शनिवार, 27 जून 2020
बुधवार, 24 जून 2020
शुक्रवार, 19 जून 2020
यम के अर्थ
ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त १४, १५ यम सूक्त कहे जाते हैं।
सूक्त १५ के ऋषि वैवस्वत यम ही हैं। सूक्त १५ के ऋषि उनके वंशज शङ्ख यामायन हैं।
ये विवस्वान् पुत्र यम मनुष्य हैं और उनके वंशज (यामायन) शङ्ख हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित वर्णन सौरमण्डल के यमक्षेत्र का है।
शनि का प्रकाशित भाग धर्म और अन्धकार भाग या यूरेनस यम है।
भागवत पुराण स्कन्ध ५ में चक्राकार पृथ्वी का वर्णन है जिसका भीतरी भाग ५० करोड़ योजन व्यास का है (यहाँ पृथ्वी का व्यास १२,८०० किमी. = १,००० योजन, अर्थात् १ योजन = १२.८ किमी.)
-इसे लोक (प्रकाशित) भाग तथा १०० कोटि योजन व्यास तक का बाहरी भाग अलोक (अप्रकाशित) कहा गया है।
ततः परस्ताल्लोकालोकनामाचलो लोकालोकयोरन्तराले परित उपक्षिप्तः।
यावन्मानसोत्तरमेर्वोरन्तरं तावती भूमिः काञ्चन्यन्यादर्शतलोपमा यस्यां प्रहितः।
पदार्थो न कथञ्चित्पुनः प्रत्युपलभ्यते तस्मात्सर्वसत्त्वपरिहृतासीत्।
लोकालोक इति समाख्या यदनेनाचलेन लोकालोकस्यान्तर्वर्तिनावस्थाप्यते।
स लोकत्रयान्ते परित ईश्वरेण विहितो यस्मात्सूर्यादीनां ध्रुवापवर्गाणां ज्योतिर्गणानां गभस्तयोऽर्वाचीनांस्त्रीन्लोकानावितन्वाना न कदाचित्पराचीना भवितुमुत्सहन्ते तावदुन्नहनायामः।
एतावान्लोकविन्यासो मानलक्षणसंस्थाभिर्विचिन्तितः कविभिः स तु पञ्चाशत्कोटिगणितस्य भूगोलस्य तुरीयभागोऽयं लोकालोकाचलः।
(स्कन्ध ५, २०/३४-४०)
अथर्व वेद के काण्ड १८ में भी ४ बड़े सूक्त हैं जिनको पितृमेध कहा गया है। इनमें कुल २८३ मन्त्र हैं।
इन मन्त्रों में यम-मार्ग के दो श्वान (कुत्ते) कहे गये हैं जो सम्भवतः मंगल के दो उपग्रह हैं। (ऋग्वेद १०/१४/१०-११, अथर्व वेद १८/२/११-१२)।
शनि के चारों तरफ के वलयों को ३ भागों में बाँटा गया है-
भीतर का पीलुमती, मध्य में उदन्वती तथा बाहरी प्रद्यौ (Paradise) हैं-
उदन्वती द्यौरवमा पीलुमतीति मध्यमा।
तृतीया ह प्रद्यौरिति यस्यां पितर आसते॥ (अथर्व १८/२/४८)।
सम्भवतः इन्हीं को गरुड़ पुराण में वैतरणी नदी कहा गया है।
जगत् की आत्मा विष्णु का वाहन गरुड़ है अतः उनके स्वरूप आत्मा का वाहन भी गरुड़ ही होगा अतः इस पुराण को गरुड़ पुराण कहते हैं।
आकाश में विष्णु रूप सूर्य के ४ पद हैं।
सौर मण्डल में ३ पद हैं।
ताप क्षेत्र १०० योजन (यहां सूर्य व्यास = १ योजन) तक, उसके बाद तेज या वायु क्षेत्र १००० योजन तक (पुरुष सूक्त की भाषा में सहस्राक्ष, सूर्य = अक्ष या चक्षु) तथा १ लाख योजन तक प्रकाश क्षेत्र जहां तक तीव्र प्रकाश है।
सूर्य का प्रकाश आकाशगंगा से जहां तक अधिक है उसे सौरमण्डल का द्यु कहा है।
यह १५७ लाख सूर्य वास तक या पृथ्वी के आकार को ३० बार २-गुणा करने पर (३० धाम) होता है।-
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् ८/३)
स एष (आदित्यः) एक
शतविधस्तस्य रश्मयः ।
शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण १०/२/४/३)
युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति ।
सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण १/४४/५)
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः ।
ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६)
भूमेर्योजनलक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्।५॥ (विष्णु पुराण २/७)
विष्णु पुराण २/८-
योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव।
ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम॥२॥
सार्धकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि वै।
योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितम्॥३॥
सूर्य सिद्धान्त (१२)-
भवेद् भकक्षा तिग्मांशो र्भ्रमणं षष्टिताडितम्।
सर्वोपरिष्टाद् भ्रमति योजनैस्तैर्भमण्डलम्॥८०॥
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥१७॥
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥२०॥
सूर्य का चतुर्थ या परम पद वह क्षेत्र है जिसकी सीमा पर सूर्य विन्दु मात्र दीखता है-
सूर्य सिद्धान्त (१२)-
ख-व्योम-खत्रय-ख-सागर-षट्क-नाग-व्योमा-ष्ट-शून्य-यम-रूप-नगा-ष्ट-चन्द्राः।
ब्रह्माण्ड संपुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य करप्रसाराः॥९०॥
त्रिंशद्धाम वि-राजति वाक् पतङ्गाय धीमहि ।
प्रति वस्तोरहद्युभिः ॥ (ऋक्, १०/१८९/३)
...द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति तां समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति..... (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)
विष्णु के ४ पदों के अनुसार प्रेत (प्र इतः = यहां से चला गया) की ४ गति हैं-
(१) प्रेत शरीर-
चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में मनुष्य शरीर गर्भ में बनता है।
प्रेत शरीर चान्द्र मण्डल का पदार्थ है। यह पृथ्वी की १० परिभ्रमण (१० दिन में बनता है।
इसी प्रकार सौरमण्डल की सृष्टि भी परमेष्ठी मण्डल की १० परिक्रमा में हुई है जिसे १० रात्रि कहा है।
यज्ञो वै दश होता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६)
विराट् वा एषा समृद्धा, यद् दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण ४/८/६)
विराट् वै यज्ञः। ...दशाक्षरा वै विराट् । (शतपथ ब्राह्मण १/१/१/२२, २/३/१/१८, ४/४/५/१९)
अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१)
अथ यद् दशरात्रमुपयन्ति।
विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/१७ )
प्राणा वै दशवीराः। (यजु १९/४८, शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२)
(२) पृथ्वी सतह से चन्द्रकक्षा तक चन्द्र की १३ परिक्रमा अर्थात् १२ चान्द्रमास में। उसके बाद चन्द्र के ऊर्ध्व भाग में पितर निवास।
(३) चन्द्र सतह पर पृथ्वी कक्षा के साथ सूर्य की वार्षिक परिक्रमा जिसके लिये पितृपक्ष में श्राद्ध।
(४) गौ (प्रकाश किरण) की शक्ति से महान् आत्मा का सौरमण्डल की सीमा तक गति-मार्ग में अवान्तर ग्रह तथा शनि के वलयों की बाधा।
(५) सौर मण्डल से बाहर निकलना जिसके लिये गया श्राद्ध-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डल भेदिनौ।
परिव्राट् योगयुक्तो वा रणे चाभिमुखं हतम्॥ (विदुर गीता, शुक्र नीति)
विष्णु पुराण २/७-
ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः।
एक योजन कोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः॥१२॥
स यदाह गयोऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वांल्लोकान् गच्छति तद् यद् गच्छति तस्माद् गयः, तद् गयस्य गयत्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व ५/१४)
प्राणा वै गयाः। (शतपथ ब्राह्मण १४/८/१५/७)
गयस्फानः प्रतरणः सुवीरो ऽवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान्। (ऋक् १/९१/१९)
गयस्फानः प्रतरणः सुवीर इति गवां नः स्फावयिता प्रतारयितैधीत्याह। (ऐतरेय ब्राह्मण १/१३)
यम के ४ अर्थ-
(१) सृष्टि का आरम्भ एकर्षि से हुआ जो ३ भाग में विभक्त नहीं होने के कारण अत्रि कहा गया है।
यह सूर्य (स्रोत) तथा यम (परिणति) के बीच ऋषि (रस्सी) है जिसके द्वारा पोषण (पूषन्) होता है।
यह प्राजापत्य (सृष्टि करने वाला) है-
पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूह।
तेजो यत् ते रूपं तत् ते पश्यामि योसावसौ सोऽहमस्मि। (ईशावास्य उपनिषद्).
(२) सौर वायु की सीमा पर यूरेनस ग्रह तक-शनि धर्म तथा यूरेनस यम है।
पिता का सक्रिय जीवन समाप्त होने पर पुत्र का आरम्भ होता है अतः सीमावर्त्ती भाग पुत्र है।
पार्थिव (ठोस) ग्रहों की सीमा पर मंगल भी इसी अर्थ में पृथ्वी का पुत्र है।
(३) पृथ्वी पर २ यम क्षेत्र हैं-सबसे दक्षिणी भाग अनन्त द्वीप (अण्टार्कटिका) है क्योंकि यह नक्शे में अनन्त आकार का हो जायेगा।
यह २ भूखण्ड है अतः यम (यमल = जोड़ा, २) है। इसका निकटवर्त्ती भाग न्यूजीलैण्ड यमकोटिद्वीप भी २ भूखण्ड है।
इसका दक्षिणी पश्चिमी तट यमकोटिपत्तन उज्जैन या लंका से ९० अंश पूर्व कहा गया है (सूर्य सिद्धान्त)।
भारत की पश्चिमी सीमा भी यम क्षेत्र है। यहां यम और संयमनी के नाम पर कई स्थान हैं-
यमन, अम्मान, सना तथा मृतसागर।
इसके ९० अंश पूर्व (वियतनाम) में इन्द्र की अमरावती पुरी थी जिनको पूर्व का दिक्पाल कहा है।
विष्णु पुराण (२/८)-
मानसोत्तरशैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥८॥
वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी।९।
शक्रादीनां पुरे तिष्ठन् स्पृशत्येष पुरत्रयम्। विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्त्रीन् कोणान्द्वे पुरे तथा।॥१६॥
उदितो वर्द्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन् रविः।
ततः परं ह्रसन्तीभिर्गोभिरस्तं नियच्छति॥१७॥
सूर्य सिद्धान्त (१२/३८-४२)-
भूवृत्तपादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्ववर्षे नगरी स्वर्णप्राकारतोरणा॥३८॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी।
पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता (४०) भूवृत्तपादविवरास्ताश्चान्योन्यं प्रतिष्ठिता (४१)
तासामुपरिगो याति विषुवस्थो दिवाकरः।
न तासु विषुवच्छाया नाक्षस्योन्नतिरिष्यते ॥४२॥
(४) मनुष्य रूप में-
विवस्वान् वायु पुराण वर्णन के अनुसार १३९०२ ई.पू. में थे।
इसके पूर्व वेद का ब्रह्म सम्प्रदाय स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) से था।
ज्योतिष में भी पहले पितामह सिद्धान्त था, विवस्वान् से सूर्य सिद्धान्त आरम्भ हुआ जिसका संशोधन मय असुर ने ९२३२ ई.पू. में किया।
विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु थे जिनके वंशज (पुत्र) इक्ष्वाकु का शासन १-११-८५७६ ई.पू. में आरम्भ हुआ।
विवस्वान की परम्परा में ही (दूसरे पुत्र) वैवस्वत यम हुये जिनके काल में जल-प्रलय हुआ था (प्रायः १०,००० ई.पू.)।
इनको जेन्द अवेस्ता में जमशेद कहा गया है।
ऋग्वेद, मण्डल १०, सूक्त १४, १५ यम सूक्त कहे जाते हैं।
सूक्त १५ के ऋषि वैवस्वत यम ही हैं। सूक्त १५ के ऋषि उनके वंशज शङ्ख यामायन हैं।
ये विवस्वान् पुत्र यम मनुष्य हैं और उनके वंशज (यामायन) शङ्ख हैं। किन्तु उनके द्वारा प्रतिपादित वर्णन सौरमण्डल के यमक्षेत्र का है।
शनि का प्रकाशित भाग धर्म और अन्धकार भाग या यूरेनस यम है।
भागवत पुराण स्कन्ध ५ में चक्राकार पृथ्वी का वर्णन है जिसका भीतरी भाग ५० करोड़ योजन व्यास का है (यहाँ पृथ्वी का व्यास १२,८०० किमी. = १,००० योजन, अर्थात् १ योजन = १२.८ किमी.)
-इसे लोक (प्रकाशित) भाग तथा १०० कोटि योजन व्यास तक का बाहरी भाग अलोक (अप्रकाशित) कहा गया है।
ततः परस्ताल्लोकालोकनामाचलो लोकालोकयोरन्तराले परित उपक्षिप्तः।
यावन्मानसोत्तरमेर्वोरन्तरं तावती भूमिः काञ्चन्यन्यादर्शतलोपमा यस्यां प्रहितः।
पदार्थो न कथञ्चित्पुनः प्रत्युपलभ्यते तस्मात्सर्वसत्त्वपरिहृतासीत्।
लोकालोक इति समाख्या यदनेनाचलेन लोकालोकस्यान्तर्वर्तिनावस्थाप्यते।
स लोकत्रयान्ते परित ईश्वरेण विहितो यस्मात्सूर्यादीनां ध्रुवापवर्गाणां ज्योतिर्गणानां गभस्तयोऽर्वाचीनांस्त्रीन्लोकानावितन्वाना न कदाचित्पराचीना भवितुमुत्सहन्ते तावदुन्नहनायामः।
एतावान्लोकविन्यासो मानलक्षणसंस्थाभिर्विचिन्तितः कविभिः स तु पञ्चाशत्कोटिगणितस्य भूगोलस्य तुरीयभागोऽयं लोकालोकाचलः।
(स्कन्ध ५, २०/३४-४०)
अथर्व वेद के काण्ड १८ में भी ४ बड़े सूक्त हैं जिनको पितृमेध कहा गया है। इनमें कुल २८३ मन्त्र हैं।
इन मन्त्रों में यम-मार्ग के दो श्वान (कुत्ते) कहे गये हैं जो सम्भवतः मंगल के दो उपग्रह हैं। (ऋग्वेद १०/१४/१०-११, अथर्व वेद १८/२/११-१२)।
शनि के चारों तरफ के वलयों को ३ भागों में बाँटा गया है-
भीतर का पीलुमती, मध्य में उदन्वती तथा बाहरी प्रद्यौ (Paradise) हैं-
उदन्वती द्यौरवमा पीलुमतीति मध्यमा।
तृतीया ह प्रद्यौरिति यस्यां पितर आसते॥ (अथर्व १८/२/४८)।
सम्भवतः इन्हीं को गरुड़ पुराण में वैतरणी नदी कहा गया है।
जगत् की आत्मा विष्णु का वाहन गरुड़ है अतः उनके स्वरूप आत्मा का वाहन भी गरुड़ ही होगा अतः इस पुराण को गरुड़ पुराण कहते हैं।
आकाश में विष्णु रूप सूर्य के ४ पद हैं।
सौर मण्डल में ३ पद हैं।
ताप क्षेत्र १०० योजन (यहां सूर्य व्यास = १ योजन) तक, उसके बाद तेज या वायु क्षेत्र १००० योजन तक (पुरुष सूक्त की भाषा में सहस्राक्ष, सूर्य = अक्ष या चक्षु) तथा १ लाख योजन तक प्रकाश क्षेत्र जहां तक तीव्र प्रकाश है।
सूर्य का प्रकाश आकाशगंगा से जहां तक अधिक है उसे सौरमण्डल का द्यु कहा है।
यह १५७ लाख सूर्य वास तक या पृथ्वी के आकार को ३० बार २-गुणा करने पर (३० धाम) होता है।-
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् ८/३)
स एष (आदित्यः) एक
शतविधस्तस्य रश्मयः ।
शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण १०/२/४/३)
युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति ।
सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण १/४४/५)
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः ।
ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६)
भूमेर्योजनलक्षे तु सौरं मैत्रेय मण्डलम्।५॥ (विष्णु पुराण २/७)
विष्णु पुराण २/८-
योजनानां सहस्राणि भास्करस्य रथो नव।
ईषादण्डस्तथैवास्य द्विगुणो मुनिसत्तम॥२॥
सार्धकोटिस्तथा सप्त नियुतान्यधिकानि वै।
योजनानां तु तस्याक्षस्तत्र चक्रं प्रतिष्ठितम्॥३॥
सूर्य सिद्धान्त (१२)-
भवेद् भकक्षा तिग्मांशो र्भ्रमणं षष्टिताडितम्।
सर्वोपरिष्टाद् भ्रमति योजनैस्तैर्भमण्डलम्॥८०॥
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥१७॥
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्॥२०॥
सूर्य का चतुर्थ या परम पद वह क्षेत्र है जिसकी सीमा पर सूर्य विन्दु मात्र दीखता है-
सूर्य सिद्धान्त (१२)-
ख-व्योम-खत्रय-ख-सागर-षट्क-नाग-व्योमा-ष्ट-शून्य-यम-रूप-नगा-ष्ट-चन्द्राः।
ब्रह्माण्ड संपुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य करप्रसाराः॥९०॥
त्रिंशद्धाम वि-राजति वाक् पतङ्गाय धीमहि ।
प्रति वस्तोरहद्युभिः ॥ (ऋक्, १०/१८९/३)
...द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति तां समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति..... (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)
विष्णु के ४ पदों के अनुसार प्रेत (प्र इतः = यहां से चला गया) की ४ गति हैं-
(१) प्रेत शरीर-
चन्द्र की १० परिक्रमा (२७३ दिन) में मनुष्य शरीर गर्भ में बनता है।
प्रेत शरीर चान्द्र मण्डल का पदार्थ है। यह पृथ्वी की १० परिभ्रमण (१० दिन में बनता है।
इसी प्रकार सौरमण्डल की सृष्टि भी परमेष्ठी मण्डल की १० परिक्रमा में हुई है जिसे १० रात्रि कहा है।
यज्ञो वै दश होता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/६)
विराट् वा एषा समृद्धा, यद् दशाहानि। (ताण्ड्य महाब्राह्मण ४/८/६)
विराट् वै यज्ञः। ...दशाक्षरा वै विराट् । (शतपथ ब्राह्मण १/१/१/२२, २/३/१/१८, ४/४/५/१९)
अन्तो वा एष यज्ञस्य यद् दशममहः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/१)
अथ यद् दशरात्रमुपयन्ति।
विश्वानेव देवान्देवतां यजन्ते। (शतपथ ब्राह्मण १२/१/३/१७ )
प्राणा वै दशवीराः। (यजु १९/४८, शतपथ ब्राह्मण १२/८/१/२२)
(२) पृथ्वी सतह से चन्द्रकक्षा तक चन्द्र की १३ परिक्रमा अर्थात् १२ चान्द्रमास में। उसके बाद चन्द्र के ऊर्ध्व भाग में पितर निवास।
(३) चन्द्र सतह पर पृथ्वी कक्षा के साथ सूर्य की वार्षिक परिक्रमा जिसके लिये पितृपक्ष में श्राद्ध।
(४) गौ (प्रकाश किरण) की शक्ति से महान् आत्मा का सौरमण्डल की सीमा तक गति-मार्ग में अवान्तर ग्रह तथा शनि के वलयों की बाधा।
(५) सौर मण्डल से बाहर निकलना जिसके लिये गया श्राद्ध-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डल भेदिनौ।
परिव्राट् योगयुक्तो वा रणे चाभिमुखं हतम्॥ (विदुर गीता, शुक्र नीति)
विष्णु पुराण २/७-
ध्रुवादूर्ध्वं महर्लोको यत्र ते कल्पवासिनः।
एक योजन कोटिस्तु यत्र ते कल्पवासिनः॥१२॥
स यदाह गयोऽसीति सोमं वा एतदाहैष ह वै चन्द्रमा भूत्वा सर्वांल्लोकान् गच्छति तद् यद् गच्छति तस्माद् गयः, तद् गयस्य गयत्वम्। (गोपथ ब्राह्मण, पूर्व ५/१४)
प्राणा वै गयाः। (शतपथ ब्राह्मण १४/८/१५/७)
गयस्फानः प्रतरणः सुवीरो ऽवीरहा प्र चरा सोम दुर्यान्। (ऋक् १/९१/१९)
गयस्फानः प्रतरणः सुवीर इति गवां नः स्फावयिता प्रतारयितैधीत्याह। (ऐतरेय ब्राह्मण १/१३)
यम के ४ अर्थ-
(१) सृष्टि का आरम्भ एकर्षि से हुआ जो ३ भाग में विभक्त नहीं होने के कारण अत्रि कहा गया है।
यह सूर्य (स्रोत) तथा यम (परिणति) के बीच ऋषि (रस्सी) है जिसके द्वारा पोषण (पूषन्) होता है।
यह प्राजापत्य (सृष्टि करने वाला) है-
पूषन् एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूहरश्मीन् समूह।
तेजो यत् ते रूपं तत् ते पश्यामि योसावसौ सोऽहमस्मि। (ईशावास्य उपनिषद्).
(२) सौर वायु की सीमा पर यूरेनस ग्रह तक-शनि धर्म तथा यूरेनस यम है।
पिता का सक्रिय जीवन समाप्त होने पर पुत्र का आरम्भ होता है अतः सीमावर्त्ती भाग पुत्र है।
पार्थिव (ठोस) ग्रहों की सीमा पर मंगल भी इसी अर्थ में पृथ्वी का पुत्र है।
(३) पृथ्वी पर २ यम क्षेत्र हैं-सबसे दक्षिणी भाग अनन्त द्वीप (अण्टार्कटिका) है क्योंकि यह नक्शे में अनन्त आकार का हो जायेगा।
यह २ भूखण्ड है अतः यम (यमल = जोड़ा, २) है। इसका निकटवर्त्ती भाग न्यूजीलैण्ड यमकोटिद्वीप भी २ भूखण्ड है।
इसका दक्षिणी पश्चिमी तट यमकोटिपत्तन उज्जैन या लंका से ९० अंश पूर्व कहा गया है (सूर्य सिद्धान्त)।
भारत की पश्चिमी सीमा भी यम क्षेत्र है। यहां यम और संयमनी के नाम पर कई स्थान हैं-
यमन, अम्मान, सना तथा मृतसागर।
इसके ९० अंश पूर्व (वियतनाम) में इन्द्र की अमरावती पुरी थी जिनको पूर्व का दिक्पाल कहा है।
विष्णु पुराण (२/८)-
मानसोत्तरशैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥८॥
वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी।९।
शक्रादीनां पुरे तिष्ठन् स्पृशत्येष पुरत्रयम्। विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्त्रीन् कोणान्द्वे पुरे तथा।॥१६॥
उदितो वर्द्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन् रविः।
ततः परं ह्रसन्तीभिर्गोभिरस्तं नियच्छति॥१७॥
सूर्य सिद्धान्त (१२/३८-४२)-
भूवृत्तपादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्ववर्षे नगरी स्वर्णप्राकारतोरणा॥३८॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी।
पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता (४०) भूवृत्तपादविवरास्ताश्चान्योन्यं प्रतिष्ठिता (४१)
तासामुपरिगो याति विषुवस्थो दिवाकरः।
न तासु विषुवच्छाया नाक्षस्योन्नतिरिष्यते ॥४२॥
(४) मनुष्य रूप में-
विवस्वान् वायु पुराण वर्णन के अनुसार १३९०२ ई.पू. में थे।
इसके पूर्व वेद का ब्रह्म सम्प्रदाय स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) से था।
ज्योतिष में भी पहले पितामह सिद्धान्त था, विवस्वान् से सूर्य सिद्धान्त आरम्भ हुआ जिसका संशोधन मय असुर ने ९२३२ ई.पू. में किया।
विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु थे जिनके वंशज (पुत्र) इक्ष्वाकु का शासन १-११-८५७६ ई.पू. में आरम्भ हुआ।
विवस्वान की परम्परा में ही (दूसरे पुत्र) वैवस्वत यम हुये जिनके काल में जल-प्रलय हुआ था (प्रायः १०,००० ई.पू.)।
इनको जेन्द अवेस्ता में जमशेद कहा गया है।
बुधवार, 10 जून 2020
सोमवार, 8 जून 2020
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