गुरुवार, 23 जुलाई 2020

सूर्यसिद्धान्त

कतिपय अशुभ मुहूर्तों में श्रीरामजन्मभूमि मन्दिर का आरम्भ

मन्दिर के भवन का आरम्भ गृहारम्भ के अन्तर्गत ही आता है,यद्यपि देवालय हेतु कुछ अतिरिक्त नियम भी होते हैं ।

 गृहारम्भ के सामान्य नियमों के अनुसार ५ अगस्त २०२० ई⋅ को गृहारम्भ का मुहूर्त द्वितीया तिथि में है ।

उस समय कुछ छिटपुट अशुभ योग भी हैं जिनका शमन किया जा सकता है । किसी भी कार्य हेतु पूर्णतया शुभ मुहूर्त ढूँढना अत्यन्त कठिन होता है ।

 एक कठपिङ्गल पण्डित केवल इसी कारण अविवाहित रह गये क्योंकि विवाह करने की इच्छा रहने पर भी उनको पूर्णतया शुभ मुहूर्त कभी मिला ही नहीं ।

परन्तु तिथि आदि का निर्धारण हो जाने पर ठीक−ठीक समय जानने के लिये लग्नशुद्धि भी अनिवार्य है,क्योंकि पूरी तिथि एकसमान शुभ नहीं होती ।

भवन के आरम्भ काल की कुण्डली में ग्रहों का अच्छे भावों में रहना अनिवार्य है ।

 मुहूर्त−चिन्तामणि में भी गृहारम्भ मुहूर्त काल की कुण्डली के शुभ होने पर बल दिया गया है ।

 चौबीस घण्टों में कुल १०४ कुण्डलियाँ बनती हैं क्योंकि ग्रहों की राशियाँ और भाव बदलते रहते हैं ।

५ अगस्त २०२० ई⋅ के दिन दोपहर १२ बजकर १५ शुभ मुहूर्त निर्धारित किया गया है जो उस दिन सर्वाधिक अशुभ है ।

काशी के तीन ज्योतिषियों को आमन्त्रित किया गया है जिनमें से किसी ने इस त्रुटि का खण्डन नहीं किया,उन तीनों में सबसे वरिष्ठ हैं डा⋅ रामचन्द्र पाण्डेय । दूसरे आमन्त्रित ज्योतिषी उनके शिष्य हैं । डा⋅ रामचन्द्र पाण्डेय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं किन्तु उसी विश्वविद्यालय के सूर्यसिद्धान्तीय “विश्वपञ्चाङ्ग” का विरोध करते रहे हैं क्योंकि उनके मतानुसार सूर्यसिद्धान्त २५० ईस्वी की रचना है जिस कारण अब आउट−ऑव−डेट हो चुकी है ।

 सूर्यसिद्धान्त के अनुसार सूर्यसिद्धान्त के रचयिता भगवान सूर्य हैं । यदि सूर्यसिद्धान्त २५० ईस्वी के आसपास की रचना है तो सूर्यसिद्धान्त का रचयिता कोई पाखण्डी था जिसने झूठमूठ भगवान सूर्य को रचयिता बता दिया!

तब विक्रमादित्य के नवरत्न वराहमिहिर को भी झूठा और मक्कार कहना पड़ेगा जिन्होंने सूर्यसिद्धान्त को वेदमन्त्र गायत्री के देवता सविता की रचना बताया ।

 डा⋅ रामचन्द्र पाण्डेय “विश्वपञ्चाङ्ग” को भौतिक खगोलविज्ञान के आधार पर अप−टू−डेट करना चाहते थे जिस कारण काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के  “विश्वपञ्चाङ्ग” के तत्कालीन गणितकर्ता डा⋅ कामेश्वर उपाध्याय से उनका मतभेद हो गया और लम्बे विवाद के पश्चात् डा⋅ कामेश्वर उपाध्याय की विजय हुई जिस कारण ज्योतिष विभाग के अध्यक्ष डा⋅ रामचन्द्र पाण्डेय से  “विश्वपञ्चाङ्ग” की रक्षा करने के लिये “विश्वपञ्चाङ्ग” को ज्योतिष विभाग से ही अलग करने का निर्णय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय को करना पड़ा ।

“विश्वपञ्चाङ्ग” सूर्यसिद्धान्तीय तो है किन्तु सूर्यसिद्धान्त के अंग्रेजी भाष्यकार ईसाई पादरी बर्जेस के गलत मत पर आधारित है ।

 पादरी बर्जेस के ही अनुयायी डा⋅ रामचन्द्र पाण्डेय हैं जो पादरी बर्जेस के मतानुसार सूर्यसिद्धान्त को भगवान सूर्य की रचना नहीं मानते और भौतिक खगोलविज्ञान के आधार पर अप−टू−डेट करना चाहते हैं ।

 “विश्वपञ्चाङ्ग” का गणित सूर्यसिद्धान्त के ग्रहगणित पर आधारित है किन्तु बीजसंस्कार रहित है । सूर्यसिद्धान्त के उपलब्ध ग्रन्थ में बीजसंस्कार के अध्याय को मध्ययुग में किसी बेवकूफ ने अप−टू−डेट करने के अधूरे प्रयास में भ्रष्ट कर दिया था,परन्तु सूर्यसिद्धान्तीय बीजसंस्कार पर ही आजतक भारत के सारे परम्परावादी पञ्चाङ्ग बनते आये हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध हैं काशी की “मकरन्द सारिणी” द्वारा बने पञ्चाङ्ग ।

 आरम्भ में हिन्दू विश्वविद्यालय के नाम पर “विश्वपञ्चाङ्ग” बहुत बिकता था किन्तु शीघ्र ही लोगों ने पाया कि उससे बनी कुण्डलियाँ गलत फलादेश देती हैं तो “विश्वपञ्चाङ्ग” की बिक्री कई गुणी घट गयी ।

काशी में ही अंग्रेजों ने बापूदेव शास्त्री द्वारा भौतिक खगोलविज्ञान पर आधारित पञ्चाङ्ग आरम्भ कराया जो आजतक सरकार प्रकाशित करती आयी है किन्तु वह कहीं नहीं बिकता — क्योंकि मुर्दा भौतिक पिण्डों की गति पर आधारित कुण्डली का फलादेश व्यर्थ होता है ।

