प्रकरण
९
प्राचीन
इतिहासकी
पढाईके
संसाधन --
ठीकठाक
किया ०९-०८-२०१८
चराचर
सृष्टीका
नियम
है
परिवर्तन।
लोग
, समाज,
सभ्यताएँ
आईं
और
विनष्ट
हुईं।
मानवको
वरदान
मिला
है
विचारशील
बुद्धिका
और
जिज्ञासाका।
इसीका
उपयोग
करते
हुए
मनुष्यने
इस
अनित्य
सृष्टिमें
कुछ
बातोंको
सनातन
व
शाश्वत
करनेका
प्रयास
किया।
प्राचीन
इतिहासका
ज्ञान
भी
वैसा
ही
एक
मुद्दा
है।
इसे
जाननेके
लिये
हमारे
पास
कई
संसाधन
हैं।
एक
दृष्टि
डालते
हैं
उन
संसाधनोंपर
जिनका
उपयोग
सरस्वती
शोधमें
हुआ।
भाषा--
संस्कृत
एवं
कई
युरोपीय
भाषाओंमें
समानता
दिखी
तो
इसका
अध्ययन
होने
लगा
और
अनुमानित
सिद्धान्त
बनने
लगे।
इस
अध्ययनमें
कुछ
पुरानी
भाषाएँ
भी
हैं
जो
आज
लुप्त
प्राय
हैं।
उदाहरणस्वरूप
ईरानकी
लुप्तप्राय
पुरातन
भाषा
अवेस्ता
और
संस्कृतके
साम्यको
दर्शाते
हुए
श्री
मधुकर
मेहेंदळेने
प्राचीन
भारत
व
प्राचीन
ईरानके
संबंधोंपर
प्रकाश
डाला
है। हालमें
तलगेरीने इसे आगे बढाया है।
भाषा-साम्यसे
हम स्थलांतरका अनुमान लगाते
हैं।
भूपृष्ठीय
खनिज
-- जमीन
के
ऊपर
तथा
जमीनसे
लगभग
२०
मीटरतक
जो
खनिज
मिलते
हैं
उनसे
उस
उस
भौगोलिक
भागके
बननेका
इतिहास
जाना
जा
सकता
है।राजस्थानमें
मिलने
वाले
काले
व
गुलाबी
नमक
के
पहाड,
चूनेके
टीले
इत्यादिसे
जाना
जाता
है
कि
अरावली
पर्वतोंकी
उत्पत्ति
समुद्रसे
हुई
है।
यह
पर्वतश्रृंखला
धीरे
धीरे
हिमालयकी
ओर
सरकने
लगी
तो हिमालयकी
तलछटीमें शिवालिक पर्वतमाला
बनी। इस कारण
यमुना
व
शतुद्रुने
अपने
मार्ग
बदल
दिये।
इस
प्रकार
अरावलीका
सरकना
ही
सरस्वतीकी
धारा
सूखनेका
एक
कारण
बना।
नदीपात्रकी
मिट्टी
-- अपने
उगमस्थानसे
चलकर
नदी
जहाँ
जहाँसे
बहती
है,
उसके
अनुसार
उसकी
मिट्टीकी
रचना
होती
है।
जब
नदीके
मार्गमें
शिलाखण्ड
आते
हैं
तो
नदीके
बहावसे
उनका
आकार
गोल
हो
जाता
है।
नदीका
पात्र
बहुत
चौडा
हो
और
गति
ठहराववाली
हो
तो
ये
पत्थर
जल्दी
टूटते
नही
हैं।
इसी
प्रकार
नदीकी
मिट्टीकी
जाँचसे
पता
चलता
है
कि
वह
किस
किस
रास्तेसे
चलकर
आ
रही
है।
उपग्रह
चित्रोंसे
भी
नदीके
पात्रमें
गहरे
तलकी
मिट्टीके
विषयमें
जाना
जा
सकता
है।
उनकी
पुष्टी
उस
उस
भागमें
ड्रिलिंग
द्वारा
निकली
गई
मिट्टीसे
की
जाती
है।
जीवाश्मोंका
विवरण
तथा
कार्बन
डेटिंग
-- भूस्खलन
आदिके
कारण
कई
प्राणी
पृथ्वीमें
नीचे
दब
जाते
हैं
और
हजारों
वर्षोतक
उसी
स्थितिमें
रहते
हैं।
उन
हड्डियोंके
आकारसे
