शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2018

१महाभारत व्याख्यान१ पांडवजन्माचे अद्भुत भाग २ विदुर Mahabharat 11 Part ...

महाभारत व्याख्यान गीता उपदेशातील धर्माचे स्वरूप -३ MAHABHARAT 47

महाभारत व्याख्यान ३५ वनपर्वातील कथानके भाग १ दि ६ डि. २०१७

महाभारत व्याख्यान १५ भाग १ लाक्षागृहाचे राजकारण on 5 Jul 2017Mahabhara...

महाभारत व्याख्यान २७ भीम व नकुलाचा दिग्विजय Mahabharat part 27 on 4 ऑक्...

महाभारत व्याख्यान ६४ भाग २ अष्टावक्रांना ज्ञानोपदेश mahabharat 64 on 4 J...

महाभारत व्याख्यान ६४ भाग १ वृत्रासुरवर विजय mahabharat 64 on 4 Jul 2018

श्री शिधये यांचे शंखवादन

महाभारत व्याख्यान १९ कौरव कपटाचा तिसरा अध्याय भाग २ Mahabharat 19

महाभारत व्याख्यान १९ कौरव कपटाचा तिसरा अध्याय भाग १ Mahabharat 19 Part 1

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2018

ब्रह्मकुमारी संस्थाके एक चर्चासत्रमें - बालक-पालक संबंध कैसे हों

ब्रह्मकुमारी संस्थाके एक चर्चासत्रमें मैं --
बच्चोंके साथ कभी बच्चा बनकर, कभी माता-पिता बनकर, कभी गुरु बनकर तो कभी मित्र बनकर सहना पडता है । और कई बार पद्मपत्रमिवाम्भसा की वृत्ति भी स्वीकारनी पडती है। 
लेकिन यह तथ्य है कि मातापिताका संबल रहे तो बच्चे आत्महत्या नही करेंगे, न पराजयसे हताश होंगे। बहुत संभव है कि अच्छे इन्सान बनेंगे।

https://www.youtube.com/attribution_link?a=9CmVJX3Fna8&u=%2Fwatch%3Fv%3DIr0_fxK6tI0%26feature%3Dplayer_embedded

महाभारत व्याख्यान ४आस्तिकपर्वातील विद्यासाधना भाग ३ Mahabharat 4 part 3 ...

महाभारत व्याख्यान ११ पांडवजन्माचे अद्भुत भाग १ Mahabharat 11 Pandu Janm ...

महाभारत व्याख्यान ४ भाग २ जरत्कारु Mahabharat 4 part 2 jaratkaru

महाभारत व्याख्यान ४ आस्तिकपर्वातील विद्यासाधना भाग १ Mahabharat 4 part ...

महाभारत व्याख्यान ३० पांडव-वनगमन भाग ३ Mahabharat 30 Pandav Vanprasthan ...

सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

शुभ महालय

शुभ महालय

शरद ऋतु के आते ही हल्की-हल्की ठंड के साथ शुरू हो जाती है बंगाल में ख़रीदारी की धूम, दुर्गा महोत्सव की तैयारी। दुर्गा पूजा शुरू होने के कई महीने पहले से ही बाज़ार में लोगों की भीड़ और नए वस्त्राभूषण ख़रीदती महिलाओं का कलरव हर गली, हर मोड़ पर सुनाई देने लगता है। 

आज महालया है। सुबह-सुबह उठ गया है सारा मुहल्ला। रेडियो पर चल रहा है चंडी पाठ और घर-घर से आ रही है आवाज़ 'या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता' उनींदी आँखों से शाल ओढे घर का हर सदस्य सुन रहा है चंडी पाठ रेडियो के सामने बैठा। घर में टी.वी. होने पर भी रेडियो पर चंडी पाठ सुनने की प्रथा को तोड़ना आसान नहीं। चंडी पाठ में महिषासुरमर्दिनी की कथा एक मधुर और लयबद्ध सुर में संस्कृत और बांग्ला में मंत्रोच्चारण के साथ सुनाते हैं बीरेंद्र कृष्ण भद्र। आज वे तो जीवित नहीं मगर उनकी आवाज़ अमर है। कथा कुछ इस तरह से है -