डा⋅ रामचन्द्र पाण्डेय “विश्वपञ्चाङ्ग” को भौतिक गणित पर आधारित करने का प्रयास अकारण कर रहे थे,काशी से ही उनके मनोनुकूल बापूदेव शास्त्री पञ्चाङ्ग तो ब्रिटिश राज के ही युग से प्रकाशित होता आया है जिसका प्रयोग कोई नहीं करता ।

परन्तु खेद की बात है कि श्रीरामजन्मभूमि मन्दिर का आरम्भ करने के लिये जो मुहूर्त निकाला गया है वह विश्व के किसी भी प्राचीन अथवा नवीन सिद्धान्त के अनुसार सही नहीं है ।

 हिन्दू पञ्चाङ्गों को नष्ट करने का सुनियोजित प्रयास नेहरू ने आरम्भ किया जिन्होंने विक्रम संवत् की बजाय शक संवत् को राष्ट्रीय संवत् घोषित किया और भौतिक खगोलविज्ञान पर आधारित “राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग” आरम्भ कराया — जिसका प्रयोग विश्व का कोई पण्डित अथवा पञ्चाङ्गों का जानकार नहीं करता ।

मुझे सन्देह है कि नेहरू के ही किसी समर्थक ने नरेन्द्र मोदी और भाजपा को क्षति पँहुचाने के उद्देश्य से श्रीरामजन्मभूमि मन्दिर हेतु गलत मुहूर्त का निर्धारण जानबूझकर किया है ताकि गलत मुहूर्त के कारण देश को भविष्य में क्षति पहुँचे और मोदी सरकार की किरकिरी हो तथा जनता भड़के ।

भौतिक खगोलविज्ञान पर आधारित पञ्चाङ्ग को आजकल “दृक्सिद्धान्त” कहा जाने लगा है ।

अयनांश पर मनमाने विचारों के कारण दृक्सिद्धान्त के अनेक भेद हैं जिनमें से तथाकथित चित्रापक्षीय अयनांश पर सरकारी “राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग” आधारित है ।

 चित्रापक्षीय अयनांश आधुनिक युग में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नौकरों की खोज है जिसे केतकर बन्धुओं ने ज्योतिष में प्रचारित किया और नेहरू द्वारा बनायी गयी “पञ्चाङ्ग रिफॉर्म कमिटी” के सचिव निर्मल चन्द्र लाहिड़ी ने “राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग” पर लागू किया।

श्रीरामजन्मभूमि गर्भगृह के स्थान से ५ अगस्त २०२० ई⋅ दोपहर १२:१५ बजे की उक्त चित्रापक्षीय−दृक्सिद्धान्त तथा पारम्परिक बीजसंस्कारित सूर्यसिद्धान्त पर आधारित दोनों कुण्डलियाँ संलग्न चित्र में प्रस्तुत हैं ।

दोनों सिद्धान्तों में केवल शनि की राशि में अन्तर है परन्तु भावचक्र में शनि में भी अन्तर नहीं है;तथा केतु भावचक्र में अन्तर रखता है परन्तु राशिचक्र में नहीं ।

अन्य सारी बातों में दृक्सिद्धान्तीय और सूर्यसिद्धान्तीय कुण्डलियों में कोई अन्तर नहीं है ।

अब भावफल देखते हैं —

दोनों सिद्धान्तों के अनुसार लग्नेश शुक्र मृत्युभाव में हैं,अतः लग्न अशुभ है ।

केवल इतना कारण ही उक्त काल को किसी भी शुभ कर्म हेतु वर्जित करने के लिये पर्याप्त है।

बृहस्पति तृतीय तथा षष्ठ भावों के स्वामी होने के कारण अत्यधिक अशुभ हैं,और तृतीय भाव में बैठने के कारण अशुभता बढ़ गयी ।

 चन्द्रमा दशमेश हैं जिसे केन्द्रश दोष कहा जाता है । सूर्य एकादशेश हैं;एकादशेश को सर्वाधिक अशुभ माना जाता है ।

 अशुभ सूर्य में अस्त होने के कारण बुध भी अशुभ हैं । मङ्गल मारकेश भी हैं तथा मारक भी,और शत्रुभाव में हैं ।

शनि शुभ हैं किन्तु भावचक्र में अत्यधिक अशुभ बृहस्पति के साथ रहने के कारण दोषग्रस्त है । सूर्यसिद्धान्तीय कुण्डली में शनि शत्रु बृहस्पति की राशि में रहने के कारण प्रबल तथा अशुभ बृहस्पति के पूर्ण वश में हैं ।

 किन्तु दृक्सिद्धान्तीय कुण्डली में शनि स्वराशि में रहने के कारण बलवान हैं परन्तु दृक्सिद्धान्तीय कुण्डली में भी भावचक्र में शनि बृहस्पति के साथ होने के कारण दोषग्रस्त हैं ।

 दोनों सिद्धान्तों में राहु और केतु मूलत्रिकोण में होने के कारण बली हैं ।

किसी कुण्डली में केवल शनि,राहु और केतु ही प्रबल हों और अन्य सारे ग्रह अशुभ हों तो भूतप्रेत,चाण्डालों,कसाईयों,चमगादड़खोरों,आदि के उत्पात होते हैं तथा अन्य कई प्रकार के सङ्कट आते हैं ।

कहा जाता है कि मन्दिर में ऐसे पत्थरों का प्रयोग किया जा रहा है जिनकी आयु एक सहस्र वर्षों की होगी । अतः एक सहस्र वर्षों तक इस अशुभ मुहूर्त का फल  हिन्दुओं को भोगना पड़ेगा ।

इसे टाला नहीं जा सकता,कलियुग का प्रभाव है । ‘महापुरुषों’ को समझाना व्यर्थ है ।

 जिन लोगों ने जानबूझकर गलत मुहूर्त निर्धारित किया वे नरक जायेंगे,जिनको इस बात की जानकारी नहीं है उनको भगवान क्षमा कर सकते हैं क्योंकि भगवान भाव देखते हैं ।

 किन्तु अभी तो भगवान विष्णु भी क्षीरसागर में सो रहे हैं,चार मास के उपरान्त जब उठेंगे तो अपनी ही जन्मभूमि पर ऐसा करामात देखकर क्या करेंगे?अभी तो उनके अवतार का भी समय नहीं है,और सूर्य भगवान के सिद्धान्त की अवमानना करने वालों को हरिशयनकाल में सोये हुए श्रीविष्णु से भय क्यों लगेगा?

