साम्यवाद
नामक
युद्ध
चलता
रहा
जो
विचारके
स्तरपर
ही
नही
बल्कि
सत्ताके
क्षेत्रमें
भी
जोशसे
लडा
जाने
लगा
और
आजभी
छोटे
स्तरपर
कायम
है।
तो
यूरोपके
कई
विद्वानोंके
मतपर
भी
इस
होड,
सत्ता
और
आक्रामकताका
चश्मा
चढा
हुआ
था।
उनके
विचार
भी
वंशसिद्धान्त,
साम्यवाद,
विज्ञानवाद
आदिसे
प्रभावित
रहे।
इन्हीं
विचारोंका
प्रभाव
भारतीय
सभ्यताके
विवेचनपर
भी
रहा।
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