श्री
हनुमान जन्मस्थलम् हिंदी (+ मराठी)
सारांश, मूलकथ्य, भविष्यपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, स्कंदपुराण, पराशरसंहिता, जाबालीतीर्थम्, ऋणनिर्देश, उपसंहार-- लीना मेहेंदळे द्वारा हिंदी व मराठी अनुवाद
सारांश, मूलकथ्य, भविष्यपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, स्कंदपुराण, पराशरसंहिता, जाबालीतीर्थम्, ऋणनिर्देश, उपसंहार-- लीना मेहेंदळे द्वारा हिंदी व मराठी अनुवाद
summary
यद्यपि
प्राचीन भारत के वा़ङ्मय
में श्रीहनुमान का स्थान अनन्य
है,
फिर
भी हनुमान की जन्मस्थली के
विषय में अधिक जानकारी नही
थी। इस विषय में मूल हस्तलिखित
प्रतियाँ या अन्य ग्रंथ सहजतासे
उपलब्ध न होने के कारण कोई
सटीक शोधकार्य नही हो पाया
था। कई पण्डितों,
इतिहासविदों
तथा विद्वानों द्वारा व्यक्त
किये मत यदा-कदा
प्रचलन में आते रहे हैं परन्तु
प्रत्येक ने हनुमान जन्मस्थलि
को अलग-अलग
स्थानों पर बताया। या तो
उन्होंने संबंधित भूगोल को
अच्छी तरह नहीं समझा,
नये
नाम व पुराने नामों को सही तरह
से नही जोडा या फिर थोडे ही
मुद्दों के आधार पर मत
बना लिया जो समग्रता से इस
प्रश्न का उत्तर नही देता था।
श्रीमद्
वाल्मिकीरामायण ग्रंथ में
यह वर्णन है कि भगवान अंजनेय
ने माता अंजना के गर्भ से किसी
गुफामें जन्म लिया था। अपनी
पुस्तक The
Histority of Ramayan में
इतिहासज्ञ श्री
S.C
Dey लिखते
हैं कि "
अंजनेय
का जन्म ऋष्यमूक पर्वत पर हुआ
था,
जो
कि कर्नाटक प्रांत में अवस्थित
है।"
दूसरे
विद्वान श्री K.L
Aryan लिखते
हैं कि हनुमानजी
के जन्मस्थल के विषय में कुछ
भी निष्कर्ष रुप सें कहना कठिन
है। मध्य प्रदेश के आदिवासियोंकी
मान्यता है कि उनका जन्म रांची
जिलेके अंजन गांव में हुआ था
जब कि कर्नाटक की जनता मानती
है कि हनुमानजी वहाँ
के भूमिपुत्र हैं।
अब डॉ. अन्नदानम् चिदंबर शास्त्रीके लेख के माध्यम से यह
निस्संशय सिध्द होता है कि
हनुमान का जन्म अंजनाद्रि
पर्वत पर हुआ था। डॉ. शास्त्रीने अपने अथक
परिश्रम एवं मूलगामी
संशोधन से इसे सिध्द
किया। डॉ. शास्त्री
के कई दशकों के संशोधनमें
उनके द्वारा लिखे
गये शोधपत्रों माध्यमसे और विशेषकर पराशर
संहिता की हस्तलिखित प्रति
से यह बात प्रकाश में आई है।
अतः यह हम सभी का कर्तव्य बनता है
कि श्रीरामके प्रति
पूर्ण श्रध्दा रखते
हुए एकत्रित हों,
और
हनुमान जी से संबंधित सभी
स्थलों का विकास करें और उनके
पराक्रमकी गाथाओं का उत्सव
करें। यह श्रद्दा
हमें मोक्ष तक ले
जायेगी या कमसे कम कुछ पुण्य,
कोई
सद्गति तो अवश्य देगी जो जन्म
जन्मांतरो तक हमारा
पथ प्रदर्शन करे।
|| श्रीरामो विजयते ||-----------------------------------------------------------------------
हनुमान
मूलकथ्य
इस विश्वका नियंता, जो सर्वत्र है, सर्वज्ञ हैं और सर्वशक्तिमान है, और जो ब्रह्म कहलाता है, वह सृष्टिमें विविध रूपोंमें अवतार लेता है और हमें स्मरण दिलाता है कि पूरी सृष्टिको चलानेवाले उस परमेश्वर के पास हमारे अच्छे व बुरे कर्मोंका लेखा जोखा है। उसके अवतार लेने मात्रसे ही वह स्थली पुण्यभूमि हो जाती है। प्रत्येक अवतार में एक निश्चित उद्दिष्ट है जो ईश्वरी योजना का एक अंश है।
प्राचीन
अयोध्या नगरी भी राम जन्मके
कारण पुण्यभूमी बनी हुई है।
श्रीराम हमारी न्यायबुद्धि
व धर्म के मूर्त रूप हैं। उनकी
भूमी में रहनेवाले अय़ोध्यावासी
अपने सौभाग्यपर फूले नही
समाते।
जानकारी
के अभावमें वैसी सौभाग्य-
भावना
परम रामभक्त श्री हनुमान की
जन्मस्थली पर नही है। तिरूमल
पर्वतशैलोंमें अवस्थित
अंजनाद्रि ही वह स्थली है।
इसे सिद्ध करनेवाले तथ्य
लोगोंतक पहुँचाना यही हमारे
प्रयास का उद्देश्य है।
श्री
हनुमान विषयक ये तथ्य हमें
एक बृहत ग्रंथ पराशर संहिता
से प्राप्त होते हैं !
इस
हस्तलिखित ग्रंथ के विभिन्न
अंश देशभरमें
कई स्थानोंपर
फटी पुरानी अवस्था में बिखरे
पडे थे !
मेरे
पूज्य पिता क्षी अन्नदानम्
चिदम्बर शास्त्री ने गुरूकी
आज्ञासे दशकोंतक अथक परिश्रम
किया ताकि उन्हें
एकत्रित कर इस
ग्रंथको प्रकाश में लाया जाय
और अंजनाद्रि की महत्ता
सर्वविदित हो !
उन्होंने
कई पण्डितों व पौर्वात्य
ग्रंथालयोंसें
भेंट कर इन बिखरे कागज पत्रोंका
संकलन किया !
अन्ततः
वे इस पुस्तक को तेलगुमें लाने
में सफल हुए !
यह
कार्य मेरे जन्मके पहले ही
आरंभ हुआ और मेरी किशोर अवस्था
तक चला !
शोधके
अन्तरालमें हनुमान की जन्मस्थली
अंजनाद्रि को निश्चित करनेवाले
कई प्रमाण उन्हें मिले और इसी
आधार पर उनके शोधग्रंथ के लिये
आंध्र विश्वविद्यालयने
उन्हें डॉक्टरेट
भी प्रदान की !
उन
दिनों हर कोई अंजनाद्रि की
महत्तासे अनभिज्ञ था !
मंदिर
जीर्ण हो चुका था,
और
कतिपय भक्त ही वहाँ जाते थे
!
यहाँतक
की मंदिरका अर्चक जो परंपरागत
रूपसे हठीराम मठ द्वारा नियुक्त
था,
वह
भी अनभिज्ञ था !
डॉ.
शास्त्रीने
प्रण किया कि वे इस स्थानको
गौरव पुनः लौटा लायेंगे !
उन्होंने
तिरुमल तिरूपति देवस्थानसे
पत्रव्यवहार किया और अपने
भाषणोंमे भी प्रतिपादन किया
कि हर हनुमान भक्त को अंजनाद्रि
के महत्व
से परिचित कराया जाये !
हनुमद्दिक्षा
ग्रंथ में वर्णित व्रत का पालन
भक्तगण करें और व्रतकी समाप्ति
अंजनाद्रि पर्वत पर आकर करें
!
उनकी
प्रेरणा से कई भक्तोंने
हनुमद्दिक्षा में वर्णित
व्रत किया और उद्यापन के लिये
अंजनाद्रि पर जाकर हनुमान
मंदिरमें श्रद्धा सुमन चढाये
!
डॉ.
शास्त्री
के प्रयास तथा अंजनाद्रि पर्वत
पर बढती हुई भक्तसंख्या के
कारण मंदिर के अधिकारी भी
प्रभावित हुए !
कार्यकारी
अधिकारी श्री विनायक राव के
कार्यकाल में मंदिर का जीर्णोद्धार
हुआ !
उत्सवमें
और सामान्य दिनों में आनेवाले
भक्तगणों की संख्या कई गुना
बढी !
लेकिन
अभी भी मूलभूत सुविधाएँ जैसे
निवास,
स्वच्छतागृह,
यातायात
आदि नही हैं !
ये
उपलब्ध हों और इस धर्मस्थलका
विकास हो तो श्री व्यंकटेश्वर
के दर्शनार्थी भक्तगण अंजनाद्रि
पर भी आयेंगे और हनुमान
जन्मस्थलीको वह गौरव प्राप्त
होगा जो अबतक नही मिला है !
इसी
कारण आप सबोंसे निवेदन है कि
आप स्वयं,
परिवार
व मित्रोंसहित आधिकाधिक संख्या
में हमारे प्रार्थनापत्र पर
हस्ताक्षर करें,
हमारे
ग्रंथको खरीदें,
पढें
और अंजनाद्रि आकर हनुमानजी
का दर्शन करें !
अधिक
जानकारी के लिये हमारी वेब
साइट www.jayahanumanji.com
देखें
!
रामभक्त
हनुमान आपपर
कृपा बनाये रखें !
-
हनुमानभक्त
AVNG
Hanumat prasad.
