भास्वती
सरस्वती
भारतीय
संस्कृतिके विकासमें सरस्वती
नदी और देवी दोनोंका अपूर्व
योगदान है जिस कारण आजकी सदीमें
इसका पुनर्भरण हो यह हरेक
भारतीयकी आकांक्षा है। अठारहवीं-
उन्नीसवीं
सदीके यूरोपीय विद्वानोंने
कैसे सरस्वतीको काल्पनिक व
आर्योंको अभारतीयमूलक तथा
विदेशी आक्रमणकारी बताया?
बीसवीं सदीमें
उत्खनन विभाग द्वारा हरप्पन-सरस्वती
सभ्यताकी खोज तथा नासाके
उपग्रह द्वारा भूपृष्ठके
नीचे देखे गये प्रमाणोंसे
सरस्वतीके पुरातनकालीन
अस्तित्वकी पहचानके बाद कैसे
भारतियोंकी भारती जन्मभूमीकी
पहचान सिद्ध होती है?
लीना
मेहेंदलेने इस पुस्तिकामें
सरस्वतीके देदीप्यमान अस्तित्वको
और पुनर्भरणके प्रयासोंको
उजागर करते हुए उसके ऋग्वेदकालीन
वर्णन अर्थात् भारतीय संस्कृतिकी
जननी अंबितमा, देवितमा,
नदीतमाको
हमारे सम्मुख साकार किया है।
Blurb matter
भास्वती सरस्वती
भास्वती सरस्वती
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------
प्रकरण
–
१---
ठीकठाक
किया ०७-०८-२०१८
होना
एक
नदीका
भारतीय
संस्कृतिकी
अनेकानेक
विशेषताओंमें
एक
यह
भी
है
कि
चराचरमें
आत्माका
अस्तित्व
माना
गया
है।
अत:
पर्वत,
नदियाँ,
समुद्र,
अग्नि,
वायु,
सूर्य,
चंद्र,
यम
आदिकी
भी
जीवधारी
रूपमें
कल्पना
की
गई
है।
जैसे,
कठोपनिषदमें
स्वयं
यम
ही
नचिकेतको
ब्रह्मज्ञान
देता
है
अथवा एक
अन्य
कथामें
सावित्रीके
साथ
संभाषण
करते
हुए
उसके
द्वारा
निरुत्तर
कर
दिया
जाता
है
।
अग्नि
स्वयं
जाबालिको
ब्रह्मज्ञान
कराता
है
और
अन्यत्र
अर्जुन
और
कृष्णसे
खाण्डव
वनभक्षणका
दान
माँगता
है।
ऋग्वेदकी
प्रथम
ऋचाके
अनुसार
"अग्निमीळे
पुरोहितं"
-- अग्नि
ही
हमारे
यज्ञोंमें
पुरोहित
है
और
ईशावास्य
उपनिषदमें
अग्निकी
ही
प्रार्थना
की
गई
कि
हे
अग्ने,
"नय
सुपथा
राये
अस्मान्"
-- तुम
हमें
सुपथ
पर
ले
चलो।
इसी
क्रममें
नदियोंकी
भी
उदात्त
चरित्रके
रूपमें
मान्यता
है।
ऋग्वेद
कालमें
सरस्वतीको
नदीतमाके
साथ
साथ
अंबितमा
तथा
देवितमा
भी
कहा
गया
है।
अंबितमा
अर्थात्
जिस
नदीने
माताकी
भाँति
भारतियोंकी
सभ्यताको
जन्म
दिया,
उनका
भरण
पोषण
किया
और
भारतीय
संस्कृतिको
एक
ज्ञाननिष्ठ
संस्कृति
बनाया।
नदीतमा
सरस्वतीने भारतभूमिको सुजलाम्
सुफलाम्किया साथही समुद्रमार्गसे
व्यापारकी राह प्रशस्त की।
देवीरूप
सरस्वती
बुद्धिकी
अधिष्ठात्री
देवी
है,
विद्यादायिनी
है।
वही
वाणी
है,
वही
परा-विद्या
है,
वही
कलाकी
निर्मात्री
है
।
जैसे