केवल इतना सन्तोष है कि बाबरी से तो बेहतर वस्तु ही बनेगी । यहाँ तो ऐसे नेता भी हैं जो कहते हैं कि राममन्दिर बनने से कोरोना नहीं हटेगा;उनके राज्य के पालघर में सन्तों की हत्या होने पर कोरोना हट गयी या महाराष्ट्र कोरोना में भी “महा” हो गया?

दो स्क्रीनशॉट संलग्न हैं जिनमें स्पष्ट लिखा है कि कौन दृक्पक्षीय है और कौन सूर्यसिद्धान्तीय ।

 दोनों मेरे “कुण्डली सॉफ्टवेयर” द्वारा निर्मित हैं । “कुण्डली सॉफ्टवेयर” में दृक्पक्षीय ऑप्शन को बन्द करके मैं वितरित करता हूँ क्योंकि ज्योतिष में दृक्पक्ष का प्रचार मैं नहीं चाहता,यद्यपि कई लोगों का कहना है कि दोनों ऑप्शन रहने पर लोग तुलना कर सकेंगे — वैसे लोगों के लिये अमरीका में रहने वाले नरसिंह राव द्वारा निर्मित “जगन्नाथ होरा” दृक्पक्षीय सॉफ्टवेयर के वर्सन ७⋅६६ में मेरा सूर्यसिद्धान्तीय ऑप्शन भी है,यद्यपि नरसिंह राव दृक्पक्ष के समर्थक हैं और सूर्यसिद्धान्तीय ऑप्शन में भी भावचलितचक्र पराशरी नहीं है ।

कृष्ण

*कृष्ण*,,,
नावातील एकही अक्षर सरळ नसणारा हा देव,,,
प्रत्येक शब्द हा जोडाक्षर,,,
जितकं नांव कठीण तितका समजायला कठीण,,
पण एकदा समजला की जीवनाचा अर्थ समजलाच म्हणून समजा,,
जीवन म्हणजे काय हे समजून घ्यायचं असेल तर कृष्ण समजून घ्यावा,,
दशावतारी भगवंताचा आठवा अवतार म्हणजे कृष्ण,,
सातवा अवतार प्रभू राम,,
*राम* ही अक्षरे सुद्धा सरळ अन त्याचं वागणं ही सरळ,,मर्यादेत,,
म्हणून *मर्यादा पुरुषोत्तम*,,,
रामाने आपल्या जीवनात कधीच कोणतीच मर्यादा ओलांडली नाही,,
तरीही काही जणांनी त्याच्यात दोष शोधले,त्याच्यावर टीका केली,,,
मग पुढच्या अवतारात प्रभू ने सर्व मर्यादा ओलांडल्या,,
करा काय करायचं ते,,,😃😃😃
जीवनात आचरण रामसारखं असावं अन समजून कृष्ण घ्यावा,,
कृष्ण आचरणात आणायच्या भानगडीत पडू नये,,
कृष्ण म्हणजे *श्रीमदभगवद्गीता*,,,
जीवनाचं सार,,,
प्रभू रामाने जसा भर दुपारी मध्यानी अवतार घेतला तसा कृष्णाने पार मध्यरात्री अवतार घेतला,,
जन्म झाल्याबरोबर त्याला ते ठिकाण सोडून गोकुळात जावं लागलं,,
गोकुळात कृष्ण फक्त वयाच्या आठव्या वर्षापर्यंत राहिला,,,
म्हणजे राधा राणी फक्त तोवर कृष्णासोबत होती, कृष्ण 8 वर्षाचा होऊ पर्यंत,,,
जे राधा आणि कृष्णविषयी चुकीची चर्चा करतात त्यांनी या गोष्टीचा जरूर विचार करावा 8 वर्षाच्या बालकाचे कसल्या पद्धतीचे प्रेम संबंध असतील राधिकेशी,,,
ईतका कमी सहवास लाभून सुद्धा राधेचं नांव कृष्णाशी कायमचं जोडलं गेलं,,
किंबहुना तीचं प्रेम इतकं नितळ,निस्सीम,निर्मळ होतं की तिचं नांव कायमचं कृष्णाच्या आधी लागलं,,
कृष्ण-राधे कोई ना केहता, केहते राधे-शाम,,,
जनम जनम के फेर मिटाता एक राधा का नाम,,
असं हे राधा आणि कृष्णाचं प्रेम,,
किंबहुना प्रेमाचं दुसरं नांव म्हणजेच राधा व कृष्ण,,
कृष्णाला 16 हजार 108 बायका,,
त्याचा ही इतिहास,,
ज्यांना त्याने मुक्त केलं त्या म्हणू लागल्या आता आम्ही आमच्या घरी जाऊ शकणार नाही तेव्हा त्याचा स्वीकार केला,,
अन नुसता स्वीकारच नाही केला त्या प्रत्येकी सोबत त्याच्या सुख दुःखात सहभागी होता,,,
आज काही महाभाग म्हणतात कृष्णाने इतक्या बायका केल्या तर आम्हाला काय हरकत आहे,,
अरे त्याने आग लागलेली 50 गावे गिळून टाकली होती,,,
तू जळता एखादा कोळसा गिळून दाखव की आधी मग कृष्णाची बरोबरी कर,,,
मी आधीच म्हटल्याप्रमाणे कृष्ण आचरणात नाही समजण्यात खरी मजा,,
त्या साठी गीता समजून घेणं महत्वाचं,,
गीते मध्ये काय नाही??
तर गीतेत सर्व आहे,,
जीवनातील कोणत्याही प्रश्नाचं उत्तर यात मिळेल,,,
आणि सर्वात महत्वाचं म्हणजे हे जीवन शास्त्र कृष्णाने अर्जुनाला युद्धभूमीवर सांगितलं,,,
यावरून अर्जुनाची सुद्धा योग्यता किती मोठी आहे हे समजतं,,
अर्जुन या भूतलावर असा एकमेव मानव झाला जो या नाशवंत देहासह स्वर्गात 5 वर्षे राहिला व शस्त्र चालवण्याचं शिक्षण घेतलं,,
म्हणजे अर्जुनाची योग्यता काय आहे ते समजतं,,
त्या अर्जुनाच्या डोळ्यांवर आलेलं मोह,माया याचं पटल दूर करण्यासाठी कृष्णाने गीता सांगितली,,,
गीता समजण्यासाठी अर्जुन किती तयार आहे हे आधी कृष्णाने आधीचे 9 अध्याय पाहिलं,,
त्याची तयारी करून घेतली ,,,
मग पुढे खरा गूढार्थ सांगितला,,,
विश्वरूप दाखवतांना सुद्धा त्याला
आधी दिव्य दृष्टी दिली,,,
त्याची तयारी करून घेतली,,
मग त्याला दाखवलं की सर्व काही करणारा मीच आहे,,
तू फक्त निमित्तमात्र आहेस,,,
असा हा कृष्ण,,
त्याच्या विषयी किती सांगावं अन किती नको,,,
तो जितका अनुभवू तितका तो जास्त भावतो,,जास्त आवडतो,,
त्याला जितकं समजून घेऊ तितकं कमीच,,,
त्याच तत्वज्ञान म्हणजे संपूर्ण जीवनाचं सार,,,
ते समजून घेतलं की जीवन समजलं,,
जीवन सफल झालं,,
मनुष्य जीवनमुक्त झाला,,
अशा या कृष्णाला वंदन,,
*श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी,*
*हे नाथ नारायण वासुदेव,*
*प्रद्युम्न दामोदर विश्वनाथ,*
*मुकुंद विष्णू भगवन नमस्ते*!!!
.....जय श्री राधे कृष्णा.....
श्री कृष्णाला *समजून* घेण्यासाठी आपणाला श्री कृष्ण परमात्मा बुद्धी प्रदान करो हीच प्रार्थना,,,