----------------------------------------------------------------------------------
हनुमान
जन्मस्थली
भविष्य पुराण का संदर्भ
श्री
हनुमान के जन्मस्थल से संबंधित
कुछ संदर्भ भविष्यपुराण में
मिलते हैं। वेंकराचलमाहात्म्यम्
पुस्तक के पहले अध्याय में
भविष्यपुराण की एक कथा का
वर्णन है जिसमें राजा जनकके
पूछनेपर शतानन्द ऋषिने बताया कि अंजनाद्रि पर्वतका नाम
कैसे पडा।
एक
समय प्रतापी राजा केसरीकी
सुन्दरी पत्नी अंजना मातंग
ऋषिके आश्रम में गई और ऋषीको
अपने निःसंतान होने का दुख
बताया-
क्या
यही मेरा विधिलिखित हैं ?
ऋषि
ने उसे धीरज देकर उपाय बताया
-यहाँसे
पचास योजन दूरी पर पम्पासरोवर
है जहाँ महार्षि नरसिंह का
नरसिंहाश्रम है। उससे दक्षिण
दिशामें नारायणाचल पर्वत के
शिखरपर पवित्र स्वामीतीर्थ
है। उससे दक्षिणमें एक कोस
चलनेपर तुम्हें आकाशगंगा
नामक जलप्रपात मिलेगा । उसी
जलमें स्नान कर १२ वर्षकी
तपस्या करो तो तुम्हें एक
सदगुणोंसे युक्त संतति प्राप्त
होगी।
रानी अंजनाने मातंग ऋषिके निर्देशानुसार पूरी लगनसे तपस्या की । आकाशगंगाके प्रपातमें स्नान कर उसने प्रपातके अधिष्ठता पीपलकी प्रदक्षिणा और भगवान वराहस्वामीका पूजन किया । फिर पतिकी अनुमती लेकर घोर तपस्या करने बैठी। अल्पाहार और निराहार रहकर उसने अपने शरीर को काठ की तरह सुखा डाला । उसने केवल वायु का आहार लिया ।वायुदेव उसे प्रतिदिन एक दैवी फल खाने को देते थे। एक दिन वायुदेवने अपना शुक्रबीज फलमें डालकर उसे दिया । इससे अंजनाको गर्भ रहा और दशम मासमें उसे एक पुत्र प्राप्ति हुई जिसे ऋषियोंने हनुमान नाम दिया ।
इस प्रकार रानी अंजनाकी घोर तपस्याके कारण इस पर्वतका नाम अंजनाद्रि हो गया।
-------------------------------------------------------------------------------------
ब्रह्माण्ड
पुराण के संदर्भ
ब्रह्माण्ड
पुराण के पांचवे अध्याय
तीर्थस्कंध में अंजनाद्रि
पर्वत की कथा आती है जो हनुमान
जन्मसे संबंधित है। यह कथा
भी भविष्यपुराण में वर्णित
घटनाओंकी पुष्टि करती है।
देवर्षि
नारदने भृगु महर्षि से एक
चर्चामें अंजनाके जन्मकी कथा
कही। त्रेतायुगमें एक दैत्य
केसरीने निःसंतान होनेके
कारण शिवजीकी घोर तपस्या की।
व्रतस्थ रहकर पंचाक्षर मंत्र
के कोटि-कोटि
पाठ किये। इस प्रकार उसने
शिवको प्रसन्न किया। केसरीने
शिवसे एक महाबली व बुद्धिमान
पुत्रका वर मांगा। शिवजीने
कहा कि ब्रह्माने तुम्हारे
भाग्यमे पुत्र संतति नही दी
है लेकिन मैं तुम्हें एक
पुत्रीका वरदान देता हूँ जो
एक महाबली पुत्रको जन्म देगी।
इस प्रकार नातीके माध्यमसे
तुम्हारी मनोकामना पूर्ण
होगी।
इस पर
प्रमुदित होकर केसरी घर लौट
गया। शीघ्र ही उसे एक पुत्रि
हुई जिसका नाम अंजना रखा। एक
बार केसरी नामकीही एक वानर
जाती का प्रमुख दैत्यके पास
आया और अंजनाका हाथ माँगा।
इस प्रकार
अंजनाका विवाह केसरी जातीमें
हुआ। लेकिन कई वर्षेंतक उसे
भी संतान-प्राप्ति
नहीं हुई। अंजना दुख करने लगी
कि क्या उसके पिताकी आशा फलवती
नहीं होगी?
तब
उसने कई ब्राह्मणों और पण्डितों
को बुलाकर दान दक्षिणा दी और
उनसे प्रार्थना कर पूछने लगी
कि पुत्र प्राप्तिके लिये
उसे कौन कौनसे व्रत करने चाहिये।
कुछ काल पश्चात् वह एक घुमन्तु
जातीकी महिला पुलकाशीसे मिली
जो सामुद्र-ज्ञान
रखती थी,
अर्थात
चेहरा देखकर भविष्यवाणी करती
थी। अंजनाने बडे सन्मानसे
पुलकाशीको बुलाया और उसे अपना
दुख बताया। पुलकाशीने उसे
वेंकटाचलम् पर्वत पर सात हजार
वर्ष तक तपस्या करनेको कहा
और अदृश्य हो गई।अंजना को
पुलकाशी पर दृढ विश्वास हो
गया था। वह आकाशगंगा के समीप
वेंकटाचलम् पर्वत शिखर पर
पहुँची और घोर तपस्याका आरंभ
किया। वह केवल वायुका सेवन
कर रहने लगी। कालान्तरसे
वायुदेवने प्रसन्न होकर उसे
प्रतिदिन एक फल देना आरंभ
किया।
अंजना की
तपस्या के ७००० वर्ष पूरे होने
को आये उन्ही दिनों एक बार
शिवजी और पार्वती आनंदसे टहलते
हुए वेंकटाचलम् क्षेत्रमें
आये। उस सुन्दर वनस्थलीको
देखकर पार्वतीके मनमें प्रणयकी
इच्छा उत्पन्न हुई। तब शिव
पार्वती वानरोंका रुप लेकर
वनमें विहार और प्रणय करने
लगे। ऐसेमें शिवका वीर्य लेकर
वायुदेवने उसे एक दोनेमें
रखकर अंजनाको दिया। अंजनाने
भी प्रतिदिनकी तरह उस फलको
खा लिया।
कुछ दिन
पश्चात् गर्भ रहनेकी बात जानकर
अंजना आश्चर्य और दुखमें पड
गई कि उसकें द्वारा क्या पाप
हुआ है। तब एक आकाशवाणीने उसे
सान्त्वना देते हुए कहा -
हे
अंजना दुखी मत हो। तुमने कोई
पाप नही किया। ईश्वरकी इच्छासे
तुम गर्भवती हो।
शीघ्र ही
जगतके त्राता श्रीविष्णू
रघुवंशमें जन्म लेकर रावणका
वध करने वाले हैं। तुम एक बलवान
पुत्रको जन्म दोगी जो उस अवतारकी
सहायता करेगा।
इस पर आनंदित
होकर अंजना अपने घर लौट गई और
पति तथा पिताको यह समाचार
सुनाया। दशम मासमें जब श्रावण
मास चल रहा था,
रविवार
था तब श्रवण नक्षत्रपर एक
तेजस्वी बालकने जन्म लिया।
जन्मसे ही वह लाल लंगोट,
कानोंमें
स्वर्ण कुण्डल तथा सुनहरे
जनेऊसे सज्जित था।
जन्म लेते
ही बालक हनुमानको तीव्र भूख
लगी और सूर्यको फल समझकर वह
उसे खाने को लपका। इसपर देवताओंने
उसपर ब्रह्मास्त्रसे प्रहार
किया और उसे भूमीपर गिरा दिया।
दुखी होकर अंजनाने देवताओंको
कोसा। परन्तु हनुमान द्वारा
महान देवकार्य संपन्न होना
था यह सोचकर शिवजीने अंजनाको
कई वर देते हुए हनुमानको
चिरंजीवी बना दिया,
तथा
देवताओंके कई अस्त्र दिये।
स्वयं ब्रह्माने आकर अंजनाको
वरदान दिया कि जिस शेषाद्रि पर्वत पर तुमने तपस्या की वह
अंजनाद्रि के नामसे विख्यात
होगा। इस प्रकार प्रसन्न मनसे
पुत्र हनुमानको साथ लेकर अंजना
अपने घर लौट गई।
स्कंद
पुराण की कथा
स्कंद
पुराण का वर्णन भी कई अंशों
में भविष्यपुराण तथा ब्रह्माण्ड
पुराण के वर्णन से मेल खाता
है।
एक
बार संतति प्राप्ति के हेतु
अंजना घोर तपस्या कर रही थी।तब
श्री विष्णू के परम भक्त मातंग
ऋषि उसके पास पहुँचे और तपस्या
का कारण पूछा।अंजना ने बताया
हे महर्षि,
मेरे
पिता ने शिव की भक्ति करते हुए
पुत्र पाने के लिये कई प्रकार
से व्रत और साधना की। तब शिवजी
ने उसे दर्शन देकर बताया कि
उसके भाग्य में पुत्रप्राप्ति
नहीं है परन्तु मुझ पुत्री
का पुत्र अर्थात नाति का सुख
उन्हें मिलेगा। यथासमय मेरा
विवाह केसरी नामक वानर जाती
के प्रमुख से हुआ परन्तु मैं
भी निःसंतान रही। इसी कारण
मैं ये सारे कठिण व्रत कर रही
हुँ।मैं विशाखा व कार्तिक
नक्षत्र पर आकाशगंगा का स्नान
करती हुँ,चातुर्मास
के व्रत करती हूँ,
दान
दक्षिणा में वस्त्र,
गौ,
खाना,
जमीन
इत्यादि देती हूँ। फिर भी मेरी
तपस्या अबतक फलीभूत नही हुई।
कृपया मुझे राह दिखायें।
महर्षि
ने कहा पुत्री अंजना,
मैं
तुम्हें उपाय बताता हूँ। इस