लक्ष्मी
श्रीपीठोंकी
निवासिनी
है
और
दुर्गा
शक्तिपीठोंकी,
वैसे
ही
सरस्वती
ज्ञानपीठोंकी
निवासिनी
है।
यहाँतक कि
कुण्डलिनी
विद्यामें
सुषुम्ना
नाडीको
सरस्वतीकी
संज्ञा
है।
इस
नाडीके
अन्दर
कुण्डलिनीका
संचार
होनेपर
सर्वज्ञता
प्राप्त
होती
है।
तो
ऐसी
नदीतमा
नदीका
नामजाप
तो
वैदिक
अध्ययन
करनेवाला
हर
भारतीय
करता
ही
था।
नदीसूक्तमें
पूरबसे
पश्चिम
नदियोंके
नाम
गिनाते
हुए
गंगा
व
यमुनाके
पश्चिममें
सरस्वतीका
नाम
लिया
जाता
है।
प्रयागराजमें
स्नान
करके
पुण्य
प्राप्तीकी
इच्छा
रखनेवाले
हर
भारतीयके
मनमें
सरस्वतीका
अस्तित्व
सदासे
बना
रहा
है
।
यहाँ
सरस्वतीका
गुप्तरूपमें
होना
सबको
सदियोंसे
स्वीकार्य
है।
सरस्वतीकी
एक
धारा
अग्निको
समुद्रमें
ले
जानेके
लिये
प्रभास
तीर्थ
होते
हुए
पश्चिमी
समुद्रमें
जाती
है
लेकिन
वह
भी
अपना
प्रवास
अधिकतर
पृथ्वीके
अंदर
छिप
छिप
कर
करती
है
-- बस
कभी
कभी
थोडेसे
विश्रामके
लिये
पृथ्वीके
पृष्ठपर
आती
है,
यह
कथा
भी
जनमानसमें
है
और
सदियोंसे
स्वीकार्य
है।
इसी
कारण
सरस्वती
नदीके
होनेके
विषयमें
भारतियोंके
मनमें
कभी
कोई
शंका
नहीं
रही।
लेकिन
अठारहवीं
सदीमें
पश्चिमी
सभ्यताने
एक
ऐसा
बडा
आक्रमण
किया
जिसने
सोते
हुए
भारतको
जाग
उठनेके
लिये
बाध्य
कर
दिया।
सन
१७५७
में
प्लासीकी
लडाई
जीतकर
अंगरेज
भारतमें
आये
तो
देखा
कि
हर
जगह
संस्कृत
भाषा
एवं
वैदिक
संस्कृतिका
बोलबाला
था।
कश्मीरसे
कन्याकुमारी
तक
और
असमसें
सिंधतक
अनेकानेक
भाषाओंमें
और
सैकडों
छोटे
छोटे
राजाओंमें
बँटे
हुए
होनेके
पश्चात्
भी
इन
सभी
भारतवासियोंको
संस्कृत
भाषा
व
वैदिक
संस्कृतिने
अभिन्नतासे
जोड
रखा
था।
सो
संस्कृतके
प्रति
उत्सुकता
जागना
स्वाभाविक
था।
कोलकातामें
नियुक्त
एक
ब्रिटिश
जज
सर
विलियम
जोन्सने
पाया
कि
कुछ
युरोपीय
भाषाओंकी
संस्कृतके
साथ
साम्यता
थी।
उसने
सन्
१७८६
में
एक
लेख
लिखकर
पश्चिमी
विद्वानोंका
ध्यान
आकर्षित
किया।
इसकी
व्याख्या
करनेके
लिये
आर्योंके
आक्रमणका
सिद्धान्त
बना
जिसके
अनुसार
भारतीय
आर्य
यहाँके
मूल
निवासी
नहीं
वरन्
आक्रमणकारी
थे
जो
पहले
युरेशिया
-- इरानकी
पहाडियोंमें
भटकनेवाली
जमात
थी।
इस
सिद्धान्तकी
पुष्टिके
लिये
युरोपीय
विद्वानोंने
संस्कृतकी
भी
जमकर
पढाई
की।
इनमें
जो
सर्वश्रेष्ठ
संस्कृत
पण्डित
मॅक्समुलर
माना
जाता
है,
उसके
प्रति
स्वामी
दयानंद
सरस्वतीका
कथन
है
कि
इन
पश्चिमी
विद्वानोंका
संस्कृतज्ञान
वैसा
ही
है
जैसा
चलना