 *कुरुक्षेत्रात* युध्दभूमीवर जेव्हा *कर्ण* व *अर्जुन* समोरा-समोर आले तेव्हा,
 कर्णाने *वासुकी* नामक अस्त्र धनुष्याला लावून अर्जुनाच्या! दिशेने सोडले.

 प्रत्येकाला वाटले- आता हे अस्त्र अर्जुनाचा शेवट करणार...  😳
तितक्यात,
*श्रीकृष्णाने* आपल्या पायाचा भार रथावर दिला.

 रथ थोडा खाली खचला.
व ते अस्त्र अर्जुनाच्या गळ्याचा वेध न घेता मुकुट उडवून गेले.

नंतर,
सूर्य अस्ताला गेल्यानंतर जेव्हा, युध्द विराम होत असे.

तेव्हा,
पहिल्यांदा श्रीकृष्ण रथाच्या खाली उतरत असे व नंतर अर्जुनाला खाली उतरण्यास हात देत असे.

जेव्हा,
पूर्ण युध्द संपले व
पांडवांचा विजय झाला. तेव्हा,

श्रीकृष्ण अर्जुनाला म्हणाला,  "आधी तू रथाच्या खाली उतर."
त्यानुसार अर्जुन रथाच्या खाली उतरला.

त्यानंतर श्रीकृष्णाने घोड्यांचे लगाम घोड्यांच्या अंगावर टाकले  घोडे बाजूला काढले व नंतर च  स्वतः रथाच्या खाली उतरला.

दोघेही थोडे पावले चालून गेली तोच, रथाने धड धड करत प्रचंड पेट घेतला.🔥
जमलेले सर्व जण आश्चर्या ने ते दृश्य पाहत होते. 😳😳

तेव्हा अर्जुन म्हणाला, आपण रथातून उतरल्या उतल्या रथ आपोआप कसा काय पेटला
"अरे श्रीकृष्णा हा काय प्रकार आहे? "🤔

तेव्हा
*भगवान श्रीकृष्ण म्हणाले की,* 😇

*"युध्दात जितके शस्त्र-अस्त्र तुझ्या दिशेने सोडण्यात आले होते, ते माझ्या मुळे तुला स्पर्श ही  करू शकले नाहीत.*
*ते सर्व अस्त्र अदृश्य रूपाने रथाच्या भवती फिरत राहिले व आता जेव्हा मी तुझ्या रथाची धुरा सोडून दिली.. तेव्हा, ह्या अस्त्रांचा परिणाम आता तु पाहत आहेस."*

त्याच प्रमाणे
*मानवी देह* आहे.

 *जोपर्यन्त परमेश्वरानेआपले जीवनरुपी लगाम पकडले आहेत तो पर्यंत आपल्या देहात प्राण ,आनंद ,सुख ,ऐश्वर्य नांदत आहे. पण जेव्हा तो आपणास सोडतो.. तेव्हा आपलीही अवस्था त्या रथासारखीच होते* .😥😥😥
 
       *।।जय श्रीकृष्ण।।*
🙏🏻💐💐  💐💐

शुक्रवार, 19 जून 2020

यम के अर्थ

ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त १४, १५ यम सूक्त कहे जाते हैं।

सूक्त १५ के ऋषि वैवस्वत यम ही हैं। सूक्त १५ के ऋषि उनके वंशज शङ्ख यामायन हैं।

ये विवस्वान् पुत्र यम मनुष्य हैं और उनके वंशज (यामायन) शङ्ख हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित वर्णन सौरमण्डल के यमक्षेत्र का है।

 शनि का प्रकाशित भाग धर्म और अन्धकार भाग या यूरेनस यम है।

 भागवत पुराण स्कन्ध ५ में चक्राकार पृथ्वी का वर्णन है जिसका भीतरी भाग ५० करोड़ योजन व्यास का है (यहाँ पृथ्वी का व्यास १२,८०० किमी. = १,००० योजन, अर्थात् १ योजन = १२.८ किमी.)