स्थान से दक्षिण दिशा में दस
योजन दूर भगवान नरसिंह का
धर्मस्थल है जिसे घनाचलम्
कहा जाता है।उसी के आगे प्रसन्न
करने वाला ब्रह्मतीर्थम् है।
इसके पूर्व दिशामें दस योजन
पर स्वर्णमुखी नदी बहती है
और नदी के उत्तर में वृषभाचलम्
पर्वत पर स्वामी पुष्करिणी
नामक सरोवर है।चारों और सुंदर
वन प्रदेश है जहाँ सिंह,
बाघ,
भेडिये,
हरिण
आदि पशु हैं,
सुगन्धी
वनस्पतियाँ हैं,
जामुन,
कटहल,
चंदन,
नीम,
पीपल
आदि वृक्षों से यह अंगल संपन्न
है। वहाँ विधिवत् सरोवर स्नान
करके प्रपात के सम्मुख वायुदेव
की आराधना करो। फिर तुम्हें
ऐसा बलवान पुत्र प्राप्त होगा
जो राक्षसों,
दैत्यों,
देवताओं
या अस्त्र शस्त्रों से अपराजेय
रहेगा।
इन
बातों से आनंदित होकर अंजना
ने महर्षि को प्रणाम किया और
पति सहित उस स्थान को चल पडी।
विधिवत् आचरण करते हुए हजार
वर्ण बीताये। तब वायुदेव ने
प्रसन्न होकर उससे वर माँगने
को कहा। अंजना की इच्छा जानकर
वायुने कहा कि वह स्वयं अंजना
के पुत्ररुप में जन्म लेगा,
जब
सूर्य मेष राशि में हो,
चैत्र
मास की पैर्णिमा है।
इस
प्रकार अंजना को पुत्रप्राप्ति
हुई। उसके तपके कारण इस पर्वत
का नाम अंजनाद्रि हुआ।
-------------------------------------------------------------------------------------
पराशरसंहिता
पराशर संहितासे
पराशरसंहिता
पराशर संहितासे
हनुमान के
जन्म व जन्मस्थली संबंधी सविस्तृत जानकारी पराशर संहिता में मिलती है। आज के समय
में अवतार की बात पर कोई विश्वास नही करेगा लोकिन बडे महात्मा और सिद्ध पुरूष
अवतार ही होते हैं। हनुमान भी अवतार थे और उनके जन्मकाल की घटनाओंको समग्रता से जानना होगा। क्योंकि इस पुरातन घटना की कई कथाँए आजतक कही
सुनी जाती हैं।
आजका समय
श्व्रेतवराहकल्प कहलाता हैं। हजारों
वर्षों पूर्व राधान्तरकल्प में एक ब्राह्मण कश्यप और उसकी पत्नी साध्या निःसंतान होने से दुखी होकर कैलास
पहुँचे और शिवको प्रसन्न करने के लिये
घोर तप करने लगे। कश्यप की तपस्या इतनी उग्र थी कि वर्षा के दिनों में वह नदी में कण्ठतक डूबकर और ग्रीष्म ऋतुमें सूरज की धूप में आगका एक चक्र
जलाकर उसके बीचमें खडा होकर तप करता था। तब शिवजी ने वायु और अग्नि देवतासे
ब्राहमण की सहायता करने कहा।
शिवजीकी इच्छा जावकर दोंनोंने ब्राहमण
किशोरें का रूप धारण किया और कश्यप की सेवा करने लगे। वे उसके लिये फल , फुल , पानी, हवन की लकडियाँ
आदि लाने लगे। शिवजी भी कश्यप की तपस्या से प्रसन्न हुए। ब्राहमण दंपति को दर्शन
देकर वरदान माँगने को कहाँ। कश्यप ने
स्वयं शिवको पुत्र रूप में पानेकी इच्छा बताई। शिव ने इसे स्वीकार किया साथही
अग्नि व वायु के लिये भी आशीर्वचन कहे।
इन्हीं दिनों
गर्दभनिस्वन नामक एक दैत्य ने भी शिवकी भारी तपस्या करके कई वरदान प्राप्त किये और वह बहुत शक्तिशाली हो गया। वह
देवताओंको पराजित कर उन्हें कष्ट देने लगा तब सारे देवता ब्रह्मा को साथ लेकर शिवके पास आये और उस दैत्य को मारने का उपाय
पूछा। शिवने कहा कि उन्होंने स्वयं इस दैत्य को वरदान दिये हैं। और उसे मारेंगे
नही । इसपर देवतागण विष्णु के पास पहुँचे तो विष्णुने दैत्यको मारने की
घोषणा कर डाली । इस पर क्षुब्ध होकर
शिवने कहा कि उनके वरदान प्राप्त
दैत्यवत्रे मारना संभव नही हैं, यदि विष्णुने यह कर दिखाया तो वे विष्णुके अनुगामी बनकर रहेंगे। इसपर विष्णुने भी घोषणा की कि यदि दैत्यको मारने में विफल रहे तो वे
शिवके अनुगामी बनेंगे।
तब विष्णुने पुनः एकबार मोहिनीका रूप धारण किया
और सुगंधी मदिरा का चषक लेकर दैत्यके उपवन में पहुँचे । दैत्यके सेवकों ने उस सुंदर नारी को देखा तो यह समाचार
दैत्योको सुनाते हुए उसे मोहिनीसे मिलने की और उससे विवाह करने की राय दी ।
गर्दर्भानस्वान मोहिनीके पास पहुँचा और
उसे बलपूर्वक पकडना चाहा। तब मोहिनीने
कहा कि हे दैत्य मैं तो
तुम्हारे लिये ही आई हूँ। तुम इस मदिरा
को पी लो और फिर मेरे साथ प्रणय करना।
दैत्य मदिरा पीकर मदसे बेसूध हो गया। तब मोहिनीने अपना रूप त्यागकर एक सियार का
रूप ले लिया और दैत्यका पेट फाडकर उसे यमलोक पहुँचा दिया।
यह देखकर
शिवने विष्णुका अनुगत होना स्वीकार कर लिया। विष्णुने कहा हे ईश, आप और मैं दोनों ही इस सृष्टी के भलाई के लिये कार्यरत हैं। त्रेतायुग में मैं
अवतार लेकर दैत्योंका विनाश करने वाला हूँ। तब आप भी अवतार लेना, मुझसे मित्रता
करना और अनुगत बनकर मेरे कार्य को संपन्न
करवाना। वाकई, हम
दोनों में यदि कोई भेद मानता हो तो वह पाप ही करता है, परन्तु जो हरि
और हर को अभेद मानता है वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
आगे चलकर
त्रेता युग में फिर एक बार दैत्यों का प्रादुर्भाव होता है। उनके अत्याचार से त्रस्त देवता शिव और ब्रह्मा को
साथ लेकर बद्रिकावन में जाते है जहाँ नर और नारायण ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे।
देवतागण नारायण अर्थात विष्णुसे दैत्यों
का विनाश करने की प्रार्थना करते हैं। तब
विष्णुने सभी देवताओंकों की शक्तियोंसे एक- एक शक्तिपुंज
लेकर और अपनी शक्ती भी मिलाकर
शिवको सौंप दी । शिवने उस शक्ति को
अपने में समाहित कर लिया। तब नारायने देवताओं को आश्वस्त किया कि इस शक्ति के साथ
शिव जो अवतार लेंगे वह दैत्यों का संहारक
होगा।
कालान्तर
से शिव तथा पार्वती वेंकटाचलम् पर्वत पर
विहार के लिये पहुँचते है। एक
वृक्ष के नीचे विश्राम करते हुए वे
क्रिडामग्न वानरों को देखते हैं। तो स्वयं भी वानररूप धारण कर क्रिडा करने
लगते हैं। तब शिव अपने उस शक्तिपुंजको पार्वती के गर्भ नें डालते हैं। परन्तु पार्वती उस
शक्तिपुंजको सह नही पाती हैं। तो उसे अग्नि देव को सौंप देती है। अग्नि उसे
वायु को सौंपता
है।
इन्हीं
दिनों शिवको पुत्ररूपमें पाने की इच्छा
रखनेवाला ब्राह्मण कश्यप वानरराज केसरी रूप में जन्म लेता हैं। उसका राज्य
सुपर्व गिरी नामक पर्वत के शिखर पर होता
है। उनके पास कुछ ऋषि आते है। ऋषि वानरराज से प्रार्थना करते हैं कि वह इन दैत्यों
का संहार करे। तब केसरी ने दोनों दैत्यों को मार डाला साथ ही शंभसाधन नामक एक अन्य दैत्यको भी मार डाला। इसपर प्रसन्न
होकर ऋषियोंने उसके विवाह के लिये एक उचित ढूँढने का आश्वासन दिया।
इसके कुछ
पूर्व कुज्जर तथा उसकी पत्नी विन्ध्यावली
को ब्रहमा के कृपाप्रसादसे एक
पुत्री संतान प्राप्त हुई , उसका नाम
अंजना रखा गया। वह अब
विवाहयोग्य हो गई थी।
देवताओंमे और ऋषियोंने उसका विवाह केसरी
के साथ संपन्न करवाया। परन्तु कई
वर्षो तक केसरी और अंजना भी निःसंतान रहे। फिर अंजना ने घोर तपस्या करी जिससें
प्रसन्न होकर वायुने उसे प्रतिदिन फल देना आरंभ किया । एक दिन शिवके शक्तिपुंजको