असुर महिष ने घोर तपस्या की और ब्रह्म देव प्रसन्न हो गए। महिष ने अमरता का वरदान माँग लिया मगर ब्रह्म देव के लिए ऐसा वरदान देना संभव नहीं था तब महिषासुर ने वरदान माँगा कि अगर उसकी मृत्यु हो तो किसी औरत के हाथों। उसे विश्वास था कि निर्बल महिला उस शक्तिशाली का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। ब्रह्म देव ने वरदान दे दिया और शुरू हो गया महिषासुर का उत्पात। सभी देवता उससे हार गए और इंद्र देव को भी अपना राजसिंहासन छोड़ना पड़ा। महिषासुर ने ब्राह्मणों और निरीह जनों पर अपना अत्याचार बढ़ा दिया। सारा जग त्राहि-त्राहि कर उठा और तब सभी देवों ने मिलकर अपनी-अपनी शक्ति का अंश दे कर देवी के रूप में एक महाशक्ति का निर्माण किया। नौ दिन और नौ रात के घमासान युद्ध के बाद देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध किया और वो महिषासुरमर्दिनी कहलाईं। इस कथा को सुनते-सुनते चंडी पाठ के दौरान आँखों में पानी भर आना एक अदभुत मगर स्वाभाविक-सी बात है। महालया के दिन ही माँ दुर्गा की अधूरी गढ़ी प्रतिमा पर आँखें बनाईं जाती हैं जिसे चक्षु-दान कहते हैं। इस दिन लोग अपने मृत संबंधियों को भी याद करते हैं और उन्हें 'तर्पण' अर्पित करते हैं। महालया के बाद ही शुरू हो जाता है देवीपक्ष और जुट जाते हैं सब लोग त्यौहार की तैयारी में, ज़ोर-शोर से।

माना जाता है कि हर साल दुर्गा अपने पति शिव को कैलाश में ही छोड़ अपने बच्चों गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ सिर्फ़ दस दिनों के लिए पीहर आती हैं। उनकी प्रतिमा की पूजा होती है सातवें, आठवें और नौवें दिन। छठें दिन या षष्ठी के दिन दुर्गा की प्रतिमा को पंडाल तक लाया जाता है। दुर्गा की प्रतिमाएँ एक महीने पहले से गढ़नी शुरू हो जाती हैं और उससे भी पहले से तैयार होने लगते हैं पंडाल। बंगाल का कुमारटुली प्रसिद्ध है दुर्गा की सुंदर प्रतिमाएँ गढ़ने के लिए जहाँ मिट्टी से ये मूर्तियाँ बनाईं जाती हैं और विदेशों तक में भेजी जाती हैं। कलकत्ता में होने वाली दुर्गा पूजाओं में लगभग ८० प्रतिशत प्रतिमाएँ कुमारटुली से बन कर आती हैं। लकड़ी के ढांचे पर जूट और भूसा बाँध कर तैयार होता है प्रतिमा बनाने का आधार और बाद में मिट्टी के साथ धान के छिलके को मिला कर मूर्ति तैयार की जाती है। प्रतिमा की साज-सज्जा बड़ी मेहनत के साथ की जाती है जिसमें नाना प्रकार के वस्त्राभूषण उपयोग में लाए जाते हैं।

आजकल मूर्ति को सुंदर और कलात्मक बनाने के लिए न सिर्फ़ सिल्क के वस्त्र बल्कि अन्य अनेक तरह की वस्तुओं का प्रयोग होने लगा है। इसी तरह पंडाल भी न जाने कितने तरह के बनने लगे हैं। अमृतसर का स्वर्ण मंदिर हो या पैरिस का ईफ़िल टावर- कलकत्ता में बाँस और कपड़े से बने ये दुर्गा पंडाल आप को धोखे में डाल सकते हैं। पंडाल को रोशनी से सजाया जाता है और सारा शहर जगमग कर उठता है। षष्ठी के दिन प्रतिमा को पंडाल में लाकर रखा जाता है और शाम को 'बोधन' के साथ दुर्गा के मुख से आवरण हटाया जाता है। महाषष्ठी के दिन घर की औरतें उपवास रखती हैं और शाम को मैदे से बनी पूरियाँ खाती हैं। उपवास तो नहीं मगर 'लुचि-तरकारी' यानि पूरी सब्ज़ी खाने के इस रस्म में घर के सभी लोग भाग लेते हैं। इस दिन नए कपड़े पहनने का रिवाज़ है और छोटे बच्चे नए कपड़े पहने हर जगह चहकते दिखाई देते हैं। पास के पंडाल में मूर्ति के दर्शन कर आना आज से शुरू होता है जो लगातार चार दिन तक चलता है।

