भगवद्गीता
द्वितीयोध्यायमें
धर्मका स्वरूप
भगवद्गीताका
विवेचन विविध व्यक्तियोंने
विभिन्न अंगोंसे किया है।
आदि शंकराचार्यसे वर्तमान
काल तक शायद ही कोई भारतीय
तत्ववेत्ता
होगा जिसने अपने तरहसे गीताकी
व्याख्या ना की हो।
अब तो मैनेजमेंट गुरु भी इस
ग्रंथको मैनेजमेंटकी पढ़ाईका
अनूठा
साधन बताते हैं।
मैं यहाँ
केवल इतनी
ही चर्चा प्रस्तुत कर सकती
हूँ
कि गीताके
जो वचन मेरे मनको भा गए,
उन्हें
आत्मसात करनेकी और उसी अनुसार
आचरण करनेकी प्रज्ञा मेरे
मनमें उपजी
और आचरणके अनुभवसे समझ आया
कि यही धर्म है,
उनका
वर्णन आपके सम्मुख रखूँ।
गीताका प्रसंग क्या है यह इतिहास सर्वविदित है।चिंतामें डूबा हुआ धृतराष्ट्र व्यासजी के पूछने पर कहता है कि आप मुझे युद्ध देखनेकी दिव्य दृष्टि ना दें, वह मुझसे नहीं देखा जाएगा। यह संजय जो मेरा सारथी और सलाहकार है, जो स्वयं विद्वान है, नीति-अनीति को जानता है इसे दिव्यदृष्टि दें, यही मुझे बताए। इसी कारण गीताका आरंभ "धृतराष्ट्र" उवाच से होता है और पहला ही शब्द है धर्मक्षेत्रे अर्थात जो क्षेत्र ही अपने निवासियोंको धर्म भावनासे भर देता है, धार्मिक बना देता है। तो हे संजय, ऐसे कुरुक्षेत्रमें मेरे और पांडुके बेटोंने क्या क्या किया ?
यह कुरुक्षेत्र धर्मका आगर कैसे बना ? महाभारतमें वर्णन है कि पांडवों से भी पचास-साठ पीढ़ियों पूर्व यहाँके राजा कुरुने इसे धर्मक्षेत्र बनाया। कैसे? तो अगणित बार जोत कर। इतना ज्योता कि आज भी यहाँकी जमीनमें पचास फीटकी गहराई तक भी मुलायम मिट्टी ही निकलती है, कठिन पाषाण नहीं निकलते। यह कृषि भी एक धर्म ही है। अंततः हारकर इंद्रको यह आश्वासन देना पड़ा कि कुरुक्षेत्रमें जो व्यक्ति ईश्वरचिंतन करते हुए अन्न त्यागसे मृत्युका वरण करेगा अथवा क्षत्रिय धर्म निभाते हुए युद्धमें मृत्युको प्राप्त होगा वह स्वर्गका अधिकारी होगा।
संजयके वर्णनसे हमें ज्ञात होता है कि कौरवोंके सेनापति व सबके पितामह भीष्मके शंखनादसे उत्साहमें भरकर अर्जुन भी शंखध्वनि करता है और अत्यंत अधीरतासे दोनों सेनाओंको देखने हेतु श्रीकृष्णसे निवेदन करता है कि रथको दोनों सेनाओंके मध्य ले चलो। मैं देखूं तो सही कि मुझे जीतकर दुर्योधनका प्रिय करनेकी इच्छासे यहां कौन-कौन आया है।लेकिन वही अर्जुन क्षण मात्रमें ही यह देखकर गलितगात्र हो जाता है कि दोनों ओर तो मुझे अपने गुरु, पूजनीय एवं संबंधी ही दिख रहे हैं।यदि युद्धमें ये ही मारे जाने वाले हैं तो हम युद्ध जीत कर भी क्या पा लेंगे ? स्वजनोंके मोहमें अर्जुन ऐसा डूबता है कि पृथ्वीका अथवा स्वर्गका राज्य भी उसे नहीं चाहिए, वरन शत्रुके हाथों मारा जाना भी चलेगा परंतु युद्ध नहीं करूँगा, ऐसी उसकी मनःस्थिति हो जाती है।
कई
बार कुछ संशयात्मा
प्रश्न उठाते हैं कि क्या
धर्मका विवेचन युद्ध भूमि पर
किया जा सकता है और वह भी इतने
विस्तारसे ?