फल में रखकर अंदनाको दिया जिससे उसे गर्भ रहा। अंजना दुखी हो गई परन्तु
एक आकाशवाणीने उसे समझाया कि इसने कोई पाप नही किया है। वरन उसपर दैवी कृपा हुई हैं। उसे एक पुत्र प्राप्त होगा
जो विश्वमें प्रसिद्ध रहेगा।
यथासमय
अंजनाने मध्याहनकालमें एक स्वास्थ सुंदर
बालको जन्म दिया। वह शनिवार का दिन था, वैशाख मास
था , पूर्वभाद्रपदा
नक्षत्र , और
वैधृति योग तथा कृष्ण पक्षकी दशमी चल रही
थी। बालक का शरीर तेजःपुंज था। उसने
माणिक्य जडित कर्णभूषण और सुनहरा जनेऊ धारण कर रखा था। वह जन्मतः ही वेदवेदांग
का पण्डित और समस्त विद्याओं में विशारद
था। उसने दिव्य लंगोट पहन रखी थी और वह
ध्वज , व्रज, अंकुश , छत्र, तथा पद्यरेखा
से युक्त था। वह सर्व शुभ लक्षणों से
संपन्न और सुवर्ण -किरीट
धारी था। वह विष्णु के अवतार का प्रिय करने आया था ।
इस प्रकार पराशर
संहिता सें भी स्पष्ट रूप से वेंकटाचल पर्वत
पर स्थित अंजनाद्रि की ही हनुमान जन्मस्थली बताया गया है।
---------------------------------------------------------------------
जाबालीतीर्थम्
कालान्तर में
जिस जगह अंजना ने तपस्या की थी उसी स्थानपर महर्षि जाबाली ने भी घोर तपस्या की।
अतः वह स्थान जाबाली या जापाली कहलाया। जाबाली भी दशरथ के पुरोहित थे और ब्रहमर्षि वशिष्ठ के साथ राजा को सलाह देते थे । स्कंदपुराण में वर्णन हैं कि किस
प्रकार नैमिषारण्य एकत्रित हुए ऋषियों के
सूतुपुत्र ने जाबालि के
स्थान माहात्म की कथा सुनाई ।
एक समय कावेरी नदी के तट पर दुराचार नामक एक दुर्दुद्धि
ब्राह्मण रहता था। वह पाप कर्मों में लिप्त, ब्राह्मण-हत्या तथा लूट करने वाला तथा
मदिरा व स्त्रीगामी था। उसके पापकर्मों के कारण उसका ब्राह्मणत्व छीन लिया गया। इस
प्रकार वह पापी दुराचार एक पिशाच के वशीभूत हो गया और देशाटन पर निकष गया। परन्तु अपने
पूर्व सुकृतों के कारण वह वेंकटाचलम् पर्वत
पर पहुँच गया। वहाँ पिशाचने उसे जाबाली स्थान के झरने में डुबाया परन्तु
मार न सका। झरने के स्नान से दुराचार के पापकर्म धुल गये। वह स्वस्थचित्त और
सुबुद्ध होकर सोचने लगा कि कैसे वह अपने कावेरी तट पर स्थित घरसे इतनी दूर इस
पर्वत पर पहुँचा। तभी उसे जाबाली ऋषी के दर्शन हुए। उसके पूछने पर जाबाली ने बताया
हे दुराचार, तुमने अपने पापकर्मों के कारण ब्राह्मणत्व खो दिया था और एक पिशाच के
वशीभूत हो गये थे जिसके प्रभाव में पडकर तुम यहाँ तक आये। यहाँ तुम्हें मारने की
इच्छा से पिशाचने तुम्हें इस पवित्र झरने में डुबाया। परन्तु यह जल इतना पवित्र है
कि उसमें तुम्हारे पापकर्म धुल गये। पिशाच ने भी इसी जल में डुबकी लगाई जिसके
पुण्य फलस्वरुप वह भी अपनी पिशाच योनी से मुक्त होकर विष्णुलोक चला गया। उसने कभी
अपने पितरों की पिण्डोदक क्रिया नही की थी जिस कारण उसे पिशीच योनी लेनी पडी।
परन्तु इस पवित्र झरने में स्नान करने से वह भी पापमुक्त हो गया है। तुम्हें भी
मुक्ति मिल गई है और अब तुम भी विष्णुलोक के अधिकारी हो। यह कथा बताती है कि
जाबाली सरोवर के स्नान से बडे बडे पापकर्म भी धुल जाते हैं।
------------------------------------------------------------------------------
ऋणनिर्देश
ऋणनिर्देश
मराठी
ऋणनिर्देश
भगवान श्री हनुमानकी महत्कृपासे मुझे पराशरसंहिताकी प्राचीन हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई, उसे पढनेका सुअवसर मिला और उसमें वर्णित हनुमान-इतिहास के संशोधनपर मैंने अपना विद्यावर्धिनी (डॉक्टरेट) प्रबंध पूर्ण किया जिसके लिये ----- विश्वविद्यालयने डॉक्टरेेेट प्रदान की। महर्षि पराशर द्वारा वर्णित इतिहासके प्रतीक-चिह्नों और उसीके पूरक ब्रह्माण्डपुराण, स्कंदपुराण व अन्य ग्रंथोंके आधारपर मैंने हनुमान-जन्मस्थली-- अंजनाद्रि शीर्षकसे पुस्कत लिखी। यह दुर्भाग्य है कि अपने देशमें आज भी हनुमान जन्मस्थली के विषयमें लोगोंमें अज्ञान ही है। प्रभु हनुमानके कृपाशिर्वादसे मैंने यह उत्तरदायित्व स्वीकारा है कि इस पुण्यभूमि अंजनाद्रिके संबंधमें लोक-जागरण करूँ ताकि भक्तगण लाभान्वित हों। इसी उद्देश्यसे एक वेबसाईट बना रहा हूँ जो पूर्णतः इसी विषय को समर्पित होगी। मेरा सौभाग्य है कि इस घटनाक्रममें मेरा परिचय श्री वी. रामनारायण से हुआ जो वैज्ञानिक होनेके साथ साथ उत्तम भाषाज्ञान भी रखते हैं। उन्होंने मेरी तेलुगु पुस्तकका अंगरेजीमें अनुवाद किया और यह भार भी लिया कि पुस्तकका सभी भारतीय भाषाओंमें अनुवाद होनेके लिये वे सहायक होंगे। वर्तमान में पुस्तकका हिंदी भाषांतर श्रीमति लीना मेहेंदळे (निवृत्त आई ए एस) ने किया है। मैं इन दोनोंका हृदयसे आभारी हूँ। सभी हनुमान-भक्तोंसे आग्रह है कि वे इस पुस्तकको पढें, मनन करें, हनुमान-भक्ति व हनुमान-जन्मस्थलीकी महिमा चहुँ ओर फैलायें और हनुमानजी का कृपाशिर्वाद प्राप्त करें।
------------------------------ --------------------------
summary --Marathi
हनुमान
जन्मस्थलम्
सारांश
प्राचीन
भारताच्या
इतिहासात
व
वाङ्मयात
श्री
हनुमानाचे
स्थान
अनन्य
आहे.
तरीही
हनुमानाच्या
जन्मस्थळी
विषयी
फारशी
माहिती
नव्हती.
मूळ
हस्तलिखित
प्रति
किंवा
इतर
ग्रंथ
सहजतेने
उपलब्ध
होत
नसल्याने
कोणते
ही
प्रभावी
शोधकाम
होऊ
शकलेले
नाव्हते.
काही
पंडित,
इतिहासविद्
किंवा
विद्वानांची मते
यदा-कदा
प्रचलनात
येऊन
गेली
पण
त्यातील
प्रत्येकाने
हनुमानाची
जन्मस्थळी
वेगवेगळ्या
ठिकाणी
सांगितली.
एकतर
त्यांनी
संबंधित
भूगोलाचा
पुरेसा
मागोवा
घेतला
नाही
किंवा
नव्या
व
जुन्या
नावांचा
संदर्भ योग्य
तऱ्हेने
लावला
नाही
किंवा
थोडक्या
मुद्यांच्याच
आधारे
निष्कर्ष
काढले.
त्यामुळे
या
प्रश्नाची
समग्रता
व
अचूक
उत्तर
त्यांना
सापडले
नाही.
श्रीमद
वाल्मिकी
रामायणात
असे
वर्णन
आहे
कि
माता
अंजनाच्या
गर्भातून
भगवान्
अंजनेयाचा
जन्म
एका
गुहेत
झाला.
S.C.
Dery हे
इतिहासज्ञ
त्याच्या
The
Histrory of Ramayan या
ग्रंथात
लिहितात
कि
अंजनेयाचा
जन्म
ऋष्यमूक
पर्वतावर
झाला
होता.
दुसरे
विद्वान
K.C.
Aryan लिहितात
कि
हनुमानाच्या
जन्मस्थळाविषयी
कांहीही
ठामपणे
सांगणे
कठिण
आहे.
मध्यप्रदेशातील
आदिवासींची
मान्यता
आहे
कि
हनुमानाचा
जन्म
रांची
जिल्ह्यातील
अंजन
या
गावी
झाला
होता.
कर्नाटकात
तर
हनुमानाला
तिथलेच
भूमिपुत्र
मानतात.
तरी पण
या
ठिकाणी
मांडत
असलेल्या
पुराव्यावरून
हे
निःसंशय
सिद्ध
होते
कि
हनुमानाचा
जन्म
अंजनाद्रि
पर्वतावर
झाला.
डॉ
अन्नदानम्
चिदंबरशास्त्री
यांनी
त्यांच्या
मौलिक
संशोधन
व
अथक
परिश्रमातून
हे
सिद्ध
केले
आहे.
त्यांनी
कित्येक
दशकाच्या
शोधातून
अनेक
शोधनिबंध
लिहिले.
त्यांच्या
आधारे
व
विषेशतः
पराशर
संहितेच्या
हस्तलिखित
प्रतीवरून
हा
निष्कर्ष
काढला.