दुर्गा पूजा के ये चार दिन। हर जगह खुशी और उल्लास। लोग हर रोज़ सुबह उपवास रख माँ दुर्गा के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित करने दुर्गा पंडाल जाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। इन दिनों हर सुबह पुष्पांजलि के निर्धारित समय पर पंडाल पहुँचने के लिए घर में भागमभाग और पुष्पांजलि का कभी भी निर्धारित समय पर न हो पाना जैसे इन दिनों का हिस्सा होता है। सुबह-सुबह ही दुर्गा पंडाल में महिलाओं को लाल पाड़ की साड़ी पहने पूजा के काम में व्यस्त देखा जा सकता है। कोई महाभोग की तैयारी करती दिखाई देती हैं तो कोई फूल की माला गूँथती। लोगों की भीड़ और धूप बाती की आध्यात्मिक गंध के साथ ढाक (ढोल) की आवाज़ पूरे वातावरण को पवित्र कर देती हैं। माँ दुर्गा की आरती होती है और उसके बाद उन्हें भोग लगाया जाता है। दोपहर को सभी उपस्थित जनों को खिचड़ी और तरकारी का प्रसाद खिलाया जाता है। दुर्गा पूजा के इन दिनों में स्थानीय कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का पूरा अवसर मिलता है और हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं।

महाअष्टमी या नवरात्रि के आठवें दिन का अपना महत्व है। अष्टमी के दिन होती है संधिपूजा। संधिपूजा का एक निश्चित मुहूर्त होता है और उस मुहूर्त में बलि चढ़ाई जाती है। पुराने ज़माने में लोग बकरे की बलि चढ़ाते थे मगर ये प्रथा अब ना के बराबर रह गई है। ज़्यादातर जगहों पर किसी फल जैसे कुम्हड़े आदि की बलि चढ़ाई जाती है। मंत्रोच्चारण के साथ १०८ जलते दीयों के बीच उस संधिक्षण की बलि के लिए लोग निर्जल उपवास रखते हैं और उन कुछ क्षणों के लिए सारा जग जैसे शांत हो जाता है। कहते हैं उस संधिक्षण में माँ के प्राण आते हैं। पूजा के नवें दिन या महानवमी को आरती भोग आदि के साथ-साथ शाम को पंडाल में तरह-तरह के कार्यक्रमों और प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। नवमी के दिन सुबह एक छोटी लड़की को साड़ी पहना कर सजाकर उसकी पूजा की जाती है जिसे 'कुमारी पूजा' कहते हैं। उस कुमारी पूजा को देख कर वहाँ उपस्थित हर दूसरी छोटी लड़की 'कुमारी' के भाग्य से ईर्ष्या करती है।