सीखनेवाला
कोई
छोटा
बच्चा
लडखडाते
हुए
चले।
इसका
कारण
है
कि
इन
विद्वानोंने
केवल
भाषा
या
उसका
अनुवाद
सीखा
परन्तु
उससे
अभिन्न
जो
सांस्कृतिक
मूल्य
थे
वे
नही
सीखे।
अनुभूतिको
नहीं
जाना
या
समझा।
इस
कारण
उनका
ज्ञान
अधूरा
रहा
और
उनकी
कई
व्याख्याएँ
गलत
हुईं।
पूर्वी
व
पश्चिमी
सभ्यताका
एक
महदन्तर
है।
पश्चिमी
सभ्यताका
केंद्रबिंदु
है
सत्ता
जबकि
पूर्वी
सभ्यताका
केंद्रबिंदु
है
शांति जिसे
सत् चित् आनंदके माध्यमसे
व्यक्त किया जाता है।
संसारकी
प्रत्येक
घटनाकी
व्याख्या
इन
दो
सभ्यताओंमें
इन्हीं
चश्मोंसे
की
जाती
है।
अत:
पश्चिमी
पंडितोंकी
व्याख्या
थी
कि
भारतकी
तत्कालिन
सभ्यता
व
संस्कृति
भी
आर्य
नामक
आक्रमणकर्ताओंके
विजयके
कारण
प्रस्फुटित
व
पल्लवित
हुई।
इसीका
एक
अकथित
निष्कर्ष
यह
भी
रहा
कि
अंगरेज
आक्रांताओंके
कारण
भी
यहाँकी
सभ्यता
और
संस्कृति
और
अधिक
विकसित
होगी।
इन
सारी
व्याख्याओंने
पहले
यूरोपमें और अनन्तर पूरे
विश्वमें एक
नये
विषयकी
पढाईके
द्वार
खोले
जिसका
नाम
था
इण्डोलॉजी।
इसके
तीन
सिद्धान्त
हमारी
विषय-प्रस्तुतिसे
संबंधित
हैं।
पहला
-- कि
आर्योंका
भारत
आक्रमण
कब
हुआ
? दूसरा
-- वेदवर्णित
सरस्वती
क्या
है?
तीसरा
-- पंचांगवर्णित
युगाब्द
क्या
है
और
वेदकालका
निर्णय
देनेमें
उसका
कोई
योगदान
है
या
नहीं?
यूरोपके
विद्वानोंने इसका उत्तर कैसे
दिया ?
पहले
उत्तरके
लिये
बाइबलका
प्रमाण
लिया
गया
जिसके
अनुसार
सृष्टिकी
रचना
आजसे
करीब
६०००
वर्ष पूर्व
अर्थात्
ईपू
(ईसापूर्व)
४०००
के आसपास
हुई
और
विश्वकी
सबसे
पहली
सुमेरियन
सभ्यता
ईपू
२५००
में विकसित
हुई।
ऐसी ही
कुछ
बातोंके
आधारपर युरोपीय
इण्डॉलॉजिस्टने तय किया
कि
आर्य
आक्रमण
ईपू
१५००
में हुआ।
उन्होंने
आगे यह भी कहा कि
चूँकि
आर्य
अधिक
विकसित
थे,
उनके
पास
घोडे
थे,
और
भारतके
आदिम
लोग
अप्रगत
थे,
सो
आक्रमणकारी
आर्य
जीते
और
फिर
यहीं
बस
गये।
यहीं
उन्होंने
संस्कृत
भाषाको
विकसित
किया
और
वेदोंकी
रचना
की
-- जो
अनुमानत:
ईपू
१२००
के आसपास
हुई। यहाँ
दो बातें महत्वपूर्ण हो जाती
हैं कि आर्योंसे पहले भारतके
लोग आदिम गँवार थे और
बाहरी आर्योंने उन्हें हराया।
इसी
क्रममें
बुद्धकालका
निर्णय
करनेमें
इण्डोलॉजिस्टोंको
कोई
कठिनाई
नही
हुई
क्योंकि
वह
निश्चित
रूपसे
सिकंदरके
आक्रमणसे
पहलेका
काल
था
और
उसके
निश्चित
प्रमाण
उपलब्ध
थे।
वह
ईपू
५५०
और ईपू
४५०
के बीचका
काल
था।
लेकिन
रामायण
और
महाभारतका
क्या?