म्हणून
आता
आपणा
सर्वांचे
कर्तव्य
आहे
कि
पूर्ण
श्रद्धेने
एकत्रित
येऊन
श्री
हनुमानाचे
जन्मस्थळ
व
त्यासोबत
हुमानाच्या
जीवनातील
इतरही
महत्वाच्या
स्थानांचा
विकास
घडवून
आणावा
आणि
हनुमानाच्या
पराक्रमगाथेचे
उत्सव
करावेत.
ही
श्रद्धा
आपल्याला
मोक्षाप्रत
नेईल,
निदान
काही
पुण्य
व
सद्गति
आपल्या गाठीला
नक्कीच
जोडले
जाईल
आणि
तेच
आपले
पथप्रदर्शन
करेल.
मूळकथ्य
या
विश्वाचा
नियंता
जो
सर्वत्र
आहे,
सर्वज्ञ
आहे,
सर्वशक्तिमान
आहे,
आणि
ज्याला
ब्रह्म
असे
म्हटले
जाते
तो
या
भूतलावर
विविध
रूपात
अवतार
घेऊन
आपल्याला
आठवण
करून
देत
असतो
कि
संपूर्ण
सृष्टिला
चालवणाऱ्या
त्या
परमेश्वराकडे
आपल्या
प्रत्येकाच्या
भल्या
व
बुऱ्या
कर्मांचा
लेखाजोखा
आहे.
त्याने
जिथे
अवतार
घेतला
ते
स्थळ
स्वयमेव
पुण्यभूमी
बनून
जाते.
परमेश्वराच्या
प्रत्येक
अवताराचे
एक
निश्चित
उद्दिष्ट
असून
त्यामागे
एक
निश्चित
अशी
योजना
असते.
प्राचीन
अयोध्यानगरी
ही
रामजन्मामुळे
पुण्यभूमी
बनली.
श्रीराम
हे
भारतीयांच्या
न्यायबुद्धि
व
धर्माचरणाचे
मूर्तिमंत
रूप
होत.
त्यांच्या
भूमीत
रहाणारे
अयोध्यावासी
आपला
सौभाग्याचा
गर्वपूर्वक
अभिमान
बाळगतात
यात
नवल
ते
कांय
?
मात्र
योग्य
माहितीच्या
अभावी
तसे
सौभाघ्य
व
गर्व
परम
रामभक्त
श्री
हनुमान
यांच्या
जन्मस्थळीला
लाभले
नाही. ती लाभावी यासाठी
तिरूमल
पर्वतरांगेतील
अंजनाद्रि
पर्वत
हेच
ते
स्थान
असे
सिद्ध
करणारी
सर्व
तथ्यात्मक
माहिती
सर्वापर्यंत
पोचवणे
हाच
आमचा
उद्देश
आहे.
श्री हुनुमान विषयक तथ्थ आपल्याला
बृहत्
पराशर
संहिता
या
ग्रंथात
सापडतात.
पण
या
हस्त
लिखित
ग्रंथाची जीर्ण-शीर्ण
अवस्थेतील
पाण्डुलिपी देशभरात
इथे
तिथे
विखुरलेली
होती.
कित्येक
दशके
त्यांचा
शोध
घेऊन
माझे
पिता
श्री
अन्नदानम्
चिदंबरशास्त्री
यांनी
गुरूआज्ञेने
तो
ग्रंथ
एकत्रित
केला आणि
प्रकाशात
आणला.
अशा
प्रकारे
अंजनाद्रि
पर्वताची
महत्ताही
त्यांना
सर्वांपर्यंत
पोचवली.
त्यासाठी
त्यांनी
कित्येक
पंडितांची
व
पौर्वात्य
ग्रंथालयांची
मदत
घेतली,
पुस्तकाची
पाने
संकलित
केली
व
अन्ततः
हे
पुस्तक सर्वप्रथम
तेलगू
मधे
आणले.
त्यांनी
हे
काम
माझा
जन्म
होण्याच्या
कितीतरी
आधीच
आरंभ
केले
व
माझ्या
किशोरावस्थेपर्यंत
हे
काम
चालले.
या
काळांत
अंजनाद्रि
पर्वतच
हनुमानाची
जन्मस्थळी
असल्याबद्दल
त्यांना
पुष्कळ
पुरावे
मिळाले.
याच
विषयावरील
त्यांच्या
शोधग्रंथासाठी
आंध्र
विद्यापीठाने
डॉक्टरेट
प्रदान
केली.
त्या
काळी
अंजनाद्रिच्या
महत्वाबद्दल
सगळेच
अनभिज्ञ
होते.
इथले
हनुमान
मंदिर
जीर्ण
झालेले
होते
आणि
भक्तही
क्वचितच
येत
असत.
परम्परेनुसार
हरीराम
मठाकडून
ज्या
अर्चकाची
नियुक्ति
मंदिरासाठी
झाली
होती
त्या
अर्चकाला
देखील
मंदिराचे
महत्व
ठाऊक
नव्हते.
डॉ
शास्त्रींनी
या
स्थानाला
पुनः
महत्व
प्राप्त
करून
देण्याचा
संकल्प
सोडला.
त्यांनी
तिरीमल
तिरूपति
देवस्थानाबरोबर
पत्रव्यवहार
केला,
आणि
प्रत्येक
हनुमानभक्ताला
अंजनाद्रिचे
महत्व
कळावे
या
साठी
भाषणातूनही
प्रचार केला. प्रत्येक भक्ताने हनुमद्दिक्षा या ग्रंथात वर्णन केलेले व्रत पूर्ण करून त्याचे उद्यापन अंजनाद्रिवर करावे असे सांगितले.
त्यांच्या
प्रेरणेने
खरोखरच कित्येक
भक्तांनी
हनुमद्दिक्षा
ग्रंथातील
सांगितल्याप्रमाणे
व्रत केले
व अंजनाद्रिच्या
हनुमान मंदिरात
श्रद्धासुमने
अर्पित केली.
डॉ शास्त्रींच्या
प्रयत्नातून
अंजनाद्रिच्या
जुन्या मंदिरात
भक्तांची
संख्या वाढू
लागल्यावर
अधिकाऱ्यांंना
देखील त्याची
दखल घ्यावी
लागली. श्री
विनायकराव
हे कार्यकारी
अधिकारी
असतांना
त्यांनी
पुढाकार घेऊन मंदिराचा
जीर्णोद्धार
करवला .
तिथून
पुढे भक्तांची
संख्या वाढतच
गेली.
उत्सवाच्या
दिवशी ही
संख्या अधिकच
वाढते.
तरी
पण अजूनही
इथे काही
मुलभूत सुविधा
पोचलेल्या
नाहीत. निवास,
पुरेशी
स्वच्छतागृहे
आणि प्रवासाच्या
सोई असायला
हव्यात.
ते
झाले आणि
या धर्मस्थळाचा
पवित्र विकास
झाला तर
श्री वेंकटेश्वराचे
दर्शनार्थी
भक्तगण
अंजनाद्रि
पर्वतावर
पण येऊ
लागतील आणि
या हनुमान
जन्मस्थळाला
आजपर्यंत
अप्राप्त
राहिलेले
महत्व मिळेल.
याचसाठी
आपल्या
सर्वांकडे
विनम्र निवेदन
आहे कि
आपल्या
मित्रपरिवारासह
अंजनाद्रि
मंदिरात यावे,
आमच्या
प्रर्थनापत्रावरहस्तक्षर
नोंदवावे,
आमचे
ग्रंथ खरेदी
करावेत आणि
आणि मंदिराची
कीर्ति सर्वत्र
पोचवावी. अधिक
माहितीसाठी
आमचे संकेत
स्थळाला
भेट द्यावी.
रामभक्त
हनुमानाची
कृपा सदैव
आपल्यावर
राहो.
-- हनुमद्भक्त
एवीएनजी हनुमान
प्रसाद
|| श्रीरामो विजयते ||-------------------------------------------
भगवान श्री हनुमानाच्या महत्कृपेने मला पराशरसंहितेची प्राचीन हस्तलिखित प्रत प्राप्त झाली, तिचे पारायण करण्याचा सुअवसर मिळाला आणि त्यात वर्णित हनुमान-इतिहासाच्या संशोधनपर ग्रंथावर मी माझा विद्यावर्धिनी (डॉक्टरेट) प्रबंध पूर्ण केला. यासाठी आंध्र विश्वविद्यालयने डॉक्टरेेेट प्रदान केली.
महर्षि पराशर द्वारा वर्णित इतिहासाची प्रतीक-चिह्ने आणि त्याला पूरक पूरक ब्रह्माण्डपुराण, स्कंदपुराण व अन्य ग्रंथांच्या आधारे मी हनुमान-जन्मस्थली-- अंजनाद्रि या शीर्षकाचे पुस्कत लिहिले. आपल्या देशाचे दुर्भाग्य हे कि इथे आजही हनुमान जन्मस्थळी बाबत लोकात अज्ञानच आहे. प्रभु हनुमानाच्या कृपाशिर्वादाने मी ही जबाबदारी स्वीकारली आहे कि या पुण्यभूमि अंजनाद्रि विषयी लोक-जागरण करावे जेणेकरून भक्तजन लाभान्वित व्हावेत. याच उद्देश्याने एक वेबसाईट बनवत आहे जी पूर्णतः याच विषयाला समर्पित असेल. माझे सौभाग्य असे कि या घटनाक्रमात माझा परिचय श्री वी. रामनारायण यांच्याशी झाला. ते वैज्ञानिक आहेत पण त्याचबरोबर त्यांना उत्तम भाषाज्ञान आहे. त्यांनी माझ्या तेलुगु पुस्तकाचा इंग्रजी अनुवाद केला आणि पुस्तकाचे सर्व भारतीय भाषांमधे अनुवाद होण्याला सहाय्य करीन हा भारही उचलला. सांप्रत पुस्तकाचे हिंदी व मराठी भाषांतर श्रीमति लीना मेहेंदळे (निवृत्त आय ए एस) यांनी केले आहे. इतरही भाषांमधे काम सुरू आहे. मी या दोघांचा मनापासून आभारी आहे. सर्व हनुमान-भक्तांना आग्रह आहे कि त्यांनी या पुस्तकाचे वाचन, मनन करावे, हनुमान-भक्ति व हनुमान-जन्मस्थळीचा महिमा चारी दिशांना पोचवावा आणि हनुमानाचे कृपाशिर्वाद प्राप्त करून घ्यावेत.
