रविवार, 25 फ़रवरी 2018

संस्कृत व्याकरण पाठ - सूचि

संस्कृत व्याकरण पाठ - सूचि

व्याकरण के पाठ -- संस्कृत, हिंदी (१ से ३०)


जैसे जैसे बनेंगे यहाँ डलते चलेंगे।
पठामि व्याकरणम्  १    ध्वनिफीत      चित्रफीत -- ध्वनि, शब्द, अक्षर, वाक्य
पठामि व्याकरणम्  २    ध्वनिफीत      चित्रफीत -- संज्ञा, सर्वनाम
पठामि व्याकरणम्  ३    ध्वनिफीत      चित्रफीत--  विभक्ति -- सुप् प्रत्यय जोडना
पठामि व्याकरणम्  ४    ध्वनिफीत      चित्रफीत --  कर्मकी विभक्ति 
पठामि व्याकरणम्  ५    ध्वनिफीत      चित्रफीत -- धातुओंमें लिङ् प्रत्यय जोडकर तिङन्त रूप बनाना
पठामि व्याकरणम्  ६    ध्वनिफीत      चित्रफीत
पठामि व्याकरणम्  ७    ध्वनिफीत      चित्रफीत
पठामि व्याकरणम्  ८   ध्वनिफीत      चित्रफीत
पठामि व्याकरणम्  ९   ध्वनिफीत      चित्रफीत
पठामि व्याकरणम्  १०   ध्वनिफीत      चित्रफीत

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

भगवद्गीताकी ध्वनिफीतियाँ

भगवद्गीताकी ध्वनिफीतियाँ

अध्याय १
पठामि संस्कृतम् भाग १७३ गीता अध्याय १ चित्रफीत
पठामि संस्कृतम् भाग १७३ गीता अध्याय १
पठामि संस्कृतम् भाग १७४ गीता अध्याय १
पठामि संस्कृतम् भाग १७५ गीता अध्याय १
पठामि संस्कृतम् भाग १७६ गीता अध्याय १
पठामि संस्कृतम् भाग १७७ गीता अध्याय १
पठामि संस्कृतम् भाग १७८ गीता अध्याय १
अध्याय २
पठामि संस्कृतम् भाग ७४ --गीता अध्याय २-०१
पठामि संस्कृतम् भाग ७५ --गीता अध्याय २-०२
पठामि संस्कृतम् भाग ७६ --गीता अध्याय २-०३
पठामि संस्कृतम् भाग ७७ --गीता अध्याय २-०४
पठामि संस्कृतम् भाग ७८ --गीता अध्याय २-०५
पठामि संस्कृतम् भाग ७९ --गीता अध्याय २-०६
पठामि संस्कृतम् भाग ८० --गीता अध्याय २-०७
पठामि संस्कृतम् भाग ८१ --गीता अध्याय २-०८
पठामि संस्कृतम् भाग ८२ --गीता अध्याय २-०९
पठामि संस्कृतम् भाग ८३ --गीता अध्याय २-१०
अध्याय ३
पठामि संस्कृतम् भाग १०३ -- गीता अध्याय ३-०१
पठामि संस्कृतम् भाग १०४ -- गीता अध्याय ३-०२
पठामि संस्कृतम् भाग १०५ -- गीता अध्याय ३-०३
पठामि संस्कृतम् भाग १०६ -- गीता अध्याय ३-०४
पठामि संस्कृतम् भाग १०७ -- गीता अध्याय ३-०५
पठामि संस्कृतम् भाग १०८  -- गीता अध्याय ३-०६
पठामि संस्कृतम् भाग १०९  -- गीता अध्याय ३-०७
पठामि संस्कृतम् भाग ११०   -- गीता अध्याय ३-०८
पठामि संस्कृतम् भाग १११   -- गीता अध्याय ३-०९
अध्याय ८
पठामि संस्कृतम् भाग ६२  - गीता अध्याय ८-१
पठामि संस्कृतम् भाग ६३  - गीता अध्याय ८-२
पठामि संस्कृतम् भाग ६४  - गीता अध्याय ८-३
पठामि संस्कृतम् भाग ६५  - गीता अध्याय ८-४
पठामि संस्कृतम् भाग ६६ - गीता अध्याय ८-५
अध्याय ११
अध्याय १६

दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १४४  - दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १४५  - दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १४६ - दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १४७  - दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १४८ - दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १४९  - दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १५०  - दशावतार
पठामि संस्कृतम् भाग १५१  - दशावतार

समाधिपाद की १२ चित्रफीतियाँ

समाधिपाद की १२ चित्रफीतियाँ

पठामि संस्कृतम् २०१ समाधिपाद १-६
पठामि संस्कृतम् २०१ समाधिपाद १-६ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २०२ समाधिपाद ७-१२
पठामि संस्कृतम् २०२ समाधिपाद ७-१२ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २०३ समाधिपाद १३-१५
पठामि संस्कृतम् २०३ समाधिपाद १३-१५ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २०६ समाधिपाद १६-१७
पठामि संस्कृतम् २०६ समाधिपाद १६-१७ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २०७ समाधिपाद १८-२३
पठामि संस्कृतम् २०७ समाधिपाद १८-२३ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २०८ समाधिपाद २४-२८
पठामि संस्कृतम् २०८ समाधिपाद २४-२८ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २१० समाधिपाद २९-३२
पठामि संस्कृतम् २१० समाधिपाद २९-३२ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २१२ समाधिपाद ३३-३९
पठामि संस्कृतम् २१२ समाधिपाद ३३-३९ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २१३ समाधिपाद ४०-४२
पठामि संस्कृतम् २१३ समाधिपाद ४०-४२ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २१४ समाधिपाद ४३-४७
पठामि संस्कृतम् २१४ समाधिपाद ४३-४७ ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २१५ समाधिपाद ४८-५१ समाप्त
पठामि संस्कृतम् २१५ समाधिपाद ४८-५१ समाप्त ध्वनिफीत
पठामि संस्कृतम् २१६ समाधिपाद ----संपूर्ण गायन
पठामि संस्कृतम् २१६ समाधिपाद ----संपूर्ण गायन ध्वनिफीत