-इसे लोक (प्रकाशित) भाग तथा १०० कोटि योजन व्यास तक का बाहरी भाग अलोक (अप्रकाशित) कहा गया है।

 ततः परस्ताल्लोकालोकनामाचलो लोकालोकयोरन्तराले परित उपक्षिप्तः।
 यावन्मानसोत्तरमेर्वोरन्तरं तावती भूमिः काञ्चन्यन्यादर्शतलोपमा यस्यां प्रहितः।

 पदार्थो न कथञ्चित्पुनः प्रत्युपलभ्यते तस्मात्सर्वसत्त्वपरिहृतासीत्।

लोकालोक इति समाख्या यदनेनाचलेन लोकालोकस्यान्तर्वर्तिनावस्थाप्यते।

स लोकत्रयान्ते परित ईश्वरेण विहितो यस्मात्सूर्यादीनां ध्रुवापवर्गाणां ज्योतिर्गणानां गभस्तयोऽर्वाचीनांस्त्रीन्लोकानावितन्वाना न कदाचित्पराचीना भवितुमुत्सहन्ते तावदुन्नहनायामः।

 एतावान्लोकविन्यासो मानलक्षणसंस्थाभिर्विचिन्तितः कविभिः स तु पञ्चाशत्कोटिगणितस्य भूगोलस्य तुरीयभागोऽयं लोकालोकाचलः।

 (स्कन्ध ५, २०/३४-४०)

अथर्व वेद के काण्ड १८ में भी ४ बड़े सूक्त हैं जिनको पितृमेध कहा गया है। इनमें कुल २८३ मन्त्र हैं।

इन मन्त्रों में यम-मार्ग के दो श्वान (कुत्ते) कहे गये हैं जो सम्भवतः मंगल के दो उपग्रह हैं। (ऋग्वेद १०/१४/१०-११, अथर्व वेद १८/२/११-१२)।

 शनि के चारों तरफ के वलयों को ३ भागों में बाँटा गया है-

भीतर का पीलुमती, मध्य में उदन्वती तथा बाहरी प्रद्यौ (Paradise) हैं-

उदन्वती द्यौरवमा पीलुमतीति मध्यमा।

 तृतीया ह प्रद्यौरिति यस्यां पितर आसते॥ (अथर्व १८/२/४८)।


 सम्भवतः इन्हीं को गरुड़ पुराण में वैतरणी नदी कहा गया है।

जगत् की आत्मा विष्णु का वाहन गरुड़ है अतः उनके स्वरूप आत्मा का वाहन भी गरुड़ ही होगा अतः इस पुराण को गरुड़ पुराण कहते हैं।

आकाश में विष्णु रूप सूर्य के ४ पद हैं।

सौर मण्डल में ३ पद हैं।

ताप क्षेत्र १०० योजन (यहां सूर्य व्यास = १ योजन) तक, उसके बाद तेज या वायु क्षेत्र १००० योजन तक (पुरुष सूक्त की भाषा में सहस्राक्ष, सूर्य = अक्ष या चक्षु) तथा १ लाख योजन तक प्रकाश क्षेत्र जहां तक तीव्र प्रकाश है।

 सूर्य का प्रकाश आकाशगंगा से जहां तक अधिक है उसे सौरमण्डल का द्यु कहा है।

यह १५७ लाख सूर्य वास तक या पृथ्वी के आकार को ३० बार २-गुणा करने पर (३० धाम) होता है।-

शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् ८/३)

स एष (आदित्यः) एक
शतविधस्तस्य रश्मयः ।

 शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण १०/२/४/३)

युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति ।

 सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण १/४४/५)

असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः ।

ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६)

भूमेर्योजनलक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्।५॥ (विष्णु पुराण २/७)

विष्णु पुराण २/८-

योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव।

 ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम॥२॥

सार्धकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि वै।

 योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितम्॥३॥

सूर्य सिद्धान्त (१२)-

 भवेद् भकक्षा तिग्मांशो र्भ्रमणं षष्टिताडितम्।

 सर्वोपरिष्टाद् भ्रमति योजनैस्तैर्भमण्डलम्॥८०॥

इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥१७॥

तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥२०॥

सूर्य का चतुर्थ या परम पद वह क्षेत्र है जिसकी सीमा पर सूर्य विन्दु मात्र दीखता है-
सूर्य सिद्धान्त (१२)-

ख-व्योम-खत्रय-ख-सागर-षट्क-नाग-व्योमा-ष्ट-शून्य-यम-रूप-नगा-ष्ट-चन्द्राः।

ब्रह्माण्ड संपुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य करप्रसाराः॥९०॥

त्रिंशद्धाम वि-राजति वाक् पतङ्गाय धीमहि ।

 प्रति वस्तोरहद्युभिः ॥ (ऋक्, १०/१८९/३)

...द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति तां समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति..... (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)

विष्णु के ४ पदों के अनुसार प्रेत (प्र इतः = यहां से चला गया) की ४ गति हैं-

(१) प्रेत शरीर-

चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में मनुष्य शरीर गर्भ में बनता है।

प्रेत शरीर चान्द्र मण्डल का पदार्थ है। यह पृथ्वी की १० परिभ्रमण (१० दिन में बनता है।

 इसी प्रकार सौरमण्डल की सृष्टि भी परमेष्ठी मण्डल की १० परिक्रमा में हुई है जिसे १० रात्रि कहा है।

यज्ञो वै दश होता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६)

विराट् वा एषा समृद्धा, यद् दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण ४/८/६)

विराट् वै यज्ञः। ...दशाक्षरा वै विराट् । (शतपथ ब्राह्मण १/१/१/२२, २/३/१/१८, ४/४/५/१९)

अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१)

अथ यद् दशरात्रमुपयन्ति।

 विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/१७ )

प्राणा वै दशवीराः। (यजु १९/४८, शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२)

(२) पृथ्वी सतह से चन्द्रकक्षा तक चन्द्र की १३ परिक्रमा अर्थात् १२ चान्द्रमास में। उसके बाद चन्द्र के ऊर्ध्व भाग में पितर निवास।

(३) चन्द्र सतह पर पृथ्वी कक्षा के साथ सूर्य की वार्षिक परिक्रमा जिसके लिये पितृपक्ष में श्राद्ध।

(४) गौ (प्रकाश किरण) की शक्ति से महान् आत्मा का सौरमण्डल की सीमा तक गति-मार्ग में अवान्तर ग्रह तथा शनि के वलयों की बाधा।

(५) सौर मण्डल से बाहर निकलना जिसके लिये गया श्राद्ध-

द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डल भेदिनौ।

 परिव्राट् योगयुक्तो वा रणे चाभिमुखं हतम्॥ (विदुर गीता, शुक्र नीति)

विष्णु पुराण २/७-

ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः।
एक योजन कोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः॥१२॥