महर्षि पराशर द्वारा वर्णित इतिहासाची प्रतीक-चिह्ने आणि त्याला पूरक पूरक ब्रह्माण्डपुराण, स्कंदपुराण व अन्य ग्रंथांच्या आधारे मी हनुमान-जन्मस्थली-- अंजनाद्रि या शीर्षकाचे पुस्कत लिहिले. आपल्या देशाचे दुर्भाग्य हे कि इथे आजही हनुमान जन्मस्थळी बाबत लोकात अज्ञानच आहे. प्रभु हनुमानाच्या कृपाशिर्वादाने मी ही जबाबदारी स्वीकारली आहे कि या पुण्यभूमि अंजनाद्रि विषयी लोक-जागरण करावे जेणेकरून भक्तजन लाभान्वित व्हावेत. याच उद्देश्याने एक वेबसाईट बनवत आहे जी पूर्णतः याच विषयाला समर्पित असेल. माझे सौभाग्य असे कि या घटनाक्रमात माझा परिचय श्री वी. रामनारायण यांच्याशी झाला. ते वैज्ञानिक आहेत पण त्याचबरोबर त्यांना उत्तम भाषाज्ञान आहे. त्यांनी माझ्या तेलुगु पुस्तकाचा इंग्रजी अनुवाद केला आणि पुस्तकाचे सर्व भारतीय भाषांमधे अनुवाद होण्याला सहाय्य करीन हा भारही उचलला. सांप्रत पुस्तकाचे हिंदी व मराठी भाषांतर श्रीमति लीना मेहेंदळे (निवृत्त आय ए एस) यांनी केले आहे. इतरही भाषांमधे काम सुरू आहे. मी या दोघांचा मनापासून आभारी आहे. सर्व हनुमान-भक्तांना आग्रह आहे कि त्यांनी या पुस्तकाचे वाचन, मनन करावे, हनुमान-भक्ति व हनुमान-जन्मस्थळीचा महिमा चारी दिशांना पोचवावा आणि हनुमानाचे कृपाशिर्वाद प्राप्त करून घ्यावेत.
------------------------------ -------------------------
मराठी
हनुमत्
कथा
भविष्य
पुराणातील संदर्भ
हनुमाना़च्या
जन्मस्थळी विषयी काही संदर्भ
भविष्यपुराणात मिळतात वेंकटाचलम्
माहत्म्यम् या पुस्तकाच्या
पहिल्या अध्यायात भविष्यपुराणातील
एक कथा आहे.
राजा
जनकाने प्रश्न विच्यारल्यावरून
शतानन्द ऋषिंनी अंजनाद्रि
पर्वताचे नाव कसे पडले ती कथा
सांगितली.
एकदा
राजा केसरीची सुंदरी पत्नी
अंजनी ऋषीच्या आश्रमात आली
आणि ऋषींसमोर आपले निःसंतान
होण्याचे दु.ख
सांगितले -
हेच
माझे विधीलिखीत आहे काय
ऋषीनीं
तिला धीर दिला व उपाय सांगितला
--
इथून
पन्नास योजन दूर सरोवर आहे
तिथे महर्षी नरसिंहाचा
नरसिंहाश्रम आहे.
त्याच्या
दक्षिण दिशेला नारायणाचल
पर्वत-शिखरावर
पवित्र स्वामीतिर्थ आहे.
त्याच्या
दक्षिणेकडे एक कोस तुला आकाशगंगा
नावाचा जलप्रपात दिसेल.
त्या
आकाशगंगेत स्नान
करून १२ वर्षे उग्र
तपस्या केल्यावर तुला सर्व
सदगुणांनी युक्त
संतति
प्राप्त होईल
राणी
अंजनीने ऋषिंच्या निर्देशानुसार
पूर्ण
श्रद्धने तपस्या केली.
तिने
आकाशगंगेच्या
प्रपातात स्नान करुन तिथल्या
पिंपळाला प्रदक्षिणा घातल्या
व प्रपाताचे अधिष्ठान
भगवान वराह यांचे पूजन केले.
मग
पतीची अनुमती घेऊन तिने उग्र
तपस्या आरंभिली.
अल्पाहार
आणि निराहाराचा अवलंब करुन
आपले शरीर कृश करून टाकले.
ती
निव्वळ वायुसेवन करून राहू
लागल्यावर तिला वायुदेवाचे
सहाय्य लाभले.
वायुदेव
तिला दररोज एक दिव्य फळ खायला
देत असे.
एके
दिवशी वायुदेवाने आपले शुक्रबीज
फळात घालून दिले.
त्यातून
तिला गर्भ राहून पुत्र प्राप्ति
झाली.
त्याला
ऋषींनी हनुमान असे नाव दिले.
या
प्रमाणे अंजनी-
घोर
तपस्येचा साक्षी असलेल्या
या पर्वताला अंजनाद्रि असे
नाव पडले.
ब्रम्हाण्ड
पुराणाचे
संदर्भ
ब्रम्हाण्ड
पुराणाच्या तीर्थस्कंध नामक
पाचव्या अध्यायात अंजनाद्रि
पर्वत व त्याचा हनुमान जन्माशी
संबंध सांगितलेला आहे.
ही
कथा देखील भविष्यपुराणाच्या
वर्णनाची पुष्टी करते.
देवर्षि
नारदांनी भृगु त्रृषींशी
चर्चा करताना अंजनेयाच्या
जन्माची कथा सांगितली.
त्रेता
युगातील एक दैत्य केसरी याने
निःसंतान असल्याने शंकराची
घोर तपस्या केली.
व्रतस्थ
राहून त्याने पंचाक्षर मंत्राचे
कोटी-
कोटी
पठन केले व शंकराला प्रसन्न
करुन घेतले.
त्याने
शंकराकडे एक महाबली व महाबुद्धिवान
पुत्र मागितला.
शंकराने
सांगितले कि ब्रम्हदेवाने
तुला पुत्रप्राप्ती नाही अस
लिहून ठेवले आहे,
पण
मी तुला
एका
कन्येचा आशिर्वाद देतो जिच्या
पोटी अति महाबली पुत्र जन्माला
येईल.
अशा
प्रकारे पुत्रीच्या मार्फत
तुझी मनोकामना पुर्ण होईल.
यावर
हर्षित मनाने केसरी घरी परतला.
लवकरच
त्याला एक मुलगी झाली जिचे
नाव अंजना असे ठेवले.
एकदा
केसरी याच नावाने ओळखली जाणारी
जी वानरजमात होती तिचा प्रमुख
दैत्याकडे आला व अंजनाला मागणी
घातली.
अशा
प्रकारे केसरी जातीत अंजनेचा
विवाह झाला.
पण
बराच काळ तिला संतति लाभली
नाही ती दुःखाने विचारु लागली
कि माझ्या वडिलांचा वर कधी
पूर्ण होणार .
तिने
कित्येक विद्वान ब्राम्हणांना
बोलावून दान दक्षिणा देऊन
विचारले कि पुत्रप्राप्तीसाठी
कोणकोणते व्रत करावे.
काही
काळानंतर तिला एक भटक्या
जमातीची स्त्री पुलकाशी भेटली.
पुलकाशीला
समुद्रविद्या अर्थात चेहरा
पाहुन भविष्य वर्तवण्याची
विद्या येत होती.
अंजनाने
पुलकाशीचा मोठा सन्मान करुन
तिला आपले दुःख सांगितले.
पुलकाशीने
तिला वेंकटाचलम पर्वतावर सात
हजार वर्षे तप करण्याचा सल्ला
दिला आणि अदृश्य झाली.
अंजनेला
पुलकाशीवर दृढ विश्वास निर्माण
झाला होता.
ती
आकाशगंगेच्या उगमावर म्हणजेच
वेंकटाचलमच्या शिखरावर पोचली
आणि तिने घोर तपस्या आरंभिली.
ती
केवळ वायुभक्षण करुन राहु
लागली.
कालान्तराने
वायुदेवाने प्रसन्न होऊन
तिला दररोज एक फळ देण्यास आरंभ
केला.
अंजनेच्या
तपस्येला सात हजार वर्षे पूर्ण
होत आली.
एकदा
शिव आणि पार्वती वेंकटाचलम
क्षेत्रामध्ये विहारासाठी
आले.
तिथले
सुंदर वन पाहुन पार्वतीच्या
मनात प्रणय उत्पन्न झाला.
तेव्हा
शंकर आणि पार्वती वानराचे
रुप धारण करुण प्रणय व विहार
करु लागले.
अशावेळी
शिवाचे वीर्यस्खलन झाल्याचे
पाहुन वायुदेवाने एका द्रोणात
ते धरुन ठेवले.
व
तेच फळात घालुन अंजनेला दिले.
अंजनेने
देखील रोजच्या प्रमाणे प्रसाद
समजून ते ग्रहण केले.
काही
दिवसांनी आपल्याला गर्भ राहिला
हे जाणून अंजना आश्चर्यात व
दुःखात पडली.
आपण
एखादे पाप केले आहे का असे
तिला वाटले.
तेवढ्यात
तिला सान्त्वना देत एक आकाशवाणी
झाली की हे अंजने,
त्रास
करून घेऊ नकोस,
तुझ्या
हातून पाप घडलेले नसून
ईश्वरेच्छेने तू गर्भवती
झालेली आहेस लौकरच जगताचे
त्राता श्री विष्णु रघुकुळांत
जन्म घेऊन रावणवध करतील.