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

भास्वती सरस्वती प्रकरण –१० भास्वती सरस्वती -- जनमानससे धरातल पर



प्रकरण १० – ठीकठाक किया ०९-०८-२०१८
भास्वती सरस्वती -- जनमानससे धरातल पर
भारतवर्षको अब फिरसे समृद्ध होना है। अगली शताब्दियों और सहस्राब्दियोंपर हमारी दृष्टि होनी चाहिये। भारतीय संगीत सिखाते हुए गुरु अपने शिष्योंको सदा मंद्र स्वरका अभ्यास करवाते हैं - क्योंकि जो जितना मंद्र स्वरतक (निचले स्वर तक) पहुँच सकता है, उतना ही उसे ऊपरी तार सप्तकके स्वर लगानेमें सुविधा होती है।
इसी प्रकार हमने भी सरस्वतीका भूतकालीन इतिहास और वर्तमान देखा लेकिन भविष्य क्या कहता है? या यों कहें कि भूतकालके परिप्रेक्ष्यमें हम सरस्वतीके भविष्यको कैसा देखना चाहते हैं ?
सहस्त्रों वर्षोंपूर्व बहनेवाली वरदायिनि सरस्वती लगभग इपू 2000 में लुप्त हो गई और उसके किनारे बसे लोग इधर उधर बिखर गये। लेकिन जनमानसमें सरस्वतीका अस्तित्व बना रहा। जब हमारे दिमागमें ये बात डाली जाने लगी कि या तो सरस्वती कल्पित थी या फिर आक्रमणकारी आर्योंसे उसका कोई अपनत्व संभव नही था तो पहले तो हम भौंचक्के रह गये। यूरोपीय सिद्धान्तोंको प्रमाण माननेवाले भारतीय विद्वान इस नई थियरीको स्वीकारने लगे। फिर एक जागृतिकी लहर चली कि हमारा सरस्वतीके साथ जो भावनिक संबंध है, उसपर दूसरोंको संशय व्यक्त न करने दें। साथ ही यह भावना भी तीव्र हुई कि सरस्वतीको खोजें। ये दोनों दौर बीसवीं सदीमें चले। परन्तु हमारे कई विद्वानोंने आर्य आक्रमण सिद्धान्तको सही मानकर उसी आधारपर अगला कार्य भी आरंभ कर दिया था - यहाँतक कि हमारी स्कूली किताबोंमें यह बात बार बार लिखी व दोहराई गई कि आजके भारतवासी किसी कालके आक्रमणकारी थे जिन्होंने यहाँकी पुरातन जनजातियोंका विध्वंस किया । इस सिद्धान्तको माननेवाले अपने आपको प्रोग्रेसिव्ह कहने लगे और सरस्वतीकी स्मृतिको सँजोनेवालोंको दकियानूसी कहने लगे।
लेकिन काल अपनी गतिसे चलता है। बीसवीं सदका दौर बीत गया। इक्कीसवीं सदी आते आते विश्‍वभरमें मान्य हो गया कि हम भारतीय कहींसे नहीं आये बल्कि हजारों वर्षोंसे इसी भूमिपर पले बढे हैं। और हमारी संस्कृतिको विश्वगुरूकी उँचाईतक पहुँचाने वाली पुण्यसलिला थी सरस्वती नदी। इस प्रकार जिस जिसने सरस्वती नदी तथा सरस्वती सभ्यताकी खोजमें अपना योगदान दिया उनके परिश्रम सार्थक हुए।
यहाँ एक बार रुककर उनके प्रति अभिनंदन व कृतज्ञता व्यक्त करना उचित होगा।
सबसे पहले विलियम जोन्स और मॅक्समुलरका नाम लेना पडेगा क्योंकि उनके अध्ययनकी प्रेरणा चाहे जो रही हो और उनके मतोंका फल चाहे जो भी निकला हो, परन्तु जिस लगन व परिश्रमसे उन्होंने भारतीय भाषाएँ या संस्कृत या वैदिक सभ्यताकी पढाई करी, उस लगनकी प्रशंसा तो करनी ही पडेगी। फिर नाम आते हैं, कनिंगहम, मॅकेडोनल और कीथके जिन्होंने अपने अपने सर्वेक्षणोंसे सरस्वतीपर बहुत कुछ प्रकाश डाला।
भारतीय विद्वानोंमें सबसे पुराना नाम आता है नाशिकमें जज रहे श्री तेलंगका जिन्होंने अंगरेजोंद्वारा फैलाये जा रहे इस मतका जोरदार खण्डन किया कि वैदिक संस्कृती मात्र ३५०० वर्ष पुरानी थी और महाभारतकी रचना सन् ५०० से ८०० के बीच हुई। उन्होंने महाभारतको आजसे लगभग ५००० वर्ष पुरातन सिद्ध करते हुए रामायण तथा वैदिक कालको उससे भी पुरातन बताया। फिर लोकमान्य तिलकने भी अन्य प्रमाणोंसे इसकी पुष्टि की।
उसके बाद ऋग्वेद आदि ग्रंथोंमें सरस्वती-वर्णनका विषय लेकर कई पुस्तकें लिखी गईं जिनमें काशी विश्वविद्यालयके श्री गोडबोलेकी पुस्तक ऋग्वेदमें सरस्वती विशेष रूपसे महत्वपूर्ण है। इसी दौरान श्रीनिवास रघुनाथने फिर एक बार महाभारतके अस्तित्वके प्रमाण व कालका निर्णय दिये।
स्वतंत्रता प्राप्तिके बाद विशेष रूपसे ASI (Archaeological Survay of India) अर्थात् पुरातत्व विशेषज्ञोंने और आगे चलकर उनकी खुदाईमें सहायक बने ONGC ने सरस्वतीकी खोज संबंधित बडा योगदान दिया है। इसी प्रकार सर्वे ऑफ इंडिया तथा जिओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडियाका योगदान भी महत्वपूर्ण है। इसी क्रममें आपटे स्मारक समिति बंगळुरु, उनके चलाये इतिहास संकलन समितीके कार्याध्यक्ष श्री पिंगळे और उनकी आयोजित शोधयात्राके नेता वाकणकर समेत सभी दस सदस्योंका योगदान अत्यधिक रहा । इसी समितीके इतिहास संकलनके कार्यको आगे बढानेवाले सरस्वती शोध प्रकल्पके निदेशक श्री कल्याणरामनने सात खण्डोंमें सरस्वती संबंधी ग्रंथरचना कर उससे जुडी भारतीय भावनाओंका अत्युच्च प्रदर्शन किया। शोध अभियान समितिकी पुस्तक "लुप्त सरस्वती नदी शोधयात्रा" के प्रकाशित होनेके बाद तो विशेष रूपसे माँग होने लगी कि क्यों न ऐसे प्रयत्न किये जायें जिससे सरस्वतीकी धारा फिरसे बहे । ऐसी माँग उठानेवालोंमें श्री दर्शनलाल जैन व उनके सहयोगियोंकी बडी भूमिका रही। जिन लेखकोंके कारण सरस्वती सभ्यताकी बात दूर-दूरतक पहुँची उनमें श्री कल्याणरामन, नटवर झा, नरहरि आचार, रवींद्र पराशर, श्रीकांत तलगेरी, राजाराम आदि कुछ नाम तत्काल सामने आते हैं। उपग्रहसे आये मानचित्रोंके अध्ययन करने वाले यशपाल इत्यादि विशेषज्ञोंने जब बताया कि सनातन सरस्वतीका मार्ग कैसा था, तब तो यह संभावना भी कई गुना बढी कि उसी मार्गकी खुदाईसे सरस्वतीका पुनर्भरण संपन्न हो सकेगा।
तो प्रश्न उठता है कि अब आगे क्या और उत्तर उभरता है जनमानससे ही। अब यह चाह बढने लगी कि क्यों न सरस्वती पुन: प्रवाहित हो? पहलेकी तरह फिर एक बार हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व गुजरातको आप्लावित करे? क्यों न भविष्यमें हम फिर उस देवितमा, अंबितमा, नदीतमाका दर्शन करें जो सुदूर भूतकालमें कभी लुप्त हुई थी ?