शाम को 'धूनुचि नाच' प्रतियोगिता में लड़के हिस्सा लेते हैं। 'धूनुचि' मिट्टी के बड़े सुराहीनुमा प्रदीप होते हैं जिनमें नारियल के छिलकों को जलाया जाता है और 'धूनो' नामक सुगंधित पदार्थ डाल कर उन प्रदीपों को हाथ में ले कर लड़के अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। एक साथ 4-5 धूनुचि ले कर और उसमें से गिरती आग के बीच नाचते ये जोशीले लड़के जैसे माँ दुर्गा को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बीच-बीच में उस गिरती आग को आसपास खड़े लोग ज़मीन पर से हटा देते हैं ताकि नाचने वाले का पाँव न पड़ जाए उन चिंगारियों पर। कभी-कभी इस मतवाले माहौल में लड़के ढाकिए से ढाक ले कर बजाने लगते हैं अपने को ज़मीन पर नहीं पाते। धूनुचि नाच के अलावा 'शंख वादन' प्रतियोगिता आयोजित होती है जिसमें बिना साँस लिए सबसे देर तक जो शंख बजाता है उसे विजयी घोषित किया जाता है। शंख वादन प्रतियोगिता में साधारणत: महिलाएँ हिस्सा लेती हैं। अगले दिन दशमी को सुबह माँ दुर्गा की पूजा के साथ ही उन्हें मंत्रोच्चारण के साथ विसर्जित कर दिया जाता है मगर प्रतिमाओं का विसर्जन होता है शाम को जब हर प्रतिमा के साथ एक बड़ी भीड़ होती है। प्रतिमा के विसर्जन से पहले, विवाहित महिलाएँ माँ दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पंडाल आती हैं और वहाँ होली की ही तरह सुहागिनें सिंदूर से खेलती हैं। माहौल कुछ ऐसा बन जाता है जैसे लाड़ली बेटी दुर्गा मायके से ससुराल जा रही हो और सभी उसे विदा करने आए हों।

विजयादशमी के दिन छोटे अपने से बड़ों के पैर छू कर आशीर्वाद लेते हैं और मुँह मीठा करते हैं। लोग एक दूसरे से मिलने सबके घर जाते हैं और ये प्रक्रिया कई दिनों तक चलती रहती हैं। इस तरह संपूर्ण होती है दुर्गा पूजा और शुरू होता है फिर एक लंबा इंतज़ार साल भर का। कलकत्ता के अलावा भारत के अन्य प्रदेशों में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी दुर्गा पूजा बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है। अक्तूबर का महीना और शरद ऋतु की ठंड के आते ही जैसे मन में कहीं एक खुशी का-सा आभास होने लगता है। दुर्गा पूजा के संपूर्ण होते ही प्रतिमा के विसर्जन के बाद शांतिजल (एक तरह का पूजा का जल जो पुजारी बिल्वपत्र से सब पर छिड़कते हैं) लेने आए लोगों का नि:स्तब्ध पंडाल को देख मन का उदास हो जाना जैसे स्वाभाविक-सा जान पड़ता है। बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में चाहे राम के वनवास से आगमन पर दशहरा मनाया जाता हो या दुर्गा देवी द्वारा महिषासुर के वध को याद किया जाता हो भारतीय अपनी परिष्कृत सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हर जगह गर्व के साथ इन परंपराओं का निर्वाह कर रहे हैं।

#मानोशी
१६ अक्तूबर २००५
(अभिव्यक्ति-हिंदी में प्रकाशित )

बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

मंत्रपुष्पांजली - राष्ट्रवंदना

*मंत्रपुष्पांजली* हि खरी हिंदूंची राष्ट्रीय प्रार्थना आहे हि सर्वांनी (पाठ) मुखोद्गत करावी

खरं तर *मंत्रपुष्पांजली* हे एक *राष्ट्रगीत* आहे, *विश्वप्रार्थना* आहे. त्यात एकात्म राष्ट्रजीवनाची आकांक्षा आहे. आबालवृद्धांच्या हृदयांतील ज्योत जागविणारे स्फुर्तीगान आहे. द्रष्ट्या ऋषीजनांनी जाणतेपणाने प्रस्थापित केलेला प्रघात आहे. त्या *विश्वगीताचा* अर्थबोध सामान्यजनांपर्यंत पोहोचावानव्हे जाणत्यांनी प्रयत्नपूर्वक सामान्यांपर्यंत पोहोचवावा म्हणून या लेखाचे प्रयोजन.

खालील चित्रफीतीत श्री. चारुदत्त आफळे यांचे या विषयावरील विवेचन जरुर श्रवण करावे.

*ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:**ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे स मे कामान्कामकामाय मह्यम्कामेश्वरो वैश्रवणो ददातुकुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:* *ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात्सार्वभौम: सार्वायु आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या* *एकराळिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति**एकदंतायविद्महे वक्रंतुडाय धीमहि तन्नोदंती प्रचोदयात् शुभं भवतु*

*मंत्र पुष्पांजलीमध्ये* एकूण चार कडवी आहेत ती खालीलप्रमाणे- या मंत्रांचा अर्थ समजणे आवश्यक आहे. अर्थ समजला की अनुभूतीचा आनंद नक्कीच होईल. प्रत्येक श्लोकाचा अर्थ येणेप्रमाणेः

श्लोक  १ -
*यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथामानि आसन् तेह नांक महिमानः सचन्तयत्र पूर्वे साध्याःसंति देव:*

श्लोकाचा अर्थ – देवांनी यज्ञाच्याद्वारे यज्ञरुप प्रजापतीचे पूजन केले. यज्ञ आणि तत्सम उपासनेचे ते प्रारंभीचे धर्मविधी होते. जिथे पूर्वी देवता निवास (स्वर्गलोकी) करीत असत ते स्थान यज्ञाचरणाने प्राप्त करून साधक महानता (गौरव) प्राप्त करते झाले.

श्लोक २ - 
*ओम राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने। मनोवयं वैश्रवणाय कुर्महे। स मे कामान् कामाकामाय मह्यं। कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नमः*

श्लोकाचा अर्थ – आम्हाला सर्वकाही (प्रसह्य) अनुकुल घडवून आणणाऱ्या राजाधिराज वैश्रवण कुबेराला आम्ही वंदन करतो. तो कामेश्वरकुबेर कामनार्थी अशा मला (माझ्या सर्व कामनांची )पूर्ति प्रदान करो.

श्लोक ३ (प्रथमार्ध) -
 *ओम स्वस्ति। साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ट्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं।*

श्लोकाचा अर्थ – आमचे सर्व कल्याणकारी राज्य असावे. आमचे साम्राज्य सर्व उपभोग्य वस्तुंनी परिपूर्ण असावे. येथे लोकराज्य असावे. आमचे राज्य आसक्तिरहित,लोभरहित असावे अशा परमश्रेष्ठ महाराज्यावर आमची अधिसत्ता असावी.

श्लोक ३ (द्वितियार्ध)- *समन्तपर्यायीस्यात् सार्वभौमः सार्वायुषः आन्तादापरार्धात्। पृथीव्यै समुद्रपर्यंताया एकरा‌ळ इति।*

श्लोकाचा अर्थ – आमचे राज्य क्षितिजाच्या सीमेपर्यंत सुरक्षित असो. समुद्रापर्यंत पसरलेल्या पृथ्वीवर आमचे एकसंघ दीर्घायु राज्य असो. आमचे राज्य सृष्टीच्या अंतापर्यंत म्हणजे परार्ध वर्ष पर्यंत सुरक्षित राहो.

श्लोक ४ - 
*तदप्येषः श्लोकोभिगीतो। मरुतः परिवेष्टारो मरुतस्यावसन् गृहे। आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवाः सभासद इति।।*

श्लोकाचा अर्थ – या कारणास्तव अशा राज्याच्या आणि राज्याच्या किर्तीस्तवनासाठी हा श्लोक म्हटला आहे. अविक्षिताचा पुत्र मरुताच्या राज्यसभेचे सर्व सभासद असलेल्या मरुतगणांनी परिवेष्टित केलेले हे राज्य आम्हाला लाभो हीच कामना.

संपूर्ण विश्वाच्या कल्याणाचीआकांक्षेची व सामर्थ्याची जाणीव प्रत्येकाला करून देणारीही विश्वप्रार्थना. अंतीम सत्य शोधण्याचे मार्ग अनेक असतीलपंथोपपंथ विविध असतील परंतु सर्वांचा उद्देश एकसर्व मतपंथांच्या विषयी समादरसर्व मतपंथाच्या प्रगतीच्या सर्वांना समान संधी असलेलेसर्वहितकारी राज्य तेव्हांच शक्य आहे जेव्हा संपूर्ण मानवजातीमध्ये सहिष्णु समरस एकात्मतेची भावना असेल.

*राष्ट्राय स्वाहा:*