वे
दोनों
केवल
किसी
कविकी
कल्पनाका
आविष्कार
हैं
या
वास्तवमें
घट
चुका
इतिहास?
तो
पश्चिमी
विद्वानोंने
दोनों
ही
ग्रंथोंको
काल्पनिक
घोषित
किया ।
महाभारतके
लिखनेका
काल
ईपू
८००
से ईपू
३००
तक अलग-अलग
विद्वानोंने
अलग-अलग
बताया।
लेकिन
महाभारतमें
एक
वर्णन
है
कि इंद्रप्रस्थमें
राज्याभिषेकके समय
युधिष्ठिरने
अपने
नामसे नया शक चलाया
। इसका
वर्णन आगे वराहमिहिरके ग्रंथमें
भी है। विक्रम संवत् लागू
होनेके पश्चात् युधिष्ठिर
शक विलुप्त हुआ। साथ ही महाभारतमें
यह भी वर्णन है कि उन दिनों
कलियुगका संधिकाल आरंभ हो
चुका था जहाँसे नये युगकी गणना
अर्थात् युगाब्दका आरंभ होता
है। इस
पंचांगका
प्रमाण
आजतकके
पंचांगकर्ता
मानते
हैं
और
सदियोंसे
चले
आ
रहे
पंचांगोंके
अनुसार
यह
घटना
ईपू
३१०२
वें
वर्षमें
हुई।
यही
कारण
हेै
कि
युगाब्द
पंचांग
अंगरेजी
कॅलेण्डरसे
३१०२
वर्ष
आगे
चलता
है।
अर्थात्
आजका
काल
जिसे
कलिकाल
कहा
जाता
है,
वह
५०००
से अधिक
युगाब्दवाला
बताते
हैं।
उसे
मानें
तो
महाभारतके
घटित
होनेका
काल
कमसे
कम
५०००
वर्ष पुराना
हो
जाता
है
जिसकी
व्याख्याका
कोई
उपाय यूरोपीय
इण्डॉलॉजिस्टके पास
नही ।
फिर
यदि
महाभारतको
भी
कपोलकल्पित
कथा
ही
मानें
तब
भी
महाभारतमें,
वेदोंमें
और
अन्यान्य
ग्रंथोंमें
जो
सरस्वतीका
वर्णन
है
उसका
क्या?
तो
चूँकि
सरस्वती
कहीं
दिखती
नहीं
थी
इसलिये
उसे
भी
काल्पनिक
घोषित
कर
दिया।
पूरे
पंचांगशास्त्रको
अंधश्रद्धा
घोषित
किया
गया
था।
सो
युगाब्द
पंचांगपर
पश्चिमी
विद्वान
मौन
ही
रहे।
जोन्ससे
लेकर
मॅक्समुलरके
जीवनकालमें
अर्थात्
१९००
तक आर्योंके
आक्रमणवाला
उसका
सिद्धान्त
पश्चिममें
काफी
मान्यता
प्राप्त
कर
चुका
था।
वह
भारतमें
अंगरेज
शासनको
एक
नैतिकताका
अधिष्ठान
भी
दे
रहा
था
- उचित
ठहरा
रहा
था।
इतना
ही
नही
वरन्
उस
शासनको
भारतीय
समाजकी
उन्नतिका
दूसरा
अध्याय
भी
बता
रहा
था।
इस
प्रकार
"काले,
गँवार
भारतीयोंको"
सभ्य
बनाना
गोरे
लोगोंकी
ईश्वर-प्रदत्त
जिम्मेदारी
भी
बन
गई
जो
"white man’s
burden” कही
जाने
लगी।
विदित
हो
कि
उन्नीसवीं
व
बीसवीं
सदिमें
यूरोपमें
Racial theory --
वंशताका
सिद्धान्त
उदित
हुआ
जिसके
अनुसार
व्यक्तिके
शरीरके
रंगरूप
आदिसे
उसके
सद्गुण
या
अयोग्यता
निश्चित
की
जाती
है।
इसके
अनुसार