क्या
वह उचित समय है?
मेरे
विचारमें यह शंका अनुचित है।
युद्ध ऐसी घटना है जिसके विषयमें
अविवेकीको
अधिक विचार नहीं करना पड़ता
है।
केवल विवेकशील व्यक्ति ही
उसे टालनेके विषयमें सोचता
है।
वह पांडवोंने भी किया था और
जब हर प्रयासके
बावजूद पश्चात्
यह पाया कि
युद्धको नहीं टाला जा सकता,
तब
वे युद्धमें उतरनेको विवश
हुए।
अर्थात विवेक व विचारको आजमानेका
समय
बीत चुका था और अब अटल हो चले
युद्धको लड़नेका समय आ चुका
था।
उस क्षण युद्धमें पूरी एकाग्रतासे
उतरना ही धर्म था।वही
करनेके लिए अर्जुनको समझाना
आवश्यक था कि
किसी दूरस्थ
भविष्यकी संभावना पर विचार
अवश्य करो परंतु जब कर्मका
क्षण सम्मुख उपस्थित हो जाए
तो उस क्षणके
द्वारा
व्याख्यायित
कर्मको
करना ही धर्म है।निर्णायक
कालमें मीनमेख
करना धर्म नहीं है।
लेकिन
श्रीकृष्णको तत्काल यह भान
भी हो जाता है कि अर्जुनका
अवसाद अत्यंत
गहरा है,
उसपर
कार्पण्यदोष
छा
गया है और वह तीव्रतासे धर्मसंमूढ
हो गया है।उसे
धर्मका पूरा रूप समग्रता से
समझाए बिना धर्मचैतन्यका उदय
नहीं होगा।
इसी कारण पहले झटकेमें इसे
डांट फटकार लगाते हुए भले ही
कृष्णने उसकी शंकाको
अनार्यजुष्ट,
अकीर्तिकर
या क्लैब्य
कहा हो,
भले
ही उसे हृदयकी दुर्बलता त्यागकर
"उत्तिष्ठ"
का
आदेश दिया हो,
पर
कृष्णने जान
लिया कि यह जो अपना दोष छुपानेके
लिए बड़ी-बड़ी
प्रज्ञाकी बातें कर रहा है,
उसे
तर्कशुद्धतासे धर्मका सही
स्वरूप समझाना होगा।उसे
बताना होगा कि वह जिस धर्मका
बखान कर रहा है,
सच्चा
धर्म उससे कुछ अलग ही है।
आगे
चौथे अध्यायमें
श्री कृष्णने अपनी प्रतिज्ञा
बताई है "
धर्मसंस्थापनार्थाय
संभवामि युगे युगे "
इसलिए
भी आवश्यक है कि अर्जुनके
सम्मुख धर्मका पूरा ही विवेचन
रखा जाए,
आधा
अधूरा रखनेपर अर्जुन भी स्वीकार
नहीं करेगा।
किसीसे आज्ञापालन
करवाना और किसीके मनकी गहराईमें
अपनी बात उतारना ताकि वह उसे
आत्मसात करे,
दोनोंमें
अंतर है।आज्ञा
हो तो संशयकी स्थिति बनी रहती
है।
लेकिन युद्ध विजयके लिए अर्जुनके
अंतर्मनतक
यह स्पष्टतासे पहुंचाना होगा
कि धर्म क्या है और उस क्षण
युद्ध करना ही धर्म है।
इसीलिए इतना विस्तार और वह
भी उसी क्षण,
वहींपर
दोनों
सेनाओंकेके
मध्यमें अर्जुनको समझाने
हेतु आवश्यक था।
गीता
का दूसरा अध्याय सांख्ययोग
धर्म संबंधी कई सूत्रोंको
बताता है। श्रीकृष्णने प्रथमतः
धर्मका तत्व कहा कि विगत और
अनागत दोनों क्षणोंका विचार
और उनका शोक छोड़कर वर्तमान
क्षणको निभाओ।जो
भूतकालमें घट गया और जो अभीतक
भविष्यके कोहरेमें है दोनोंके
विषयमें सोचना पंडिताई नहीं
है,
धर्म
नहीं है।
हे अर्जुन,
जिस
धर्मसंकल्पना के आधारसे
तुम इस युद्धको अधर्म कह रहे
हो वह संकल्पना ही गलत है।
युद्ध करना या
न करना,
स्वजनोंकी
हत्या करना या न करना,
इससे
धर्मका निर्णय नहीं होता वरन
सम्मुख उपस्थित क्षणके द्वारा
व्याख्यायित
कर्मको करना ही धर्म है।
यहाँ
एकत्रित हुए योद्धाओंको
मारने वाला तू कौन है?