स यदाह गयोऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वांल्लोकान् गच्छति तद् यद् गच्छति तस्माद् गयः, तद् गयस्य गयत्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व ५/१४)

प्राणा वै गयाः। (शतपथ ब्राह्मण १४/८/१५/७)

गयस्फानः प्रतरणः सुवीरो ऽवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान्। (ऋक् १/९१/१९)

गयस्फानः प्रतरणः सुवीर इति गवां नः स्फावयिता प्रतारयितैधीत्याह। (ऐतरेय ब्राह्मण १/१३)

यम के ४ अर्थ-

(१) सृष्टि का आरम्भ एकर्षि से हुआ जो ३ भाग में विभक्त नहीं होने के कारण अत्रि कहा गया है।

यह सूर्य (स्रोत) तथा यम (परिणति) के बीच ऋषि (रस्सी) है जिसके द्वारा पोषण (पूषन्) होता है।

 यह प्राजापत्य (सृष्टि करने वाला) है-

पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूह।

तेजो यत् ते रूपं तत् ते पश्यामि योसावसौ सोऽहमस्मि। (ईशावास्य उपनिषद्).

(२) सौर वायु की सीमा पर यूरेनस ग्रह तक-शनि धर्म तथा यूरेनस यम है।

 पिता का सक्रिय जीवन समाप्त होने पर पुत्र का आरम्भ होता है अतः सीमावर्त्ती भाग पुत्र है।

 पार्थिव (ठोस) ग्रहों की सीमा पर मंगल भी इसी अर्थ में पृथ्वी का पुत्र है।

(३) पृथ्वी पर २ यम क्षेत्र हैं-सबसे दक्षिणी भाग अनन्त द्वीप (अण्टार्कटिका) है क्योंकि यह नक्शे में अनन्त आकार का हो जायेगा।

यह २ भूखण्ड है अतः यम (यमल = जोड़ा, २) है। इसका निकटवर्त्ती भाग न्यूजीलैण्ड यमकोटिद्वीप भी २ भूखण्ड है।

इसका दक्षिणी पश्चिमी तट यमकोटिपत्तन उज्जैन या लंका से ९० अंश पूर्व कहा गया है (सूर्य सिद्धान्त)।

भारत की पश्चिमी सीमा भी यम क्षेत्र है। यहां यम और संयमनी के नाम पर कई स्थान हैं-

यमन, अम्मान, सना तथा मृतसागर।

इसके ९० अंश पूर्व (वियतनाम) में इन्द्र की अमरावती पुरी थी जिनको पूर्व का दिक्पाल कहा है।

विष्णु पुराण (२/८)-

मानसोत्तरशैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।

दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥८॥

वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी।९।

शक्रादीनां पुरे तिष्ठन् स्पृशत्येष पुरत्रयम्। विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्त्रीन् कोणान्द्वे पुरे तथा।॥१६॥

उदितो वर्द्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन् रविः।

 ततः परं ह्रसन्तीभिर्गोभिरस्तं नियच्छति॥१७॥

सूर्य सिद्धान्त (१२/३८-४२)-

भूवृत्तपादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्ववर्षे नगरी स्वर्णप्राकारतोरणा॥३८॥

याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी।

 पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥

उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता (४०) भूवृत्तपादविवरास्ताश्चान्योन्यं प्रतिष्ठिता (४१)

तासामुपरिगो याति विषुवस्थो दिवाकरः।

न तासु विषुवच्छाया नाक्षस्योन्नतिरिष्यते ॥४२॥

(४) मनुष्य रूप में-

विवस्वान् वायु पुराण वर्णन के अनुसार १३९०२ ई.पू. में थे।

 इसके पूर्व वेद का ब्रह्म सम्प्रदाय स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) से था।

 ज्योतिष में भी पहले पितामह सिद्धान्त था, विवस्वान् से सूर्य सिद्धान्त आरम्भ हुआ जिसका संशोधन मय असुर ने ९२३२ ई.पू. में किया।

विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु थे जिनके वंशज (पुत्र) इक्ष्वाकु का शासन १-११-८५७६ ई.पू. में आरम्भ हुआ।

विवस्वान की परम्परा में ही (दूसरे पुत्र) वैवस्वत यम हुये जिनके काल में जल-प्रलय हुआ था (प्रायः १०,००० ई.पू.)।

 इनको जेन्द अवेस्ता में जमशेद कहा गया है।

बुधवार, 13 मई 2020

Ek Mulakat -Ep-15(B) Leena Bahanle ji part 02 - Brahma Kumaris

Ek Mulakat -Ep-15(B) Leena Bahanle ji part 02 - Brahma Kumaris

Ek Mulakat -Ep-15(A)- Leena Bahanle ji part 01 - Brahma Kumaris

संस्कृत में हनुमान चालीसा

संस्कृत में हनुमान चालीसा

श्री  गुरु चरण सरोज रज
निज  मनु  मुकुरु   सुधारि ।
बरनऊँ रघुवर बिमल जसु
जो   दायकु   फल    चारि ।।

हृद्दर्पणं     नीरजपादयोश्च
गुरोः पवित्रं रजसेति कृत्वा ।
फलप्रदायी यदयं च सर्वम्
रामस्य पूतञ्च यशो वदामि ।।

बुद्धि हीन तनु जानिकै
सुमिरौं        पवनकुमार ।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि
हरहु     क्लेश      विकार ।।

स्मरामि तुभ्यम् पवनस्य पुत्रम्
बलेन   रिक्तो    मतिहीनदासः।
दूरीकरोतु   सकलञ्च    दुःखं
विद्यां  बलं  बुद्धिमपि  प्रयच्छ ।।

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर
जय कपीस तिहुं लोक उजागर ।

जयतु   हनुमद्देवो
     ज्ञानाब्धिश्च गुणाकरः।
जयतु वानरेशश्च
    त्रिषु लोकेषु कीर्तिमान् ।।(1)

रामदूत अतुलित बलधामा
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा।

दूतः   कोशलराजस्य
        शक्तिमांश्च न तत्समः।
अञ्जना जननी यस्य
       देवो वायुः पिता स्वयम्।।(2)

महावीर    विक्रम    बजरंगी
कुमति निवार सुमति के संगी।

हे   वज्रांग   महावीर
       त्वमेव च सुविक्रमः।
कुत्सितबुद्धिशत्रुस्त्वम्
       सुबुद्धेः प्रतिपालकः।।(3)

कंचन  बरन  बिराज सुबेसा
कानन कुण्डल कुंचित केसा ।

काञ्चनवर्णसंयुक्तः
       वासांसि शोभनानि च।
कर्णयोः कुण्डले शुभ्रे
      कुञ्चितानि कचानि च।।(4)

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै
कांधे   मूंज  जनेऊ   साजे ।

वज्रहस्ती     महावीरः
        ध्वजायुक्तो तथैव च ।
स्कन्धे च शोभते यस्य
         मुञ्जोपवीतशोभनम् ।।(5)

संकर सुवन केसरी नन्दन
तेज प्रताप महाजगबन्दन ।

नेत्रत्रयस्य  पुत्रस्त्वम्
        केशरीनन्दनो खलु।
तेजस्वी त्वं यशस्ते च
        वन्द्यते पृथिवीतले।।(6)

विद्यावान  गुनी अति चातुर
राम काज करिबे को आतुर ।

विद्यावांश्च  गुणागारः
      कुशलोऽपि कपीश्वरः।
रामस्य कार्यसिद्ध्यर्थ
      मुत्सुको  सर्वदैव  च।।(7)

प्रभु  चरित्र सुनिबे को रसिया
राम लखन सीता मन बसिया ।

राघवेन्द्रचरित्रस्य
      रसज्ञो स प्रतापवान् ।
वसन्ति हृदये तस्य
      सीता रामश्च लक्ष्मणः।।(8)

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,
विकट  रूप  धरि  लंक  जरावा।

वैदेहीसम्मुखे     तेन
        प्रदर्शितस्तनुः लघुः।
लङ्का दग्धा कपीशेन
         विकटरूपधारिणा।।(9)

भीम रूप धरि असुर संहारे
रामचन्द्र  के  काज   संवारे।

हताः रूपेण  भीमेन
        सकलाः रजनकचराः।
कार्याणि कोशलेन्द्रस्य
       सफलीकृतवान् प्रभुः।।(10)

लाय सजीवन लखन जियाये,
श्री   रघुवीर  हरषि  उर  लाए ।

जीवितो लक्ष्मणस्तेन
      खल्वानीयौषधम् तथा ।
रामेण  हर्षितो  भूत्वा
      वेष्टितो   हृदयेन    सः।।(11)

रघुपति  कीन्ही  बहुत बडाई ,
तुम मम प्रिय भरत सम भाई ।

प्राशंसत् मनसा रामः
        कपीशं बलपुङ्गवम्।
प्रियं  समं  मदर्थं त्वं
         कैकेयीनन्दनेन च ।।(12)

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं,
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।

यशो मुखैः सहस्रैश्च
        गीयते तव वानर ।
हनुमन्तं  परिष्वज्य
        प्रोक्तवान् रघुनन्दनः।।(13)

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा,
नारद सारद सहित अहीसा ।

सनकादिसमाः सर्वे
       देवाः ब्रह्मादयोऽपि च।
भारतीसहितो शेषो
       देवर्षिः  नारदः   खलु।।(14)

जम  कुबेर  दिगपाल  जहां  ते
कबि कोबिद कहि सके कहां ते।

कुबेरो      यमराजश्च
  दिक्पालाः सकलाः स्वयम्।
पण्डिताः कवयो सर्वे
  शक्ताः   न   कीर्तिमण्डने।।(15)

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा,
राम  मिलाय राज पद दीन्हा।

उपकृतश्च    सुग्रीवो
      वायुपुत्रेण    धीमता।
वानराणामधीपोऽभूद्
      रामस्य कृपया हि सः।।(16)

तुम्हरो मन्त्र  विभीषण  माना,
लंकेस्वर भए सब जग जाना ।

तवैव    चोपदेशेन
          दशवक्त्रसहोदरः।
प्राप्नोतीति नृपत्वं सः
     जानाति सकलं जगत् ।।(17)

जुग सहस्र जोजन पर भानू ,
लील्यो ताहि मधुर फल जानू ।

योजनानां सहस्राणि
         दूरे भुवो स्थितो रविः।
सुमधुरं  फलं  मत्वा
         निगीर्णः भवता ननु।।(18)

प्रभु  मुद्रिका  मेलि  मुख  माहीं
जलधि लांघि गए अचरज नाहीं।

मुद्रिकां कोशलेन्द्रस्य
      मुखे   जग्राह   वानरः।
गतवानब्धिपारं   सः
      नैतद् विस्मयकारकम्।।(19)

दुर्गम काज जगत के जेते ,
सुगम अनुग्रह  तुम्हरे  तेते ।

यानि कानि च विश्वस्य
        कार्याणि दुष्कराणि हि ।
भवद्कृपाप्रसादेन
        सुकराणि पुनः खलु ।।(20)

राम दुआरे  तुम रखवारे ,
होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।

द्वारे च  कोशलेशस्य
        रक्षको वायुनन्दनः।
तवानुज्ञां विना कोऽपि
        न   प्रवेशितुमर्हति।।(21)

सब सुख लहै तुम्हारी सरना ,
तुम  रक्षक  काहु  को डरना ।

लभन्ते शरणं प्राप्ताः
      सर्वाण्येव सुखानि च ।
भवति  रक्षके  लोके
       भयं मनाग् न जायते ।।(22)

आपन तेज सम्हारो आपे ,
तीनो लोक हांक  ते  कांपै ।

समर्थो  न  च संसारे
        वेगं रोद्धुं बली खलु।
कम्पन्ते च त्रयो लोकाः
        गर्जनेन   तव   प्रभो।।(23)

भूत पिसाच निकट नहिं आवै ,
महाबीर   जब   नाम   सुनावै।

श्रुत्वा नाम महावीरं
       वायुपुत्रस्य धीमतः।
भूतादयः पिशाचाश्च
        पलायन्ते हि दूरतः।।(24)

नासै   रोग   हरै  सब   पीरा,
जपत निरन्तर हनुमत बीरा।

हनुमन्तं      कपीशञ्च
     ध्यायन्ति सततं हि ये।
नश्यन्ति व्याधयः तेषां
     रोगाः दूरीभवन्ति च।।(25)