माना
गया
कि
गोरा
रंग
ही
सर्वश्रेष्ठ
है और
गोरे रंगका व्यक्ति उच्चगुणवाला
होता है।
लेकिन
आजका
वर्तमान
सन्
१९००
से कहीं
आगे
निकल
आया
है।
१९२१
के आरंभसे
पुरातत्वके
उत्खननोंका
आरंभ
हुआ।
सर्वप्रथम
मोहेन-जो-दारो
तथा
हरप्पामें
पाये
गये
अवशेष
बताने
लगे
कि
वहाँ
किसी
समय
अति-प्रगत
सभ्यताका
वास
था न
कि गँवारोंका।
धीरे
धीरे
अगले
उत्खननोंने
बताया
कि
यह
सभ्यता
एक
अतिविशाल
भूभागमें
फैली
थी। फिर
इण्डॉलॉजिस्टोंने
इस
सभ्यताके
लोपके
लिये
भी
आर्य
आक्रमणको
ही
कारण
बताया।
अर्थात्
यह
सभ्यता
भी
ईपू
१५००
के आसपास
ही
नष्ट
हुई
होगी
इस
प्रकार
उसका
नष्टकाल
निश्चित
हुआ।
फिर
भी
एक
प्रश्न
बचा
रहा।
यदि
आक्रमणकारियोंके
बिना
ही
इतनी
प्रगत
सभ्यता
भारतमें
पहले
पनप
चुकी
हो
तो
अब
"white man’s
burden” का
क्या
होगा?
अभी
यह
विवंचना
चल
ही
रही
थी
कि
अगले
उत्खननोंसे
और
विशेषकर
कार्बन
डेटिंगके
माध्यमसे
पता
चलने
लगा
कि
हरप्पन
सभ्यता
तो
बहुत
पहले
-- अनुमानत:
ईपू
२५००
से
ईपू
२०००
के
बीच
कभी
नष्ट
हुई
थी।
तो
क्या
बाहरी
आर्य
भी
इतने
पुरातन
थे?
फिर
बाइबलमें
वर्णित
सृष्टिरचना
सिद्धान्तोंकी
व्याख्या
कैसे
होगी?
हरप्पन
सभ्यताको
सिंधुघाटीकी
सभ्यताका
नाम
दिया
जा
चुका
था।
लेकिन
उत्खननोंसे
लगने
लगा
कि
इसका
ह्रास
जलस्रोतोंके
कम
हो
जाने
या
सूखनेके
कारण
हुआ
था।
तो
फिर
वे
कौनसे
जलस्रोत
थे?
ऐसे
ही
प्रश्नोंके
मकडजाल
बढ
रहे
थे
कि
१९८०
में अमरीकन
सॅटेलाइट
लैण्डसॅटने
एक
अलग
धमाका
कर
दिया।
उसके
चित्रोंसे
स्पष्ट
हो
गया
कि
हरियाणासे
लेकर
प्रभास-क्षेत्र
तकके
भूपृष्ठके
गहरे
नीचे
एक
पुरातन
नदीके
बहनेका
प्रमाण
मिलता
है।
अर्थात्
सरस्वती
कोई
कपोलकल्पित
नदी
नही
थी।
फिर
इस
प्राचीन
मार्गके
आसपास
जैसे
लोथल,
कालीबंग,
राखीगढी
आदिमें
किये
गये
उत्खनन
बताने
लगे
कि
वहाँ
भी
वैसी
ही
प्राचीन
सभ्यताके
अवशेष
मिले
है,
जो
हरप्पन
सभ्यताके
थे।
अर्थात्
यहाँ
भी
वही
हरप्पन
सभ्यता
थी।
स्पष्ट
शब्दोंमें
हरप्पन
सभ्यताको
वस्तुत:
सरस्वती
घाटीकी
सभ्यता
कहा
जाना
चाहिये।
इन
नये
उत्खननों
से
यह
भी
स्पष्ट
होता
है
कि
यही
वैदिक
सभ्यता
भी
थी।
अर्थात्
आर्य
कोई
बाहरसे
आये
आक्रमणकारी
नहीं
बल्कि
इसी
भारतभूमि
की
आदि
संतान
हैं,
उनकी
सभ्यता
सरस्वतीके
किनारे