त्या
प्रसंगी तुझ्या गर्भातून
जन्म घेणारा हा बलवान पुत्र
त्यांचे सहाय्य करील.
यावर
आनंदित होऊन अंजनाने पति आणि
पिता दोघांना ही वार्ता कळविली.
नऊ
महिने पूर्ण झाल्यावर श्रावण
मास सुरू असताना एका रविवारी
श्रावण नक्षत्रावर एका तेजस्वी
बालकाचा जन्म झाला.
तो
जन्मतःच लाल लंगोट,
कानांत
स्वर्णकुडले व अंगावर सोनरी
जानव्याने अलंकृत होता.
जन्मतःच
बालहनुमानाला ताव्र भूक लागली
आणि उगवत्या सूर्याबिम्बालाच
फळ समजून त्याने सूर्याच्या
दिशेने उड्डाण केले.
तेंव्हा
देवतांनी त्याच्यावर
ब्रह्मास्त्राचा प्रयोग करून
त्याला भूमिवर पाडले.
अंजना
दुःखी होऊन देवांना शाप द्यायला
निघाली.
पण
या बालकाकडून पुढे देवकार्य
संपन्न होणार आहे या विचाराने
भगवान शंकरानी अंजनेला कित्येक
वर देत हनुमानाला चिरंजिवी
होण्याचा आशीर्वाद दिला.
देवांनी
त्याला कित्येक अस्त्रांचे
ज्ञान दिले.
ब्रह्मदेवाने
देखील स्वतः येऊन अंजनेला
आशीर्वाद दिला कि ज्या शेषाद्रि
पर्वतावर तू पुत्रप्रातीसाठी
तपस्या केलीस तो इथून पुढे
अंजनाद्रि या नावाने ओळखला
जाईल.
अशा
प्रकारे प्रसन्न मनाने पुत्र
हनुमानाला बरोबर घेवून अंजना
आपल्या घरी परतली.
स्कंदपुराणातील
कथा
हनुमान
जन्माविषयी स्कंदपुराणातील
वर्णन देखील बऱ्याच अंशी
भविष्यपुराण आणि ब्रह्माण्डपुराणातील
वर्णना सारखेच आहे.
एकदा
संतातिप्रतिसाठी अंजना घोर
तपश्चर्या करीत होती.
तेव्हा
श्रीविष्णूंचे परम भक्त असलेले
मातंग ऋषि तिच्याकडे आले व
तिला तपस्येचे कारण विचारले.
अंजनाने
सांगितले हे महर्षि,
माझ्या
पित्याने पुत्र प्राप्तिसाठी
शंकराची उपासना करून कित्येक
प्रकारची व्रते आणि साधना
केली.
तेंव्हा
भगवान शंकराने दर्शन देऊन
पित्याला समजावले की त्याच्या
नशीबी पुत्रसंतति नाही,
पण
मुलीचा अर्थात माझा मुलगाच
त्यांना नातवंडाचे सुख देईल.
यथावकाश
माझा विवाह केसरी नामक
वानरजातीच्या प्रमुखाशी
झाला,
पण
मी देखील बराच काळ निःसंतानच
राहीले.
म्हणूनच
मी आता ही कठीण व्रते करीत
आहे.
मी
विशाखा आणि कार्तिक नक्षत्र
असतानाच्या थंडीत आकाशगंगेच्या
प्रवाहात स्नान करते,
चातुर्मासातील
कठिण व्रते करते.
दानदक्षिणेमधे
अन्न,
वस्त्र,
गाई,
जमीन
इत्यादि देते.
तरीपण
माझी तपस्या अद्यापि फलीभूत
झाली नाही.
आता
आपणच कृपावंत होऊन मला मार्ग
दाखवा.
महर्षि
मातंग म्हणाले हे मुली,
मी
तुला योग्य मार्ग सांगतो.
इथून
दक्षिणदिशेला दहा योजन अंतरावर
भगवान नरसिंहाचे धर्मस्थल
आहे,
त्याला
घनाचलम् म्हणतात.
त्याच्याच
अजून पुढे मन प्रसन्न करणार
ब्रह्मतीर्थम् आहे.
तिथून
दहा योजन पूर्वेकडे स्वर्णमुखी
नांवाची नदी वाहते.
नदीच्या
वृषभाचलम् पर्वतावर स्वामीपुष्करिणी
नामक सरोवर आहे.
चारी
दिशांना सुंदर वनप्रदेश आहे
जिथे सिंह,
वाघ,
लांडगे,
हरिण
इत्यादि वन्यपशू आहेत,
सुगन्धी
वनस्पति आहेत.
जांभुळ,
फणस,
नीम,
चंदन,
पिंपळ
आदिकरून वृक्षांनी हा वनप्रदेश
संपन्न आहे.
तिथेच
विधीवत् सरोवर स्नान करून
तिथल्या प्रपातासमोर वायुदेवतेची
आराधना कर.
या
योगे तुला असा बलवान पुत्र
लाभेल जो राक्षस,
दैत्य,
देव
तसेच अस्त्र शस्त्रांकडूनही
अपराजेय असेल.
यावर
अत्यंत आनंदित होत अंजनेने
महर्षींना प्रणाम केला आणि
पतिसमवेत त्या स्थानाकडे जाऊ
लागली.
विधिवत्
आचरण करीत ती आकाशगंगेच्या
प्रतापाशी जाऊन पोचली.
तिथे
अंजनेने तपस्येला आरंभ केला.
आधी
फंलाहार व नंतर निराहार अशा
प्रकारे एक हजार वर्षे तिचे
तप चालले.
तेव्हा
कुठे वायुदेवाने प्रसन्न
होऊन म्हटले वर माग.
अंजनेच्या
इच्छेनुसार वायुदेवाने
सांगितले की तो स्वतः पुत्ररूपाने
अंजनेच्या उदरात जन्म घेईल.
जेव्हा
सूर्य मेष राशीत असेल चैत्रमासाती--
पौ्र्णिमा
असेल तेंव्हा हा जन्म होईल.
याप्रमाणे
अंजनेला पुत्र पाप्ती झाली.
तिच्या
तपस्येमुळे या पर्वताला
अंजनाद्रि असे नाव पडले
पराशर
संहितेचा संदर्भ.
पराशर
संहितेमधे हनुमानाचा जन्म
व जन्मस्थळ या बाबतीत सविस्तर
वर्णन मिळते आजच्या काळात
अवतार या संकल्पनेवर लोकांचा
विश्वास प्रायः नसतो.
पण
मोठे महात्मा आणि सिध्द हे
अवतारी पुरुषच असतात.
हनुमान
देखिल अवतार होते हेच त्याच्या
जन्मकालीन घटनांचा आढावा
घेतल्यावर समजून येते.
त्या
पुरातन घटनेसंबंधी आजही
कित्येक कथा ऐकण्यात येतात
.
सध्याचा
काळ हा श्वेतवराहकल्प म्हटला
जातो हजारो वर्षापूर्वी
राधात्नरकल्पात एक ब्राम्हण
कश्यप व त्याची पत्नी साध्या
हे निःसतान असल्याने अत्यंत
दुखी होते.
त्यांनी
कैलास पर्वतावर जाऊन घोर
तपस्या केली.
त्या
कठिण तपस्येत तो वर्षाकाळांत
नदीच्या पात्रात गळ्यापर्यंत
बुडून रहायचा तर कडक उन्हाळ्यात
स्वतःभोवती आगीचे चक्र निर्माण
करून व डोक्यावर उन्हाचे तडाखे
सहन करीत तप करीत असे.
तेंव्हा
भगवान शंकराने वायु आणि अग्नि
यांना कश्यपास सहाय्य करण्यास
सांगितले.
शिवाची
इच्छा जाणून ते दोघेही ब्राह्मण
किशोरांचे रूप धारण करून
त्याची सेवा करू लागले.
ते
त्याच्यासाठी फुले,
फळे,
पाणी
आणि हवनाची लाकडे आणून देऊ
लागले.
काही
काळानंतर स्वतः शंकराने
कश्यपाला दर्शन देऊन वर मागण्यास
सांगितले.
कश्यपाने
स्वतः शंकरालाच पुत्ररूपाने
मागितले.
शंकराने
ही विनंती मान्य केली,
तसेच
अग्नि व वायु यांनाही आशीर्वाद
दिले.
त्याच
काळात गर्दभनिस्वन नावाच्या
एका असुराने शंकराची घोर
तपस्या करून आणि वरदान मिळवून
तो ही महाशक्तिवान झाला.
त्याने
देवांचा पराभव करून त्यांना
त्रास देण्यास सुरूवात केली
तेव्हा ते सर्व देव ब्रह्मदेवाला
पुढे करून शंकराकडे गेले आणि
दैत्याला मारण्याचा उपाय
विचारला.
शंकराने
सांगितले की या दैत्याला मीच
वरदान दिले आहे त्यामुळे मी
त्याला मारणार नाही.
मग
सर्व देव विष्णुकडे गेले
तेंव्हा विष्णुने दैत्याला
मारण्याची घोषणा केली.
त्यावर
शेकरानेही प्रति घोषणा केली
की या दैत्याला मी वरदान
दिल्याने त्याला मारणे अशक्य
आहे,
तरीपण
जर विष्णु त्याला मारू शकला
तर मी विष्णुचा अनुगत होऊन
राहीन.
मग
विष्णुने पुनः एकदा मोहिनीरूप
धारण केले आणि सुगंधी मद्याचा
चषक घेऊन दैत्याच्या उपवनात
पोचली.