लेकिन ऐसा हुआ तो भारतीयोंके लिये एक चुनौती यह भी होगी कि उस पुरातन सरस्वती-संस्कृतिकी तरह फिर एकबार भारतियोंमें ज्ञान व जिज्ञासा, शोध व कर्मठताका उदय हो जो आज लुप्तप्रायसा लगता है।
बीसवीं सदीकी सरस्वती शोधयात्राकी जगह अब इक्कीसवीं सदीमें जनमानसने माँगा कि सरस्वती अब धरातल पर भी उतरे। क्या यह संभव है ?
नदीका पुनर्भरण, एक प्रकारसे गोदभराई क्यों संभव नही? अब तो उपग्रह चित्रोंसे हमे पता है कि भूपृष्ठके नीचे सरस्वती किस रास्तेसे बहती थी। उस रास्तेपर उपर-उपरसे भले ही बालू, मिट्टी, कंकड जमा हुए हों, लेकिन कभी तो वही सरस्वतीका विशाल पात्र था। तो यदि सरस्वतीके मार्गको खोदा जाय, उसमें पडी कंकड-पत्थरोंकी परतें हटाई जायें, तो क्या पुन: सरस्वतीके दर्शन नही हो सकते हैं?
यह सोच प्रबल हुई तो हरयाणा व राजस्थानमें सरस्वती विकास व सरस्वतीके पुनर्भरणके उद्देशसे संस्थाएँ बनीं, बोर्ड बनें। खुदाई होने लगी ताकि नदीका पुराना पात्र स्वच्छ हो, फिरसे प्रवाहित हो।
यहाँ एक सतर्कताका विचार रखना भी आवश्यक है। उपग्रह-चित्र बताते हैं कि जमीनके गहरे अंदर सरस्वतीके पात्रमें कई जगहोंपर पानी भी है। उसे ड्रिलिंगके द्वारा उलीच कर जमीनके उपर लाना सही प्रयास नही होगा । मान्यताके अनुसार वह भूमिके अंदर- अंदरसे अग्निको ले जानेवाली धारा है। उसे छेडना ठीक नही। भूतलपर आकाशसे गिरते हुए जलसे और हिमालयकी बर्फकी धारासे ही सरस्वतीका पुनर्भरण विवेकपूर्ण होगा।
थोडे कालके लिये ही सही और थोडे मार्गपर ही सही, लेकिन वर्ष २०१७ की बारिशमें सरस्वतीमें जल प्रवाहित हुआ। यह प्रवाह कई तरहसे शुभारंभका प्रतीक है। खासकर नदीगत परिवहन व सुजलाम् भूमिके लिये। "या कुन्देन्दु तुषार हार धवला”, ऐसी सरस्वतीको फिरसे प्रवाहित करनेका कौशल भारतियोंने दिखाया तो हमारे गौरवशाली अतीतकी तरह भविष्य भी गौरवशाली होगा।
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भास्वती सरस्वती प्रकरण – ९ प्राचीन इतिहासकी पढाईके संसाधन

प्रकरण
प्राचीन इतिहासकी पढाईके संसाधन -- ठीकठाक किया ०९-०८-२०१८
चराचर सृष्टीका नियम है परिवर्तन। लोग , समाज, सभ्यताएँ ईं और विनष्ट हुईं। मानवको वरदान मिला है विचारशील बुद्धिका और जिज्ञासाका। इसीका उपयोग करते हुए मनुष्यने इस अनित्य सृष्टिमें कुछ बातोंको सनातन शाश्वत करनेका प्रयास किया। प्राचीन इतिहासका ज्ञान भी वैसा ही एक मुद्दा है। इसे जाननेके लिये हमारे पास कई संसाधन हैं। एक दृष्टि डालते हैं उन संसाधनोंपर जिनका उपयोग सरस्वती शोधमें हुआ।

भाषा-- संस्कृत एवं कई युरोपीय भाषाओंमें समानता दिखी तो इसका अध्ययन होने लगा और अनुमानित सिद्धान्त बनने लगे। इस अध्ययनमें कुछ पुरानी भाषाएँ भी हैं जो आज लुप्त प्राय हैं। उदाहरणस्वरूप ईरानकी लुप्तप्राय पुरातन भाषा अवेस्ता और संस्कृतके साम्यको दर्शाते हुए श्री मधुकर मेहेंदळेने प्राचीन भारत प्राचीन ईरानके संबंधोंपर प्रकाश डाला है। हालमें तलगेरीने इसे आगे बढाया है। भाषा-साम्यसे हम स्थलांतरका अनुमान लगाते हैं।

भूपृष्ठीय खनिज -- जमीन के ऊपर तथा जमीनसे लगभग २० मीटरतक जो खनिज मिलते हैं उनसे उस उस भौगोलिक भागके बननेका इतिहास जाना जा सकता है।राजस्थानमें मिलने वाले काले गुलाबी नमक के पहाड, चूनेके टीले इत्यादिसे जाना जाता है कि अरावली पर्वतोंकी उत्पत्ति समुद्रसे हुई है। यह पर्वतश्रृंखला धीरे धीरे हिमालयकी ओर सरकने लगी तो हिमालयकी तलछटीमें शिवालिक पर्वतमाला बनी। इस कारण यमुना शतुद्रुने अपने मार्ग बदल दिये। इस प्रकार अरावलीका सरकना ही सरस्वतीकी धारा सूखनेका एक कारण बना।

नदीपात्रकी मिट्टी -- अपने उगमस्थानसे चलकर नदी जहाँ जहाँसे बहती है, उसके अनुसार उसकी मिट्टीकी रचना होती है। जब नदीके मार्गमें शिलाखण्ड आते हैं तो नदीके बहावसे उनका आकार गोल हो जाता है। नदीका पात्र बहुत चौडा हो और गति ठहराववाली हो तो ये पत्थर जल्दी टूटते नही हैं। इसी प्रकार नदीकी मिट्टीकी जाँचसे पता चलता है कि वह किस किस रास्तेसे चलकर रही है। उपग्रह चित्रोंसे भी नदीके पात्रमें गहरे तलकी मिट्टीके विषयमें जाना जा सकता है। उनकी पुष्टी उस उस भागमें ड्रिलिंग द्वारा निकली गई मिट्टीसे की जाती है।

जीवाश्मोंका विवरण तथा कार्बन डेटिंग -- भूस्खलन आदिके कारण कई प्राणी पृथ्वीमें नीचे दब जाते हैं और हजारों वर्षोतक उसी स्थितिमें रहते हैं। उन हड्डियोंके आकारसे (या पत्तोंपर पडी जालीके आकारसे) उस उस प्राणि या वनस्पतिकी पहचान होती है। उसके कार्बन डेटिंगके आधार पर उसकी प्राचीनताका आकलन किया जाता है। हरप्पन सभ्यतामें घोडोंके भी जीवाश्म मिले जिस कारण यह अनुमान ध्वस्त हो गया कि आक्रमणकारी आर्योंकी विजय उनके घोडोंके कारण हुई जबकि स्थानीय लोगोंके पास घोडे नही थे। हरप्पन सभ्यताके जीवाश्मोंकी कार्बन डेटिंगसे ही पता चला कि वह अति प्राचीन है -- करीब ६००० वर्ष या उससे भी अधिक।

उत्खननसे दर्शित नगर-रचना -- अत्यंत सावधानीपूर्वक किये गये उत्खननोंसे पूरेके पूरे शहरका विस्तार तथा रचना भी देखी जा सकती है। शहरकी सीमाके चहुँ ओरकी चारदिवारी, या खाई, दरवाजे, ईटोंके आकार तथा बनानेका सामान (मिट्टी, चूना इत्यादी) ये सारी बातें समझमें आती है। यह पाया गया कि हरप्पन सभ्यताके नगरोंका आकार प्रकार ग्रीक अथवा रोमन सभ्यताके नगरोंसे कहीं अधिक विस्तृत था। चौडे रास्ते थे। सार्वजनिक स्नानगृह, नाट्यशाला, क्रीडागृह इत्यादि भी थे। केवल नगरोंके विस्तार रचना भी इनके भव्य होनेका प्रमाण देते हैं।

उत्खननसे प्राप्त वस्तुएँ -- उत्खननोंमें सैकडों प्रकारकी वस्तुएँ पाई जाती हैं। मिट्टीके खपरैल, बर्तन, सिक्के, मुद्राएँ, तांबा, कांसा, चांदी, सोना, अष्टधातु, इत्यादि धातुओंके बर्तन, सिक्के या मुद्राएँ, मूर्तियाँ, नक्काशी किये गये बरतन, वाद्य इत्यादी। इनसे पता चलता है कि उस उस सभ्यतामें शिल्प, धातुकर्म इत्यादी कितने विकसित थे। कई बार शिलालेख भी मिलते हैं।

हरप्पासे लेकर राखीगढी तकके उत्खननोंमें खपरैल धातुकी ऐसी मुद्राएँ मिलीं जिनपर योगासन करते हुए स्त्री-पुरूष थे। लगभग ४००० मुद्राएँ ऐसी मिलीं जिनपर लिखावट थी। काफी समय बाद उसे पढना संभव हुआ तो पता चला कि वह वेदकालीन संस्कृतके शब्द या ऋचाओंके अंश थे। गभग १७०० मुद्राएँ अश्वमेधको चिह्नित करती हैं। हालमें कुछ बाण, तलवार, रथ, और बृहदाकार मानव-कंकाल भी मिले हैं जो युद्धके होनेके सूचक हैं।। इसी प्रकार धान अन्य बीज पाये गये जो खेतीकी समृद्धि दर्शाते हैं। यह सारा अध्ययन एक अविरत चलनेवाली प्रक्रियाका भाग है।