आरंभ
हुई
और
विस्तार
पाती
चली।
और
अब
तो
अन्य
शक्तिशाली
उपग्रहोंके
चित्रोंने
रामसेतुके
अस्तित्वको
भी
प्रमाणित
कर
दिया
जिससे
सिद्ध
होता
है
कि
रामायण
भी
कपोलकल्पित
कथा
नही
वरन्
इतिहास
ही
है।
इस
ऐतिहासिक
रामायणमें
भी
सरस्वतीका
वर्णन
मिलता
है।
इससे
अन्यान्य
भी
विज्ञानकी
कई
शाखाएँ
विकसित
हुई
हैं
जो
सरस्वतीसे
पोषित
भारतकी
देदीप्यमान
यशोगाथाको
पुष्ट
करती
है।
यदि
हम
एक
निबंध
लिखने
बैठ
जायें
जिसका
शीर्षक
हो
"जनमानसमें
सरस्वती"
तो
चार
अलग-अलग
कालखण्ड
स्पष्टतासे
दिख
पडते
हैं।
पहला
आदिकाल
से
१७८०
तकका
जब
हर
भारतीय
समझता
था
कि
सरस्वती
नदी
भले
ही
बहती
हुई
न
दिखे
परन्तु
वह
प्रयागमें
भी
उपस्थित
है
और
प्रभास-तीर्थमें
भी।
इसी
प्रकार
रामायण,
महाभारत
अथवा
राम
व
कृष्णके
होनेमें
भी
किसी
भारतीयको
शंका
नही
थी।
दूसरा
कालखण्ड
विलियम
जोन्स
तथा
मॅक्समुलरके
सिद्धान्तोंका
अर्थात्
सन्
१७८०
से
१९२०
के
दौरान
लगभग
डेढ
सौ
वर्षोंका
कालखण्ड
दीखता है। यह
भारतीय
राजनीति,
अर्थनीति
व
समाजनीतिके
साथ-साथ
संस्कृतिपर
भी
गहरे
आघातका
काल
था।
क्योंकि
इस
कालखण्डमें
इण्डोलॉजीके
नामसे
नये
सिद्धान्तका
उदय
हुआ
और
यूरोपमें
उसका
खूब
प्रचार
भी
हुआ।
तीसरा
कालखण्ड
बनता
है
मोहिन-जो-दारो
तथा
हरप्पामें
पुरातत्वके
सर्वप्रथम
उत्खननसे
लेकर
उपग्रह-दर्शित
सरस्वतीके
अस्तित्वके
प्रमाणतकका
अर्थात्
सन्
१९२१
से
१९८०
तकका।
इस कालखण्डमें किये गये उत्खनन
बताते हैं कि सरस्वतीके
किनारे
कोई
विकसित
सभ्यता
बसती
थी
जो
कालान्तरसे
विनष्ट
हुई। उस
सभ्यताका काल बाइबलमें वर्णित
सृष्टि-उत्पत्तिके
सिद्धान्त और कालगणनाको फीका
कर देता है।
और
चौथा
कालखण्ड
है
१९८०
से
चलकर
अबतकका
जिसमें
विज्ञानके
कई
नये
आयाम
और
व्याख्याएँ
हमारे
सामने
आये
जो
सरस्वतीके
देदीप्यमान
अस्तित्वके
प्रमाणके
साथ साथ
उसके
पुनर्भरणकी
संभावना
भी
बताते
हैं।
भास्वती
सरस्वती
अर्थात्
देदीप्यमान
सरस्वतीसे
संबंधित
इन
चार
कालखण्डोंकी
चर्चा
हम
अगले
प्रकरणोंमें
क्रमशः
करेंगे।
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2 टिप्पणियां:
अगले भाग पढने के लिए उत्सुक हूँ।
अनुक्रम में ही हर चॅप्टरकी लिंक है उसीपर खोलना है
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