संकट   ते    हनुमान     छुडावैं,
मन क्रम वचन ध्यान जो लावै।

मनसा  कर्मणा वाचा
       ध्यायन्ति हि ये जनाः।
दुःखानि च प्रणश्यन्ति
        हनुमन्तम् पुनः पुनः।।(26)

सब   पर  राम  तपस्वी   राजा ,
तिनके काज सकल तुम साजा ।

नृपाणाञ्च नृपो रामः
      तपस्वी    रघुनन्दनः।
तेषामपि च कार्याणि
      सिद्धानि भवता खलु ।।(27)

और मनोरथ  जो कोई  लावै ,
सोई अमित जीवन फल पावै ।

कामान्यन्यानि सर्वाणि
       कश्चिदपि करोति च ।
प्राप्नोति   फलमिष्टं  स
        जीवने  नात्र  संशयः।।(28)

चारों जुग परताप तुम्हारा,
है प्रसिद्ध जगत उजियारा।

कृतादिषु  च  सर्वेषु
     युगेषु स प्रतापवान् ।
यशः कीर्तिश्च सर्वत्र
     देदीप्यते   महीतले ।।(29)

साधु सन्त के  तुम रखवारे ,
असुर निकन्दन राम दुलारे ।

साधूनां खलु सन्तानां
       रक्षयिता कपीश्वरः।
राक्षसकुलसंहर्ता
        रामस्य प्रिय वानर ।।(30) 

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता ,
अस वर दीन जानकी माता ।

सिद्धिदो निधिदस्त्वञ्च
       जनकनन्दिनी स्वयम् ।
दत्तवती   वरं   तुभ्यं
      जननी   विश्वरूपिणी ।।(31)

राम रसायन तुम्हरे  पासा ,
सदा रहो रघुपति के दासा ।

कराग्रे    वायुपुत्रस्य
     चौषधिः रामरूपिणी।
रामस्य कोशलेशस्य
     पादारविन्दवन्दनात्।।(32)

तुम्हरे  भजन  राम  को पावै,
जन्म जन्म के दुख बिसरावै।

पूजया    मारुतपुत्रस्य
      नरो प्राप्नोति राघवम् ।
जन्मनां कोटिसंख्यानां
      दूरीभवन्ति  पातकाः।।(33)

अन्त काल रघुवर पुर जाई ,
जहां जन्म हरिभक्त कहाई ।

देहान्ते च पुरं रामं
      भक्ताः हनुमतो सदा।
प्राप्य जन्मनि सर्वे
       हरिभक्ताः पुनः पुनः।।(34)

और  देवता  चित्त  न धरई ,
हनुमत सेइ सर्व सुख करई ।

देवानामपि   सर्वेषां
       संस्मरणं वृथा खलु।
कपिश्रेष्ठस्य सेवा हि
        प्रददाति सुखं परम्।।(35)

संकट   ते    हनुमान   छुडावै ,    
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।

करोति   संकटं  दूरं
    संकटमोचनो कपिः।
नाशयति च दुःखानि
     केवलं स्मरणं कपेः।।(36)

जय जय जय हनुमान गोसाईं ,
कृपा  करहु  गुरुदेव  की  नाईं।

जयतु वानरेशश्च
      जयतु    हनुमत्प्रभुः।
गुरुदेवकृपातुल्यं
       करोतु मम मङ्गलम्।।(37)

जो सत बार पाठ कर कोई ,
छूटहि बन्दि  महासुख होई ।

श्रद्धया  येन  केनापि
       शतवारञ्च पठ्यते।
मुच्यते बन्धनाच्छीघ्रम्
       प्राप्नोति परमं सुखम् ।।(38)

जो यह पढै हनुमान चालीसा,
होय   सिद्ध  साखी   गौरीसा।

स्तोत्रं  तु  रामदूतस्य
  चत्वारिंशच्च संख्यकम् ।
पठित्वा सिद्धिमाप्नोति
   साक्षी कामरिपुः स्वयम् ।।(39)

तुलसीदास सदा हरि चेरा ,
कीजै नाथ हृदय मँह डेरा ।

सर्वदा रघुनाथस्य
      तुलसी सेवकः परम्।
विज्ञायेति कपिश्रेष्ठ
       वासं  मे हृदये  कुरु।।(40)

पवनतनय  संकट हरन
              मंगल  मूरति  रूप ।
राम लखन सीता सहित
              हृदय बसहु सुर भूप ।।

विघ्नोपनाशी पवनस्य पुत्रः
     कल्याणकारी हृदये कपीशः।
सौमित्रिणा राघवसीतया च
      सार्धं  निवासं  कुरु रामदूत ।। 

What is Hanuman to India


Abstract Submission Form

Instructions:
  • Please use the Sentence case while entering all fields other than Paper Title. For example, enter Sharma not SHARMA or sharma, enter Mumbai not MUMBAI or mumbai
  • Please use the Upper-lower case for paper title as Purchasing Attitudes of Youth in Mumbai not purchasing attitudes of youth in mumbai or PURCHASING ATTITUDES OF YOUTH IN MUMBAI
  • Do not  enter name of the city and country when entering name of your institution.



Main Author
Co-Author1
Co-Author2
Co-Author3
Co-Author4
Title
 Mrs




First Name
 Leena




Last Name
 Mehendale




Email
 Leena.mehendale@gmail.com




Organization
 Kaushalam Trust




Address
 50,Lokmanya Colony Paud Road




City
 Pune




Paper Title
 Shriramdootam sharanam prapadye (Hindi)
Presentation Type
Regular -On power point
Topics
 Hanuman
Abstract
Hanuman represents a unique spirit of Strength, devotion, valour and commitment towards his friends and leader. Himself a great counsellor and leader, he never goes after power and throne. Also known as Shivansh, he harmonises reltionship of shaiva and Vaishnav cults. While Tulsi depicts him as Sankatmochan, Guru Ramdas actually established Hanuman temples and Balopasana as a counter to atrocities of Aurangjeb. Hanuman also described as Keelak for Ram is a deity to simultaneously learn devotion and effectiveness. Today’s Indian society need more symbols like Hanuman to practise ultimate sacrifice for Nation.
Keywords
 Strength
 Devotion
 Chaturya
 Symbol
 Rashtra