उपग्रह मान चित्र -- इन चित्रोंका विशेष महत्व इसलिये है कि इनके द्वारा भूपृष्ठके अंदर २०० से ५०० मीटर नीचे तककी परतोंका अध्ययन हो सकता है। सरस्वतीके होनेका जो सबसे पहला अकाट्य प्रमाण मिला वह नासाके लॅण्डसॅट उपग्रहके चित्रोंसे ही मिला था। सरस्वती नदीके पात्रमें पाये मिट्टीके उपग्रह-चित्रोंके आधार पर उसके पुरातन मार्गका ठोस प्रमाण मिल सका

भूपृष्ठतलकी हलचलका अध्ययन -- भूगर्भशास्त्रमें इस अध्ययनका बहुत महत्व है। यह अध्ययन बताता है कि सहस्त्रों वर्ष पूर्व पृथ्वीके गोंडवन नामक भूपृष्ठतलसे भारतका भूभाग छिटककर अलग हुआ और तैरता हुआ उत्तरकी ओर बढने लगा । वह यूरेशियन पृष्ठतलके नीचे घुसकर उसे ऊपर उठाने लगा। इसी कारण हिमालयकी उँचाई बढने लगी। साथही भारतीय पृष्ठतलमें खुदमेंभी सिलवटें पडने लगीं जिनके कारण शिवालिक पर्वतश्रृंखला बनी। इसी बननेके क्रममें किसी समय हिमालयसे निकलनेवाली सरस्वती लुप्त हुई या फिर शिवालिकसे निकलने लगी।

समुद्री सतहकी पढाई, ज्वार-भाटेका अध्ययन, तूफानोंका अध्ययन इत्यादि द्वारा समुद्री किनारेपर घटने वाली घटनाओंके विषयमेें जाना जा सकता है। गुजरातमें स्थित समुद्रके अध्ययनसे द्वारकाके डूबनेके कालका भी अनुमान लगाया जा चुका है। इसी समुद्री अध्ययनसे रामसेतु, द्वारकाकी रचना या अगस्ति द्वारा समुद्रको पी लेनेकी कथा इत्यादिके विषयमें निश्चय करना संभव हो सकता है।

लोककथाएँ, लेखन, ग्रंथोंमें किया गया वर्णन इत्यादि बातोंसे भी पुरातन इतिहासको जाना जाता है। उनके अन्य भौतिक संदर्भ खोजे जा सकते हैं। रामायण महाभारतमें वर्णित ग्रह नक्षत्रोंकी स्थितिके आधार पर उनका काल निश्चित करना संभव हो पाया।

गुणसूत्रानुगत शोध --- DNA matching के आधारपर अत्यंत विस्तृत समयके अन्तरालमें घटित सामूहिक स्थित्यंतरोंको जाना समझा जा सकता है। यह भारतियोंके लिये गौरवकी बात है कि हजारों वर्षोंके गुणसूत्रात्मक इतिहासके अध्ययनने सिद्ध कर दिया कि सभी भारतवासियोंके DNA वांशिकताके दृष्टिकोनसे एक जैसे हैं -- कोई आर्य-द्रविड, आदिवासी-बाहरी, उंची-नीची जाती, प्रादेशिक भिन्नता इत्यादी नही है। यहाँ कोई बाहरसे नही आया बल्कि यहींसे बडी जनसंख्या पश्चिममें मध्य एशिया यूरोपमें स्थलांतरित हुई तथा पूर्व उत्तर दिशाओंमें सुदूर पूर्व एशिया तथा हिमालयसे भी सुदूर उत्तरमें फैली। अफ्रिकन भूभागके अलावा विश्वभरके अन्य सभी भूभागोंमें भारतियोंके स्थलांतरके चिह्न मिलते हैं। यह प्राचीन गौरव है। यही भविष्यकालीन गौरव भी बने यह हम सबका कर्तव्य है।
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