गर्दभनिस्वनाच्या
सेवकांनी इतकी सुंदर स्त्री
पाहून ही वार्ता दैत्याला
कळवली व तुझ्याशी विवाह करण्यास
तीच अनुरूप आहे असे सांगितले.
तेंव्हा
गर्दभनिस्वन उपवानात आला आणि
बलपूर्वक मोहिनीला पकडण्याचा
प्रयत्न करू लागला.
मोहिनी
म्हणाली – हे दैत्यराज मी
तुझ्यासाठीच आले आहे.
तू
ही सुगंधी मदिरा प्राशन कर
आणि माझ्याशी प्रणय कर.
अशा
प्रकारे तो दैत्य मदिरा प्राशन
करून बेशुद्ध पडल्यावर मोहिनीने
आपले रूप सोडले व एका कोल्ह्याचे
रूप घेऊन त्याचे पोट फाडले
व त्याला यमसदनी पोचवले.
हे
पाहून शंकराने विष्णुचा अनुगत
होण्याचे ठरवले.
त्यावर
विष्णु म्हणाला की हे ईश,
तुमच्या
माझ्यात भेद नाही,
आपण
दोघे जगताच्या कल्याणासाठी
आहोत.
इथून
पुढे त्रेतायुगात मी अवतार
घेऊन कित्येक दैत्यांचा संहार
करणार आहे.
त्याचवेळी
तुम्हीही अवतार घ्यावा,
माझाशी
मित्रता ठेवावी व माझा अनुगत
होऊन मला मदत करावी आणि माझे
कार्य संपन्न करावे.
खरेच
आहे,
जो
कोणी तुमच्या व माझ्यात भेद
मानतो तो पापच करतो.
पण
जो ओळखतो की हर आणि हरि एकच
आहेत,
त्यांचे
अभेद ओळखतो,
त्याला
मोक्ष प्राप्ति होते.
पुढे
त्रेतायुगात दैत्यांचा
प्रादुर्भाव होतो.
त्यांचा
प्रभाव आणि अत्याचार दोन्हीं
वाढतात.
त्यामुळे
त्रस्त झालेले देवता ब्रह्मा
आणि शंकराला घेऊन बद्रिकावनात
जातात.
जिथे
नर आणि नारायण घोर तपस्या करीत
असतात.
देवांनी
नारायणाची स्तुति करून
त्याच्याकडे दैत्यांचा विनाश
करण्याची प्रार्थना केली.
तेंव्हा
नारायणाने सर्व देवांकडून
त्यांची शक्ति घेऊन त्यात
स्वतःची शक्ति मिसळली आणि तो
शक्तिपुंज शंकराकडे सोपवला.
शंकराने
तो शक्तिपुंज स्वतःमधे समाहित
करून घेतला.
मग
नारायणने देवांना आश्वास्त
केले की या शक्तिनिशी शंकर
अवतार घेतील व तो अवतार
दैत्यासंहारक असेल.
कालान्तराने
शिव आणि पार्वती वेंकटाचलम्
पर्वतावर विहारासाठी येतात.
एका
वृक्षाखाली विश्राम करीत ते
वानरांना पाहतात.
तेव्हा
स्वतः देखील वानररूप धारण
करून क्रीडा करू लागतात.
शंकर
तो शक्तिपुंज पार्वतीच्या
गर्भात स्थापित करतात.
पण
पार्वतीला त्या गर्भाचे तेज
सहन न होऊन तिने तो अग्निकडे
सोपवला.
अग्निने
तो गर्भ वायुकडे सोपवला.
पूर्वी
तपश्चर्या करून शंकराला
पुत्रारूपाने प्राप्त करण्याचा
वर घेतलेल्या कश्यप ब्राह्मण
याच काळात वानरराज केसरीच्या
रूपाने जन्माला येऊन वावरत
होता.
त्याचे
राज्य सुपर्वगिरी नामक
पर्वताच्या शिखरावर होते.
त्याच्या
जवळ काही ऋषि पोचले व सांगितले
की शंख आणि सुबल या दोन राक्षसांनी
त्यांना त्रस्त केले आहे.
यावर
केसरीने त्या दोघांसोबत युद्ध
करू त्यांना ठार मारले.
त्यापुढे
शंभसाधन दैत्याला देखील ठार
केले.
ऋषिंनी
प्रसन्न होऊन त्याच्या
विवाहासाठी योग्य कन्या
निवडण्याचे आश्वासन दिले.
याच
काळात एका अन्य वानरकुळात
कुञ्जर आणि त्याची पत्नी
विन्ध्यावली यांना ब्रह्मदेवाच्या
वरदानाने एक पुत्रीसंताति
होती व तिचे नांव अंजना ठेवले
होते,
ती
आता विवाहयोग्य झाली होती.
ऋषिंनी
तिची निवड वानरराज केसरीसाठी
केली आणि त्यांचा विवाह लावून
दिला.
मात्र
कित्येक वर्षे केसरी व अंजना
निःसंतानच राहिले.
तेंव्हा
अंजनाने घोर तपस्या आरंभिली.
त्यावर
प्रसन्न होऊन वायु तिला प्रतिदिन
एक फळ देऊ लागला.
एका
दिवशी शंकराकडून मिळालेला
शक्तिपुंज फळात टाकून अंजनाला
दिल्यावर तिला गर्भ राहिला.
आपल्याकडून
काय पाप झाले या विचाराने
अंजना दुःखी झाली पण तेंव्हाच
एक आकाशवाणी होऊन अंजनाला
समजावले की तिने कोणतेही पाप
केले नसून तिच्यावर ही दैवी
कृपा झालेली आहे,
तिला
एक पुत्र होईल जो जगभरात
प्रसिद्ध होईल.
यथासमय
अंजनाने मध्याह्नकाळी एका
सुंदर बालकाला जन्म दिला.
तो
शनिवारचा दिवस,
वैशाख
मास,
पूर्वभाद्रपदा
नक्षत्र,
वैधृति
योग आणि कृष्णपक्षाची दशमी
होती.
बालकाचे
शरीर तेजःपुंज होते.
त्याने
कानात माणिक्य-जडित
कर्णभूषणए आणि गळ्यांत सोनेरी
जानवे धारण केलेले होते.
तो
जन्मतःच वेद-वेदांग
पारंगत आणि सर्व विधींचा
विशारद होता त्याने लाल दिव्य
लंगोट बांधलेला होता आणि तो
ध्वज,
वज्र,
अंकुश,
आणि
पद्मरेखेने युक्त होता.
सर्व
शुभ लक्षणांनी संपन्न आणि
सुवर्ण किरीटधारी होता.
तो
विष्णु अवताराचे प्रिय
करण्यासाठी अवतीर्ण झाला
होता.
पाराशरसंहितेतील
वरील वर्णनावरूनही स्पष्ट
होते की हनुमान जन्मस्थळ हे
वेंकटाचल पर्वतावरील अंजनाद्रि
शिखर हेच आहे.
जाबालीतीर्थम्
-
ज्या
जागेवर अंजनाने तपस्या केली
होती,
कालान्तराने
महर्षि जाबाली यांनी तिथेच
घोर तपस्या केली,
त्यामुळे
त्या जागेला जाबालातीर्थ हे
नाव पडले.
जाबाली
देखील दशरथ राजाचे पुरोहीत
होते आणि वशिष्ठांप्रमाणेच
दशरथाला योग्य सल्ला देत होते.
स्कंदपुराणात
हे वर्णन आलेले आहे की नैमिषारण्यात
गोळा झालेल्या ऋषिमुनींना
सूतपुत्राने जाबाली ऋषिंची
आणि जाबालीतीर्थाच्या
स्थानमाहात्म्याची कथा ऐकवली
होती.
एके
काळी कावेरी नदीच्या तटावर
दुराचार नावाचा एक दुर्बुद्धि
ब्राम्हण रहात होता तो पाप
कर्मात लिप्त,
ब्राम्हण-हत्यारा,
लुटेरा,
तसेच
मद्यपी आणि स्त्रीगामी होता.
त्याच्या
पापकर्मांमुळे त्याचे
ब्राम्हणत्व काढून घेण्यांत
आले.
त्यामुळे
तो पापी एका पिशाचाला वश झाला
आणि देशाटनाला निघाला.
पण
आपल्या कांही पूर्वसुकृतांमुळे
तो वेंकटाचलमला पोचला.
तिथे
पिशाचाने त्याला जाबालीस्थानाच्या
प्रपातामधे बुडवून मारण्याचा
प्रयत्न केला,
पण
मारू शकला नाही.
जाबालीतीर्थाच्या
पाण्यात स्नान केल्याने
दुराचाराचे पापकर्म धुतले
गेले व तो पापमुक्त झाला.
तो
दुर्बुद्धिकडून सुबुद्धिकडे
वळला.
त्याने
आठवण्याचा प्रयत्न केला की
कावेरी तटावरील आपल्या घरापासून
तो इतका दूर कसा आला.
तेंव्हाच
त्याला जाबाली महर्षिंचे
दर्शन झाले.
महर्षि
त्याला म्हणाले हे दुराचार,
तुझ्या
पापकर्मांमुळे तू तुझे
ब्राम्हणत्व हरवून बसला होतास
आणि पिशाचाला वश झालास.
तोच
तुला इथपर्यंत घेऊन आला आणि
तुला मारण्यासाठीच इथल्या
पाण्यांत बुडवले.
पण
हे पवित्र पाणी असल्याने तुझे
पापक्षालन झाले.
पिशाचाला
पण या प्रपातात स्नान केल्याने
पिशाचयोनीतून मुक्ति मिळाली
आहे तुही आता विष्णुलोकाचा
अधिकारी झाला आहेस.
ही
कथा सांगतो की जाबालीतीर्थाच्या
सरोवरात स्नान केल्याने
मोठ्यात मोठे पापही धुतले
जाते.
---------------------------------------------------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें