शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

गीता किसके लिये?

 गीता किसके लिये?

गीता इतना पुरातन ग्रंथ है कि आम आदमीको गलतफहमी हो सकती है कि यह केवल बुढापेमें परमात्माका स्मरण करवानेके लिये उपयुक्त है।  लेकिन मैं कहती हूँ कि यह  बडी व्यवहारिक और उपयोगी विषयवस्तु है जो हर आयुमें और हर मौके पर  सही- गलतकी पहचान करवाती है।
        यदि आपके सामने भगवद्गीता पर  एक अच्छी पुस्तक रखी गई और आप सोच रहे है, इसे पढूँ? या चॅनेल सर्फिंगमें यही प्रोग्राम आपके सामने आया और आपके मनमें प्रश्न आया -इसे देखूँ  या न देखूँ ? क्या यह मेरे लिये relevant  है ? तो उत्तर है - हाँ।
       एक लीडर के लिये , जो लीडरी करना चाहता है और अच्छे-बुरेका विचार किये बगैंरे अपने लिये धन और सुखोपभोग भी जुटाना चाहता है - क्या गीतामें उसके लिये भी सुझाव  हैं - जरुर  हैं। क्योंकि गीतामें सुयोग्य लीडरके लिये सुझाव  है। एक अयोग्य लीडर भी उनसे लाभ ले सकता है -- लेकिन उनका पालन अल्प कालीन रहेगा - शाश्वत नही, वह दिखावा होगा, यथार्थ नही। क्योंकि कोई भी लीडर आपने अनुयायिके सामने अपने अनैतिक चरित्रका आदर्श नही रह सकता । वैसे  अनुयायी  उसके नहीं रहेंगे । सो थोडे ही समयमें ऐसे लीडरसे गीता छूट जायगी । लेकिन यदि वह सुयोग्य हैै तो गीता उसके लिये चिरंतन मार्गदर्शक है।
लीडर का पहला गुण है- कि औरों उसके सोच-विचार मेल खायें, उसकी wavelength जुडी रहे - उसके पास communication skills  हों, वह औरोंको motivate  कर सकता हो।
      गीता का सारांश देखना हो तो इस वाक्य में देखा जा सकता है -- तस्मात् योगी भवार्जुन। यह एक आदेश है।
लेकिन केवल आदेश देकर कृष्ण चुप नही बैठते। बारीकियाँ समझाकर  बताते हैं कि योगी के लक्षण क्या हैं, योगको कैसे आत्मसात्  करना है।
      छठवां अध्याय जो कि आत्मसंयमयोग कहा गया है, यह एक लम्बी यात्रा  को आनन्ददायी बनाने वाली कविता है ।
   जो कर्मके फल पर आश्रित  नही है, वही योगी है। वही संन्यासी है।
   गीता में बार बार कहा है- कौन संन्यासी है?  वह  नही जो सब कुछ  छोड -छाड कर कहीं दूर गिरीकंदराओंमें  भटकने  के लिये निकल पडा। बल्कि वह जो दुगुने उत्साह से काम में लग गया। लेकिन  उत्साह भी कैसा? जिसमे काम ही सर्वोपरि है- फल की आकांक्षा नही।
     पहले एक बार अर्जुन को  ये  तो कह  दिया कि  कर्मपर ही तेरा अधिकार  है , फलपर  नही- यह भी  डाँट डपट कर कह  दिया कि खबरदार फलेच्छा न रखना । लेकिन अब छठवें अध्यायमें  इसका यश भी बता रहे  हैं । जो कर्मफल से परे हो गया, वह योगी हो गया - मुदीत  हो गया , आनंदित हो गया।
       मैंने अक्सर देखा है और अपने घर परिवार में बच्चों को भी  समझाया ।  आजकल सबका ध्येय यही  हो गया है कि परीक्षा में नंबर लाना, विषय चाहे  समझ में आये या न आये।  मैं बच्चों से कहती - तुम्हें  परीक्षा में नंबर  आयें या न आये, मैं पहले पूछूँगी - विषय का ज्ञान आया या नही? मेरी परीक्षा में पास होकर दिखाओ तो मानूँ।  कोई विषय उठाओ और देखो कि यह कितनी  गहराई तक  तुम्हें  समझ आया।
      एक प्रसंग  है तैराकी का । ढेर सारे लोग  तैरने में expert  होते हैं ।  पानी में डुबकी लगाते हैं। पानी के अंदर जाते ही थोडासा हल्कापन महसूस करते हैं । जितना तय किया था, उतना तैरकर  बाहर आ जाते  हैं । या जिन देशों मे, जिन घरोंमें टबमें  पानीभर उसीमें नहानें का रिवाज  हैं, वे रोज यही करते हैं । लेकिन  आर्किमिडिस  एक वैज्ञानिक  था- नहाने के लिये टबमें  घुसा तो इधर  थोडा पानी छलक कर गिरा, और उधर देह में कुछ हल्कापन महसूस हुआ और  उसका दिमाग  जो सजग था -उसने  खट्ट से पकड  लिया - यह जो पानी बाहर गिरा, इसका और मेरे हल्केपनका कोई संबंध  है।  वह टब  से निकल कर नंगा ही सडकों पर दौड गया - युरेका, युरेका - अर्थात मैंने पा लिया , - क्या पा लिया ? रहस्य पा लिया। कैसा रहस्य ? पानीके छलकने और हल्कापन महसूस होनेके संबंधका रहस्य।
      तो यह  जो दिमाग की सजगता हैं , हर क्षण के कार्यकलाप  को पकडना , समझना , छोडना और  अगले क्षण के  लिये तत्पर  हो जाना । यह कहाँ से आती हैं ? यह तब आती हैं - यदि हम कर्ममें  पूटी तरह  जुटे हों , फिर भी कर्मफल  पर आश्रित नही हों।
       यहाँ बडी विचारणीय बात हैं , क्या हमें goal  focussed नहीं होना है  ? यदि कर्मफल  के प्रति मोह नही रखना है तो उस  लक्ष्यपर / goal  पर हमारी आँख नही रहेंगी फिर  तो कर्म  करने की प्रेरणा ही नही रहेगी ।
   तो गीता की सीख यह नही है । goal पर focus  रखना हैं - उसी के लिये कर्म करने हैं और  कुशलता के साथ करनें हैं। तो छोडना किसे है- ?  छोडना है उस सुख-दुख को जो जय-पराजय से, स्तुती-निंदा से, यश-अपयश से आते हैं । मैं अपने आनंद  के लिये उस  जय  या यश पर आश्रित नही रहूँ, बल्कि मेरा आनंद इस बात से आये कि मैं काम  कर रही हूँ । और अच्छी तरह से कर रही हूँ। लक्ष्य पर  निगाह रख कर रही हूँ। कुशलता पूर्वक, सतर्कता  पूर्वक, तन्मयता पूर्वक । ताकि उस कार्य को करते करते मेरी इन्द्रियाँ एक लय में  निबद्ध हो जायें ।
     एक प्रसंग मुझे याद आता है कि में अपने बेटे को कार चलाना सिखा रही थी। उसे अच्छी खासी प्रॅक्टिस हो गई। स्पीड बढाना, घटाना, ब्रेक लगाना, ओव्हरटेक, रिवर्स । RTO  में जाकर टेस्ट देनेका समय आया तो मैंने समझाया -  देखो, मेरी टेस्ट में पास  होना पडेगा। क्या है वह टेस्ट ? कि जब गाडी चलाओ , तब दिमाग से नही बल्कि शरीर के अवयवों से गाडी चलनी चाहिये । जब आँख के कोने से दिख जाये कि कोई रास्ते में आनेवाला है तो यह संवेदना या ज्ञान पहले दिमाग में पहुँचता है या पहले पैर ब्रेक दबाने के लिये तैयार हो जाते हैं? यदि पैर पहले तैयार हैं तो टेस्ट में पास। यदि कान्शस दिमाग के आदेश पर पैरों को ब्रेक लगाना पडे तो इसका अर्थ है कि अभी और प्रॅक्टिस आवश्यक है।

यह एकाग्रता लाने के लिये क्या कोई अनुक्रमसे सीखा जानेवाला तरीका है ? है, और यही तरीका गीताके आत्मसंयमयोग नामक छठे अध्यायमें वर्णित है।

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योSपासनं शौचं स्थैर्यमात्मनविनिग्रहः।। ७
मनकी अहिंसा भावना इन्द्रियों के माध्यम से प्रगट होती है । अनः जिसके मनमें अहिंसा है उसका बोलना मधुर, हस्तस्पर्श सुखकर, दृष्टि कृपावंत हो जाती है।
      भगवद्गीता में संकल्पनाओं की प्रस्तुति है, उनमेंसे एक सुंदर संकल्पना है दसवाँ अध्याय अर्थात् विभूतियोग।  केषु केषुच भावेषु चिन्त्योSसि? अर्जुन पूछता है, हे कृष्ण, मैं तुन्हें किस किस रूप में देखूँ ? अपने  उस सुंदर आनंददायी स्वरूप के विषय में तुम स्वयं बताओ । और भगवान भी जो इतनी देर से मैं निर्गुण हूँ, निराकार हूँ, परब्रह्म हूँ इत्यादि कहे जा रहे थे, वो सारे सिद्धान्त अलग रखकर उन्होंने अपनी पहचान के संकेत बता दिये।
     यह कहना कि सामान्य व्यक्ति भगवान नही बन सकता- इस सिद्धान्त को ही भगवान ने धता बता दिया । हर व्यक्ति भगवान के समकक्ष बन सकता है, अपने अस्तित्व के माध्यम से इतर जनोंको भगवानके होने की प्रचीति करा सकता है। सामान्य मनुष्य के मन को दिव्यता का शिखर दिखाकर उसे रास्ता बता दिया- एक चॅलेंज के साथ या एक शाबासी के साथ- कि देख लो, वह जो शिखर है, वह गुण मेरा परिचायक है उसे प्राप्त करो और मेरे समकक्ष हो जाओ।
     हर मनुष्य के मन में एक ललक होती है, कुछ कर गुजरने की। ऐसे कर्तृत्ववान मनुजोंके लिये विभूतियोग है- यह हमें गुणों की परख भी सिखाता है और उन गुणों का निर्वाह करने के लिये भी प्रेरणा देता है।
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