(या
पत्तोंपर
पडी
जालीके
आकारसे)
उस
उस
प्राणि
या
वनस्पतिकी
पहचान
होती
है।
उसके
कार्बन
डेटिंगके
आधार
पर
उसकी
प्राचीनताका
आकलन
किया
जाता
है।
हरप्पन
सभ्यतामें
घोडोंके
भी जीवाश्म
मिले
जिस
कारण
यह
अनुमान
ध्वस्त
हो
गया
कि
आक्रमणकारी
आर्योंकी
विजय
उनके घोडोंके कारण हुई जबकि
स्थानीय
लोगोंके
पास
घोडे
नही
थे।
हरप्पन
सभ्यताके
जीवाश्मोंकी
कार्बन
डेटिंगसे
ही
पता
चला
कि
वह
अति
प्राचीन
है
-- करीब
६०००
वर्ष
या
उससे
भी
अधिक।
उत्खननसे
दर्शित
नगर-रचना
-- अत्यंत
सावधानीपूर्वक
किये
गये
उत्खननोंसे
पूरेके
पूरे
शहरका
विस्तार
तथा
रचना
भी
देखी
जा
सकती
है।
शहरकी
सीमाके
चहुँ
ओरकी
चारदिवारी,
या
खाई,
दरवाजे,
ईटोंके
आकार
तथा
बनानेका
सामान
(मिट्टी,
चूना
इत्यादी)
ये
सारी
बातें
समझमें
आती
है।
यह
पाया
गया
कि
हरप्पन
सभ्यताके
नगरोंका
आकार
प्रकार
ग्रीक
अथवा
रोमन
सभ्यताके
नगरोंसे
कहीं
अधिक
विस्तृत
था।
चौडे
रास्ते
थे।
सार्वजनिक
स्नानगृह,
नाट्यशाला,
क्रीडागृह
इत्यादि
भी
थे।
केवल
नगरोंके
विस्तार
व
रचना
भी
इनके
भव्य
होनेका
प्रमाण
देते
हैं।
उत्खननसे
प्राप्त
वस्तुएँ
-- उत्खननोंमें
सैकडों
प्रकारकी
वस्तुएँ
पाई
जाती
हैं।
मिट्टीके
खपरैल,
बर्तन,
सिक्के,
मुद्राएँ,
तांबा,
कांसा,
चांदी,
सोना,
अष्टधातु,
इत्यादि
धातुओंके
बर्तन,
सिक्के
या
मुद्राएँ,
मूर्तियाँ,
नक्काशी
किये
गये
बरतन,
वाद्य
इत्यादी।
इनसे
पता
चलता
है
कि
उस
उस
सभ्यतामें
शिल्प,
धातुकर्म
इत्यादी
कितने
विकसित
थे।
कई
बार
शिलालेख
भी
मिलते
हैं।
हरप्पासे
लेकर
राखीगढी
तकके
उत्खननोंमें
खपरैल
व
धातुकी
ऐसी
मुद्राएँ
मिलीं
जिनपर
योगासन
करते
हुए
स्त्री-पुरूष
थे।
लगभग
४०००
मुद्राएँ
ऐसी
मिलीं
जिनपर
लिखावट
थी।
काफी
समय
बाद
उसे
पढना
संभव
हुआ
तो
पता
चला
कि
वह
वेदकालीन
संस्कृतके
शब्द
या
ऋचाओंके
अंश
थे।
लगभग
१७०० मुद्राएँ अश्वमेधको
चिह्नित
करती हैं। हालमें
कुछ बाण,
तलवार,
रथ,
और
बृहदाकार मानव-कंकाल
भी मिले हैं जो युद्धके होनेके
सूचक हैं।।
इसी
प्रकार
धान
व
अन्य
बीज
पाये
गये
जो
खेतीकी
समृद्धि
दर्शाते
हैं।
यह
सारा
अध्ययन
एक
अविरत
चलनेवाली
प्रक्रियाका
भाग
है।
उपग्रह
मान
चित्र
-- इन
चित्रोंका
विशेष
महत्व
इसलिये
है
कि
इनके
द्वारा
भूपृष्ठके
अंदर
२००
से
५००
मीटर
नीचे
तककी
परतोंका
अध्ययन
हो
सकता
है।
सरस्वतीके
होनेका
जो
सबसे
पहला
अकाट्य
प्रमाण
मिला
वह
नासाके
लॅण्डसॅट
उपग्रहके
चित्रोंसे
ही
मिला
था।
सरस्वती
नदीके
पात्रमें
पाये
मिट्टीके
उपग्रह-चित्रोंके
आधार
पर
उसके
पुरातन
मार्गका
ठोस
प्रमाण
मिल सका।
भूपृष्ठतलकी
हलचलका अध्ययन --
भूगर्भशास्त्रमें
इस अध्ययनका बहुत महत्व है।
यह अध्ययन बताता है कि सहस्त्रों
वर्ष पूर्व पृथ्वीके गोंडवन
नामक भूपृष्ठतलसे भारतका
भूभाग छिटककर अलग हुआ और तैरता
हुआ उत्तरकी ओर बढने लगा । वह
यूरेशियन पृष्ठतलके नीचे
घुसकर उसे ऊपर उठाने लगा।
इसी
कारण हिमालयकी उँचाई बढने
लगी। साथही भारतीय
पृष्ठतलमें
खुदमेंभी
सिलवटें पडने
लगीं जिनके
कारण शिवालिक पर्वतश्रृंखला
बनी। इसी बननेके क्रममें किसी
समय हिमालयसे निकलनेवाली
सरस्वती लुप्त हुई या फिर
शिवालिकसे निकलने लगी।
समुद्री
सतहकी
पढाई,
ज्वार-भाटेका
अध्ययन,
तूफानोंका
अध्ययन
इत्यादि
द्वारा
समुद्री
किनारेपर
घटने
वाली
घटनाओंके
विषयमेें
जाना
जा
सकता
है।
गुजरातमें
स्थित
समुद्रके
अध्ययनसे
द्वारकाके
डूबनेके
कालका
भी
अनुमान
लगाया
जा
चुका
है।
इसी
समुद्री
अध्ययनसे
रामसेतु,
द्वारकाकी
रचना
या
अगस्ति
द्वारा
समुद्रको
पी
लेनेकी
कथा
इत्यादिके
विषयमें
निश्चय
करना
संभव
हो
सकता
है।
लोककथाएँ,
लेखन,
ग्रंथोंमें
किया
गया
वर्णन
इत्यादि
बातोंसे
भी
पुरातन
इतिहासको
जाना
जाता
है।
उनके
अन्य
भौतिक
संदर्भ
खोजे
जा
सकते
हैं।
रामायण
व
महाभारतमें
वर्णित
ग्रह
नक्षत्रोंकी
स्थितिके
आधार
पर
उनका
काल
निश्चित
करना
संभव
हो
पाया।
गुणसूत्रानुगत
शोध
---–
DNA matching के
आधारपर
अत्यंत
विस्तृत
समयके
अन्तरालमें
घटित
सामूहिक
स्थित्यंतरोंको
जाना
व
समझा
जा
सकता
है।
यह
भारतियोंके
लिये
गौरवकी
बात
है
कि
हजारों
वर्षोंके
गुणसूत्रात्मक
इतिहासके
अध्ययनने
सिद्ध
कर
दिया
कि
सभी
भारतवासियोंके
DNA वांशिकताके
दृष्टिकोनसे
एक
जैसे
हैं
-- कोई
आर्य-द्रविड,
आदिवासी-बाहरी,
उंची-नीची
जाती,
प्रादेशिक
भिन्नता
इत्यादी
नही
है।
यहाँ
कोई
बाहरसे
नही
आया
बल्कि
यहींसे
बडी
जनसंख्या
पश्चिममें
मध्य
एशिया
व
यूरोपमें
स्थलांतरित
हुई
तथा
पूर्व
व
उत्तर
दिशाओंमें
सुदूर
पूर्व
एशिया
तथा
हिमालयसे
भी
सुदूर
उत्तरमें
फैली।
अफ्रिकन
भूभागके
अलावा
विश्वभरके
अन्य
सभी
भूभागोंमें
भारतियोंके
स्थलांतरके
चिह्न
मिलते
हैं।
यह
प्राचीन
गौरव
है।
यही
भविष्यकालीन
गौरव
भी
बने
यह
हम
सबका
कर्तव्य
है।
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