जो
आघात-
प्रत्याघात
होने वाले हैं,
वे
शरीरके साथ होने वाले है,
आत्मा
तो अविनाशी है।आत्मा
अपने देह रूपी वस्त्रको उसी
प्रकार बदलता
रहता है जिस प्रकार मनुष्य
पुराने वस्त्रको त्यागकर नए
अपनाता है।
भूतकालमें
ऐसा कोई भी समय
नहीं हुआ जब मैं या तुम नहीं
थे और
भविष्यमें भी
कभी ऐसा समय
नही
आएगा।आत्माकी
इस अविनाशिताको तू
धर्म जान।
आगे
श्रीकृष्णने
धर्मके
सारभूत
तीन बातें
कहीं -पहली
यह
कि मनुष्य सुखदुःख,
लाभालाभ
या
जयपराजयको स्थिर
बुद्धिसे देखे क्योंकि ये
सारे केवल शरीरके व्यापार
हैं आत्माके नहीं।
श्रीकृष्णने
मात्रास्पर्श शब्दका प्रयोग
किया
है।
सुख-दुःख
आदि मानसिक भावोंसे इंद्रियोंमें
जो विभ्रम होते हैं वह मात्रास्पर्श
हैं,
अनित्य
हैं,
क्षणिक
हैं,
इसलिए
हे अर्जुन,
उनकी
तितिक्षा करना सीखो
और उनके प्रति
समत्व बुद्धि रखो।तभी
तुम्हारी बुद्धि स्थिर रहेगी।
स्थितप्रज्ञकी
व्याख्यामें
श्रीकृष्ण कहते
हैं नाभिनंदति
न द्वेष्टि।अर्थात
शरीरमें उठनेवाले
मात्रास्पर्शसे जो आनंदित
भी नहीं होता और उद्वेलित भी
नहीं होता वह स्थितप्रज्ञ है
और स्थितप्रज्ञता
ही धर्म है।
सुखदुःख
या लाभालाभकी
भावना मनुष्यमें क्यों आती
है ?
क्योंकि
वह जब कर्म करता है तब उसके
फलकी इच्छा भी रखता है।
परंतु इच्छित फलकी प्राप्ति
अथवा अप्राप्ति
होते ही वह सुख या दुखका अनुभव
करता है।
इसलिए हे
अर्जुन,
तू
केवल कर्मपर अपना अधिकार मान
परंतु कर्मफलको अपना अधिकार
मत समझ।
तभी तू
सुख और दुखके प्रति स्थिर
बुद्धि रख पाएगा।
परंतु
इसका अर्थ यह नहीं कि तू कर्मके
प्रति उदासीन और अकुशल हो जाए।
कर्मको पूरी श्रद्धासे और
पूरी कुशलतासे करना यही धर्म
है,
यही
योग है।अपने
कर्मोंको कुशलतासे
करो,
उत्कृष्ट
कर्म करो।
अच्छा फल मिले,
उत्तम
से उत्तम फल मिले,
इसके
लिए प्रयत्नपूर्वक व स्वाध्यायपूर्वक
कर्म करो,
यही
धर्म है।
बस इतना ध्यान रहे कि फलके
प्रति तुम्हें निष्काम भाव
रखना है।
फल जैसा भी है उसे मुदित मन और
स्थिर
बुद्धिसे
स्वीकारना
है।
उत्तम
कर्म,
निष्काम
कर्म,
और
फलको निष्काम भावसे स्वीकारनेके
लिए ज्ञानकी आवश्यकता है,
अभ्यास
और वैराग्यकी आवश्यकता है।इनके
साधन-वर्णन
के बिना धर्मचिंतन पूरा नही
होगा।उसीको अगले अध्यायोंमें
समझाया है।
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